Tuesday, July 5, 2011



अरूणा आसफ अली ने तिरंगा फहराकर अंग्रेजों को दी खुली चुनौती
संदीप सिंहमार।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में असंख्य क्रांतिकारियों ने प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप अपना योगदान दिया। इस आंदोलन में पुरुष क्रांतिकारियों के साथ-साथ महिला क्रांतिकारी ने भी कंधे से कंधा मिलाकर काम किया। आजादी की जंग में देश की महिलाओं के बलिदान को हमेशा के लिए याद रखा जाएगा। लेकिन विडंबना यह है कि जिन वीरांगनाओं ने अपना संपूर्ण जीवन देश को अंग्रेजों की बेडिय़ों से मुक्त करने में लगा दिया, उन्हें साहित्य से दूर रखा गया। अरूणा आसफ अली भी एक ऐसी ही महिला स्वतंत्रता सेनानी है। 1930 के दशक में अंग्रेजों को सोचने के लिए मजबूर करने वाली अरूणा आसफ अली को आज कृतज्ञ राष्ट्र के लोगों द्वारा भुला दिया गया है। महात्मा गांधी के आह्वान पर हुए 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अरूणा आसफ अली ने सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था। इतना ही नहीं जब सभी प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिए गए तो उन्होंने अद्भुत कौशल का परिचय दिया और 9 अगस्त के दिन मुम्बई के गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा झंडा फहराकर अंग्रेजों को देश छोडऩे की खुली चुनौती दे डाली।
कालका में हुआ था जन्म
भारत के स्वाधीनता संग्राम में महान योगदान देने वाली अरूणा आसफ अली का जन्म 16 जुलाई 1909 को हरियाणा (तत्कालीन पंजाब) के कालका में हुआ था। लाहौर और नैनीताल से पढ़ाई पूरी करने के बाद वह शिक्षिका बन गई और कोलकाता के गोखले मैमोरियल कॉलेज में अध्यापन कार्य करने लगी। 1928 में स्वतंत्रता सेनानी आसफ अली से शादी करने के बाद अरूणा भी स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने लगी। शादी के बाद उनका नाम अरूणा आसफ अली हो गया। परतंत्रता के दिनों में भारत की दुर्दशा और अंग्रेजों के अत्याचार देखकर अरूणा आसफ अली स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने लगी। उन्होंने महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आजााद की सभाओं में भाग लेना आरंभ कर दिया। वह इन दोनों नेताओं के संपर्क में आई और उनके साथ कर्मठता से राजनीति में भाग लेने लगी। अरूणा आसफ अली सन 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में पहली बार जेल गई। 1930 के दशक में अंग्रेजी हुकूमत उनसे बहुत परेशान थी क्योंकि उनकी गिनती अंग्रेजों की नजर में खतरनाक क्रांतिकारियों में थी।
भूख हड़ताल कर जेल के हालात सुधारे
सन् 1931 में गांधी इरविन समझौते के तहत सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया गया। लेकिन अरूणा आसफ अली को नहीं छोड़ा गया। इस पर महिला कैदियों ने उनकी रिहाई न होने तक जेल परिसर छोडऩे से इंकार कर दिया। माहौल बिगड़ते देख अंग्रेजों को अरूणा को भी रिहा करना पड़ा। सन् 1932 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और दिल्ली की तिहाड़ जेल में रखा गया। वहां उन्होंने राजनीतिक कैदियों के साथ होने वाले दुव्र्यवहार के खिलाफ भूख हड़ताल की, जिसके चलते गोरी हुकूमत को जेल के हालात सुधारने को मजबूर होना पड़ा। रिहाई के बाद राजनीतिक रूप से अरूणा ज्यादा सक्रिय नहीं रही लेकिन 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ तो वह आजादी की लड़ाई में एक नायिका के रूप में उभरकर सामने आई।
अंग्रेजी हुकूमत ने रखा अरूणा पर 5 हजार का ईनाम
गांधी जी के आह्वान पर 8 अगस्त 1942 को कांग्रेस के मुम्बई सत्र में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास हुआ। गोरी हुकूमत ने सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। ऐसे में अरूणा आसफ अली ने गजब की दिलेरी का परिचय दिया। 9 अगस्त 1942 को उन्होंने अंग्रेजों के सभी इंतजामों को धता बताते हुए मुंबई के गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा झंडा फहरा दिया। ब्रितानिया हुकूमत ने उन्हें पकड़वाने वाले को 5 हजार रुपए का ईनाम देने की घोषणा की। 1942 के बाद अरूणा आसफ अली भूमिगत हो गई थी। इस दौरान अंग्रेजी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करने के लिए एडी-चोटी का जोर लगाया। लेकिन वह अंग्रेजों की गिरफ्त से बाहर रही। इसी बीच वह बीमार पड़ गई। जब वह काफी दिनों तक बीमार रही तो भारत के शीर्ष नेताओं ने उन्हें अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण करने की बात कही। लेकिन इस स्वाभिमानी वीरांगना ने स्पष्ट इंकार कर दिया। 1946 में गिरफ्तारी वारंट वापस लिए जाने के बाद वह लोगों के सामने आई। आजादी के बाद भी अरूणा ने राष्ट्र और समाज के कल्याण के लिए बहुत से काम किए। सन् 1948 में अरूणा आसफ अली सोशलिस्ट पार्टी में सम्मिलित हुई। 2 साल बाद सन् 1950 में उन्होंने लेफ्ट सोशलिस्ट पार्टी बनाई और वे सक्रिय होकर मजदूर आंदोलन में जी जान से जुट गई।
'बेटा, मां को कभी न भूलना
अरूणा आसफ अली की जीवन शैली काफी अलग थी। अपनी उम्र के आठवें दशक में भी उन्होंने सार्वजनिक परिवहन से सफर जारी रखा। एक बार अरूणा आसफ अली दिल्ली में यात्रियों से ठसाठस भरी बस में सवार थीं। कोई सीट खाली नहीं थी। उसी बस में आधुनिक जीवनशैली की एक युवा महिला भी सवार थी। एक आदमी ने युवा महिला की नजरों में चढऩे के लिए अपनी सीट उसे दे दी। लेकिन उस महिला ने अपनी सीट अरूणा को दे दी। इस पर वह व्यक्ति बुरा मान गया और युवा महिला से कहा कि यह सीट मैनें आपके लिए खाली की थी बहन। इसके जवाब में अरूणा आसफ अली तुरंत बोली 'मां को कभी न भूलो क्योंकि मां का हक बहन से पहले होता हैÓ। इस बात को सुनकर वह व्यक्ति काफी शर्मसार हो गया।
मरणोपरांत मिला भारत रत्न सम्मान
वर्ष 1958 में वह दिल्ली की प्रथम महापौर चुनी गई। राष्ट्र निर्माण में जीवन पर्यन्त योगदान के लिए उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। 1964 में उन्हें अंतरराष्ट्रीय लेनिन शांति पुरस्कार मिला। सन 1991 में अरूणा को जवाहर लाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय एकता के लिए 1992 में पद्म विभूषण और इंदिरा गांधी अवार्ड से सम्मानित किया गया। देश के गुलामी के दिनों व आजादी के बाद ताउम्र इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने हमेशा ही देशहित में कार्य किए। लेकिन देश के साहित्यकारों ने अरूणा को कभी उचित स्थान नहीं दिया। 29 जुलाई 1996 को इस महान वीरांगना ने इस नश्वर संसार को अलविदा कह दिया। भारत सरकार ने 1997 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्नÓ से सम्मानित किया। 1998 में उनकी याद में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। देश के लिए अपना संपूर्ण जीवन कुर्बान करने वाली अरूणा आसफ अली आज के आधुनिक भारत की महिलाओं के लिए एक आदर्श है तथा ऐसी शख्सियत को हमेशा के लिए याद रखा जाना चाहिए।

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