Monday, October 29, 2012

भारत में कृषि की दुर्दशा के कारण

विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बनने के बाद भारत के किसानों की दशा और अधिक दयनीय हुई है। मुट्ठी भर किसानों एवं व्यापारियों के हितों के आगे बहुसंख्यक गरीब और छोटे किसानों के हितों की बलि दे दी गई। हालात इतने बदतर हो गए हैं कि देश भर में हजारों किसान आत्महत्या कर चुके हैं और यदि सरकार ने रास्ते नहीं तलाशे तो आने वाले दिनों में इनकी संख्या लाखों में पहुंच सकती है।
इससे पहले कभी भी भारत के किसानों की इतनी दुर्दशा नहीं हुई थी। भारत के किसान स्वयं खुशहाल थे एवं अन्नदाता के रूप में पूरे देश का पालन- पोषण करने में सक्षम थे लेकिन सरकार के गलत निर्णयों एवं चंद पैसों के लालच में भारत के सनातनी और ऋषि कृषि परम्परा को बाजारू कृषि बना दिया गया। दरअसल भारतीय कृषि की इस दारुण कथा की लम्बी दास्तान है।
विकासशील देशों के साथ भारत के किसानों की दुर्दशा की कहानी उन दिनों शुरू हुई जब भारत ने 1995 में विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि समझौते पर अपने हस्ताक्षर किए। यहां उल्लेख करना आवश्यक होगा कि जब तत्कालीन सरकार ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए उस समय कृषि से जुड़े संबंध पक्षों को विश्वास में नहीं लिया गया। उरुग्वे दौर की वार्ता के क्रम में जब कृषि समझौता दस्तावेज बनने की प्रक्रिया में था विकसित देश इसका विरोध करते थे।
बाद में अचानक उन्होंने इसे स्वीकार किया और विकासशील देशों को भी इस सहमति के लिए बाध्य किया। 1994 के अप्रैल में मराकेश समझौता के अंग के रूप कृषि समझौता भी स्वीकृत हुआ और 1 जनवरी 1995 से सभी देशों के लिए यह समझौता बाध्यकारी हो गया।
यहां यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि आखिर डब्ल्यूटीओ के अन्तर्गत कृषि समझौते में आखिर कौन-कौन सी बातें हैं जो आज देश के लिए परेशानी का कारण बन गई हैं
 
 
 
 
 
 
 
 
 
कृषि समझौते के अनुसार सभी सदस्य देशों को तीन प्रमुख मुद्दों पर अपने-अपने देशों में अमल करना था। वे मुद्दे इस प्रकार हैं-
1 .  बाजार पहुंच
2.   घरेलू सहायता
3.   निर्यात अर्थ सहायता (सब्सिडी)
ये तीनों ऐसे मुद्दे हैं जिस पर दोहा में यह तय हुआ था कि विकसित देश तय समय सीमा के भीतर अपने बाजारों को गरीब देशों के किसानों के उत्पादों के लिए खोलेंगे। अमीर देश इनके उत्पादों पर लगने वाले सभी गैर व्यापार अवरोधों को समाप्त करेंगे। सभी देश इस बात पर भी सहमत हुए थे कि मात्रात्मक प्रतिबंध भी उठा लिया जाएगा। इन सबके बदले केवल प्रशुल्क की व्यवस्था रहेगी। जिसे समय-समय पर बातचीत के द्वारा सर्वमान्य स्तर पर ले आया जाएगा।
विकासशील देशों को इस बात की छूट मिली थी कि अपना बाजार बचाने के लिए वे गैर शुल्क अवरोध भी लगा सकते हैं। भारत ने समय से पूर्व ही सभी मात्रात्मक प्रतिबंध उठा लिए। परिणाम यह हुआ कि भारत में संवेदनशील वस्तुओं का आयात कई गुना बढ़ गया और उस क्षेत्र के उत्पादक की रोजी-रोटी समाप्त हो गयी। इसी प्रकार विकसित देशों से उनके यहां जारी घरेलू सहायता एवं निर्यात सहायता को कम करने का समझौता दोहा में हुआ था। तय समय सीमा के बाद भी ये देश निर्यात एवं घरेलू सहायता कम करने के बजाए बढ़ाते ही रहे।
इसका दुष्परिणाम भारत जैसे गरीब देशों को उठाना पड़ा। हांगकांग मंत्रिस्तरीय सम्मेलन आते-आते विकसित देशों ने अब अपनी सब्सिडी हटाने के एवज में  विकासशील देशों के ऊपर मनमानी शर्तें शुरू कर दी हैं।
डब्ल्यूटीओ में कृषि पर बातचीत की शुरुआत वर्ष 2000 से शुरू हुई। दोहा में 2001 के नवम्बर में कृषि वार्ता हेतु एक मार्गदर्शक रूपरेखा तय की गई। दोहा में ही कृषि वार्ता हेतु एक निश्चित समय सीमा 1 जनवरी 2005 तय की गई। जब तक कृषि पर होनेवाली बातचीत समाप्त हो जानी चाहिए थी। इससे पूर्व सभी देशों ने अपनी कृषि नीति-व्यापार से जुड़े दस्तावेज बनाए और एक दूसरे को सौंपी। इस आधार पर एक विस्तृत प्रारूप बनाया गया।
लेकिन सभी देशों के बीच असहमति के बाद वर्ष 2003 में यह वार्ता असफल हुई। इसका कारण था विकसित देशों द्वारा कृषि से अनेक मुद्दों को जोड़ना। लेन-देन के इस फेर में विकासशील देशों ने दोहा जैसी एकजुटता दिखायी और अपने हितों की रक्षा की। जबसे कृषि का मुद्दा विश्व व्यापार संगठन में प्रमुखता से उभरा है, इसकी मंत्रिस्तरीय वार्ताएं एक-एक कर असफल होने लगी हैं। बावजूद इसके भारत की सभी सरकारें इस संस्था एवं इसको चलाने वाले पश्चिमी देशों के सामने हमेशा नतमस्तक होती आई हैं। उनकी दब्बू एवं रीढ़विहीन गति विधियों से भारतीय संप्रभुता एवं सम्मान की पगड़ी तो नीचे हुई ही भारतीय किसानों की दुर्दशा भी बढ़ती गई।
वैसे तो आर्थिक उदारीकरण के दुष्परिणाम भारत के सभी क्षेत्रों में दिखाई देते हैं लेकिन कृषि पर इसका दुष्प्रभाव गंभीर है। कृषि की दयनीय दशा होने के कारण ही गरीबी निवारण अभियान अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहा। ज्ञातव्य हो कि भारत में 70 प्रतिशत जनसंख्या अभी भी कृषि से ही अपना भरण-पोषण करती है। लेकिन विश्व व्यापार संगठन के दबाव में भारत सरकार द्वारा समय-समय पर ऐसे निर्णय लिये गये जिनके कारण भारत की खाद्य सुरक्षा, किसानों का हित एवं राष्ट्र की सम्प्रभुता खतरे में पड़ गयी है।
किसानों में बढ़ती आत्महत्या:
उदारीकरण के एक दशक से अधिक बीत जाने के बाद देश में किसानों की आत्महत्या बड़े पैमाने पर होने लगी है। किसानों ने लोभ में आकर अधिक पैसे कमाने के चक्कर में परम्परागत खेती को छोड़कर नकदी खेती करनी शुरू कर दी। सरकार द्वारा निर्यात केन्द्रित खेती को बढ़ावा देने के कारण किसानों का लोभ दुगुना हुआ। बाजार में निरवंश बीज और महंगे उत्पादक समान से कृषि लागत कई गुना बढ़ गयी।
फसल होने के बाद बाजार में समर्थन मूल्यों का अभाव एवं घर में सामाजिक सुरक्षा के  अभाव में जी रहे किसानों के ऊपर बैंक वालों ने कृषि ऋण वापसी के लिए जब शिकंजा कसना शुरू किया तो बेचारे गरीब किसानों को आत्महत्या के अलावा कोई दूसरा मार्ग दिखाई नहीं दिया। आत्महत्या आज भी जारी है। आर्थिक विशेषज्ञ प्रधानमंत्री क्या जानें किसानों के दु:ख दर्द को। निर्लज्जता की सीमा राजनेताओं ने किस हद तक लांघ ली है, इसकी मिसाल संसद में बहस के दौरान कृषि मंत्री शरद पवार के बयान से झलकती है, जिसमें उन्होंने कहा कि यूपीए सरकार के समय एनडीए सरकार की तुलना में कम किसानों ने आत्महत्या की है।
खेती छोड़ने को मजबूर:
खेती अब किसानों के लिए आजीविका चलाने लायक रोजगार नहीं रह गई। कृषि लागत बढ़ गई है। देशी बीज पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्जा है। सरकार द्वारा किसी प्रकार की सब्सिडी या अन्य सुविधाएं विश्व व्यापार संगठन के दबाव के तहत या तो बंद कर दी गई है या कम की जा रही हैं। हताश-निराश किसान खेती को छोड़कर जीविका के अन्य साधनों की तलाश में हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकीय सर्वेक्षण का मानना है कि देश के 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़ने का मन बना चुके हैं। एक कृषि प्रधान देश के लिए इससे बढ़कर और दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि उसके यहां किसानों को उसका सम्मान नहीं मिल रहा।
व्यापार के नाम पर बेईमानी:
विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के समय किया गया यह दावा कि मुक्त व्यापार से गरीब देशों के किसानों को लाभ मिलेगा, गलत साबित हुआ है। विकासशील और गरीब देशों के लगभग 30 करोड़ किसानों की आजीविका खतरे में पड़ी है। दबाव में गरीब देशों को आयात हेतु अपना बाजार खोलना पड़ा है। सस्ती आयातित वस्तुओं से बाजार में स्थानीय उत्पादों की प्रतिस्पर्धा कमजोर पड़ गई है। विकासशील देशों के बाजार ऐसे सस्ते कृषि उत्पादों से पटे पड़े हैं।
विकसित देश अपने यहां उत्पादन लागत को कम नहीं कर पाते लेकिन अपने व्यापारी एवं निर्यातकों को इतनी अधिक मात्रा में आर्थिक सहायता उपलब्ध कराते हैं जिनके कारण उनके कृषि मूल्य विकासशील देशों की तुलना में काफी कम हो जाते हैं।
दूसरी तरफ जब विकासशील देशों के उत्पाद विदेशों में जाते हैं तो उनको नये-नये व्यापार अवरोध बनाकर वहां बिकने से रोका जाता है। व्यापार के नाम पर इस तरह की बेईमानी विकसित देशों द्वारा बड़े पैमाने पर अपनाई जा रही है। भारत जैसे विकासशील देशों के मंत्री इन विकसित देशों के सामने दास भाव से खड़े होते हैं। वे व्यापार के नाम पर होने वाली इन गलत हरकतों से देश के किसानों की रक्षा करने के लिए वे अवाज भी नहीं उठा पाते।
खाद्यान्न असुरक्षा:
डब्ल्यूटीओ के दबाव में सरकार द्वारा उदारीकरण के जो निर्णय लिये गये उससे कृषि सुधार पर ज्यादा बल दिया गया। परिणाम यह हुआ कि देश की वर्तमान एवं भविष्य के कुछ वर्षों के लिए प्रमुख खाद्यान्नों की उपलब्धता, जिसे खाद्य सुरक्षा भी कहा जाता है, पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। विशेषज्ञ एवं नौकरशाह और राजनेता मिलकर लोगों को यह बताकर भ्रमित करते हैं कि आयात के द्वारा देश की खाद्य सुरक्षा को पूरा कर लिया जाएगा। लेकिन ऐसा उदाहरणों से स्पष्ट नहीं है।
गरीब अफ्रीकी देशों में खाद्यान्न के अभाव के कारण लाखों लोग भूख से मर रहे हैं फिर भी उन्हें कोई खाद्यान्न उपलब्ध नहीं करा रहा। यदि कोई देश तैयार भी होता है तो उसकी शर्तें इतनी महंगी होती हैं कि उन पर अमल करना संभव नहीं होता। अभी तक माना जाता है कि हरित क्रांति के बाद खाद्यान्न के मामले में भारत आत्मनिर्भर देश हो गया है।
लेकिन वर्तमान सरकार द्वारा जिस प्रकार गेहूं की बड़ी मात्रा में आयात का निर्णय लिया गया है, उससे पता चलता है कि हमारी खाद्य सुरक्षा का दावा खोखला है। साथ ही इससे यह भी स्पष्ट है कि विकसित देशों का भारत के ऊपर इतना दबाव है कि हम अपने किसानों के हितों को ताक पर रखकर उनके दबाव में गेहूं का आयात कर रहे हैं। भारत जैसे देशों में गेहूं, चावल, दालें खाद्य सुरक्षा के प्रारम्भिक चक्र हैं। इसमें एक चक्र तो टूट गया है। आर्थिक दस्तावेज बताते हैं कि चावल और दलहन में भी हमारी स्थिति कमजोर है। इस प्रकार हमारी खाद्य सुरक्षा फिर खतरे में आ गई है।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बोलबाला:
विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से पश्चिमी देशों की विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कृषि उत्पादों को अपना निशाना बना रही हैं। ये कम्पनियां इतनी बड़ी हैं कि भारत जैसे कई देशों के बजट के कुल खर्चे से अधिक का इनका कारोबार होता है। इनके मुकाबले देश के छोटे उद्योग या व्यापारी या दुकानदार टिक ही नहीं सकते।
पहले तो ये कम्पनियां सस्ती दरों पर अपना माल बेचकर बाजार में प्रवेश करती हैं। बाद में छोटी-छोटी कम्पनियों को खरीद कर बाजार में अपना एकाधिकार बना लेती हैं। फिर इनके हाथ में होता है बाजार, मूल्य, उपभोक्ता एवं वहां की स्थानीय निकाय और सरकार। ये कम्पनियां सभी को खरीदने की क्षमता रखती हैं। इस देश में उदारीकरण के बाद ऐसी कई कम्पनियां आई हैं, जिन्होंने बाजार में अपना वर्चस्व स्थापित किया। उन्होंने बीज पर कब्जा किया।
इसके बाद तकनीकी पर कब्जा किया और यहीं के उत्पाद को खरीदकर उसे दुगुने-तिगुने दाम पर बेचकर भरपूर मुनाफा कमाया। अभी इन कम्पनियों ने भारत सरकार के ऊपर खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति देने के लिए दबाव बनाया हुआ है। खुदरा व्यापार में कृषि उत्पाद की बहुत सारी वस्तुएं आ गयी हैं। ये कम्पनियां इस माध्यम से भी देश के करोड़ों लोगों को रोजगार देने वाले क्षेत्र पर कब्जा करने का षडयंत्र रच चुकी है। दुर्भाग्य से देश के राजनेता हकीकत को नजरअंदाज कर उन कम्पनियों को देश में बुलाने के लिए पलक पांवड़े बिछाए रहते हैं।
पेटेंट और बौद्धिक सम्पदा:
विश्व व्यापार संगठन के सबसे विवादास्पद नियमों में बौद्धिक संपदा का कानून है जिसके दबाव में भारत को 1970 के पेटेंट कानून में विकसित देशों एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को लाभ पहुंचाने के लिए संशोधन करने पड़े हैं। ज्ञातव्य हो कि भारत का 1970 का पेटेंट कानून देश की भौगोलिक सीमा के अधीन उपलब्ध सभी प्राकृतिक संसाधनों एवं आविष्कारों की रक्षा करने में सक्षम था।
चूंकि यह कानून विदेशी कम्पनियों को यहां के बाजार का लाभ उठाने से रोकता था। इसलिए उनके दबाव में इसमें परिवर्तन किया गया। अब परिवर्तित पेटेंट कानून के तहत भारत के सामने दिन प्रतिदिन अनेक चुनौतियां आ रही हैं। पेटेंट प्राप्त बीज, अनाज, फल, दूध, दवा एवं अन्य समानों के मूल्य आसमान को छू रहे हैं। आम आदमी इसे खरीद पाने में अक्षम है।
इतना ही नहीं विदेशी कम्पनियां इस मामले में भी बेईमानी करने से बाज नहीं आतीं। भारतीय बासमती चावल, करेला, नीम जैसे प्रमुख खाद्य पदार्थो का उन्होंने बेईमानी से अपने यहां पेटेंट करा लिया था। भारत के लोगों को इसके खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी, तब जाकर इसे मुक्त कराया जा सका।
निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता प्राप्त करने के बाद भारत के किसानों, गरीबों एवं व्यापारियों की स्थिति दिन-प्रतिदिन बदतर हुई है। वे अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई में पिछड़ रहे हैं। उनके प्रति सरकार का सौतेला व्यवहार उनकी दशा को और भी दयनीय बना रहा है।
दूसरी तरफ विदेशों में ऐसे-ऐसे कानून वहां के किसानों की रक्षा के लिए बनाए जा रहे हैं, जिनके विरुद्ध आवाज बुलन्द करना समय की आवश्यकता होते हुए भी सरकारी कमजोरी के कारण सम्भव नहीं हो पा रहा है। हालात यदि ऐसे ही रहे तो किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं की घटना आगे चलकर सामूहिक आत्महत्या का स्वरूप ग्रहण कर लेगी।
साभार विद्यानंद आचार्य  

Sunday, October 28, 2012

जो माँ अपंनी कोख में बेटी को मरवाती है ,वह माँ नहीं डायन होती है


र्स्वग  से लडकी ने अपनी माँ को लिखा पत्र...!!
आप मेरे जैसे हो?ग्रुप से


मेरी प्यारी मम्मी...

तु अब दवाखाने से घर आ गई होगी..?

तेरी तबियत की मुझे चिँता होती है..

अब आपकी तबियत अच्छी होगी ..?

प्यारी मम्मी तेरी कोख से मेरा अंश रहा

तब से मुझे वात्सल्य से उभरता माँका चेहरा देखना है...

मम्मी मेरे गाल तेरे एक प्यार भरी चुम्मी के लिए तरसते हैं

मुझे मेरी जननी के हाथ मेँ फूल होकर खिलना था...

मुझे मेरी मम्मी के हाथ से मार खाकर रोना था.....

मम्मी, मुझे तेरे आगंन मेँ पाँव रखना था

और अपना घर खिल खिलाहट से भरना था....

और मम्मी,
मुझे तेरी लोरी सुनते-सुनते सोने कि तरस थी.....

कुदरत ने मुझे तेरा लडका बनाया होता तो कोई प्रोब्लम नही होती..

मम्मी,
लेकिन तुझे कुदरत का न्याय मंजुर नही था.

तुझे तो लडके कि भुख थी.

तुझे तो केवल मात्र संतान से गोद नही भरनी थी..

तेरे तो भविष्य मेँ कमाऊ लड़के कि सपंति से घर भर देना था..

मम्मी, तुझे तो मिलकत का वारिस उगाना था..

और बुढापे मेँ माँ बेटा-बहु का प्रेम,

सेवा और दु:ख मेँ आँसु पोंछने वाले का सहारा चाहिए था.

तुझे मेरी काली भाषा सुनना पसंद नही थी..

तेरे दिल मेँ कोई प्रेम नही आया?

इसिलिए मम्मी
तूने मुझ से
छुटकारा पा लिया...

मम्मी, जब डाँक्टर कैँची से
फूल जैसी बेटी को कुचल रहा था..

मेरे शरीर के एक के बाद एक अगं काटकर अलग रख रहा था..

मुझे लग रहा था कि अब माँ को दया आयेगी लेकिन
तुझे दया नही आयी...

तुझे तो दया नही आयी मम्मी!
लेकिन
भगवान को तो दया आयी.

डाक्टर के तेज धार कि कैँची से मेरा कलेजा फट गया
और
भगवान ने मुझे अपने पास बुला लिया.....

मम्मी, तु खुद लडकी है,

तो यह बात कैसे भुल गई ?
चलो वो तो सब ठीक है,
लेकिन
तेरे पेट मे ही मेरी कब्र बना दी
तुझे जरा भी दया नहि आयी ?

चिँता मत कर मम्मी,
अब जब मेरा भाई जन्म ले तब

इस लड़की की याद दिलाना...
अरे हाँ ! रक्षाबंधन के दिन मुझे याद कर के भाई को मेरा आशिर्वाद देना...!!

गिरिधर की कुंडलिया


गिरिधर की  कुंडलिया 
बिना बिचारे जो करे  , सो पीछे पछिताए। 
काम  बिगारै आपनो, जग में होत हंसाए।।
जग में होत हंसाए, चित में चैन न पावै ।
खान, पान सनमान, राग रंग मनहि न भावै।।

 कह  गिरिधर कविराय, दुख कछु टरत ना टारे।।
खटकत   है जिय माहिं, कियो  जो बिना बिचारे

दौलत पाय न कीजिय , सपने में अभिमान
चंचल जल दिन चारि के , ठाऊं न रहत निदान
ठाऊं न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै
मीठे वचन सुनाय, विनय सबही की कीजे ।। 

कह गिरिधर कविराय, अरे यह सब घट तौलत
पाहुन निसि दिन चारि, रहत सबही के दौलत।।

गुन के  गाहक सहस नर, बिनु गुन लहै न कोय ।
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग  सब भय अपावन।। 

कह गिरिधर कविराय, सुनो हो ठाकुर मन के ।
बिनु गुन लहै न कोय , सहस नर ग्राहक  गुन के  ।।

Sunday, October 7, 2012

वर्ल्ड एनिमल डे 4 अक्टूबर पर विशेष-




लुप्त होने की कगार पर है पशु पक्षियों की दुलर्भ प्रजातियां

हिसार। संदीप सिंहमार
आज के इस वैज्ञानिक युग में एक तरफ जहां चिकित्सकीय प्रणाली सुदृढ़ होने के कारण मानव जीवन खुशहाल हुआ है, वहीं दूसरी तरफ पशु पक्षियों पर इसके दुस्प्रभाव भी पड़े हैं। पशु पक्षियों को बीमारियों से बचाने के लिए दवाओं का बेरोक टोक प्रयोग होने से पूरे विश्व भर में पशु पक्षियों की संख्या लगातार घटती जा रही है। हर वर्ष 4 अक्तूबर को पूरी दुनिया में 'वल्र्ड एनिमल डेÓ भी मना लिया जाता है, लेकिन दुधारू पशुओं को छोड़कर अन्य पशु पक्षियों की घटती संख्या की ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। पक्षियों की कई प्रजातियां तो लुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी है। प्रात: काल जहां चिडिय़ा की चहचाहट सुनाई देती थी, वो आज गायब है। मरे हुए पशुओं का मांस खाने वाले गिद्ध भी कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। पशु विज्ञानी पक्षियों की प्रजाति लुप्त होने या कम होने का कारण स्वयं मानव को ही मार रहे हैं। खेतों में अधिक उत्पादन के लिए किसान कीटनाशकों का उपयोग करते हैं। दूसरी तरफ पशुओं को बीमारियों से बचाने के लिए दवाओं का प्रयोग किया जाता है। कीटनाशक युक्त फसलों से पैदा हुआ अनाज खाने व पशुओं का मांस खाने से पक्षियों की संख्या कम हो गई है।
क्या कहते हैं वैज्ञानिक-
विश्व में पशु पक्षियों की कम होती संख्या के संबंध में लाला लाजपतराय पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान विश्वविद्यालय के वरिष्ठ पशु शल्य चिकित्सा वैज्ञानिक डॉ. सुखबीर ने बताया कि फसलों में कीटनाशकों के प्रयोग के कारण पक्षियों की संख्या कम होती जा रही है। इसके अलावा पशुओं के इलाज के लिए अकसर चिकित्सक डाईक्लोफेनिक सॉल्ट का प्रयोग करते हैं ऐसे पशुओं के मरने के बाद इनका मांस खाने वाले पक्षी मर जाते हैं। उन्होने बताया कि गिद्ध इसका जीता जागता उदाहरण है। 
यहां दिखाई देता है पक्षियों के प्रति प्रेम
इतना व्यस्तम जीवन होने के बाद भी जिले के गांव किरतान के आजाद हिन्द युवा क्लब के सदस्यों ने प्रधान कपूर सिंह के नेतृत्व में पशु पक्षियों को बचाए रखने की मुहिम चलाई है। क्लब के सदस्यों ने गांव के पेड़ों पर सैंकड़ो की संख्या में लकड़ी व मिट्टी के घोंसले लगाकर इस अभियान को आगे बढ़ाया है। वीरवार को क्लब के सदस्यों ने गांव के प्राथमिक स्कूल के प्रांगण में वल्र्ड एनिमल डे मनाकर पशु-पक्षियों के प्रति छात्रों को जागरूक किया। प्रधान कपूर सिंह ने बताया कि वर्ष 2007 में गांव किरतान के पास कबीर सिंह नहर के पुल पर उन्हे एक मोर दिखाई दिया। उन्होने उस मोर को दाने डाले। यहीं से उनके मन में पक्षियों के प्रति प्रेम जागृत हो गया। कपूर सिंह ने बताया कि कुछ दिनों बाद एक मोरनी भी वहां आ गई उनको लगातार दाना डालने से मोर मोरनी यहीं पर रहने लगे। प्रजनन बढ़ता गया और अथक प्रयासों से अब यहां इसी पुल के आसपास करीब 30 मोर मोरनी रहते हैं।

Wednesday, October 3, 2012

मेडिकल रिसर्च के लिए की देह दान




-बेटियों ने दिया अर्थी को कंधा
हिसार 1 अक्तूबर।
समाज में कुछ लोग ऐसे है जो इस संसार को छोडऩे के बाद भी मानवता भलाई के कार्यों के लिए जाने जाते हैं। इसी तरह शांती नगर निवासी कृष्ण कुमार की पत्नी 45 वर्षीय किरण देवी इन्सां को भी जाना जाएगा। किरण इन्सां के निधन के बाद उनके परिजनों ने उनका शरीर मेडिकल रिसर्च के लिए दान कर समाजसेवा का ऐसा अनूठा उदाहरण पेश किया है जिससे मानवता बाग-बाग हो उठी है। किरण इन्सां का शनिवार को निधन हो गया था जिसके बाद उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार परिजनों ने सोमवार सुबह उनका शव मेडिकल कॉलेज रोहिल खंड बरेली (यूपी) को सौंप दिया। किरण देवी इन्सां की शव यात्रा की शुरूआत विनती का भजन लगाकर की गई। उनके पार्थिव शरीर को उनकी बेटी कान्हा इन्सां व पूजा इन्सां ने कंधा देकर एक अनुकरणीय उदाहरण पेश किया। शव यात्रा उनके निवास स्थान शांति नगर से शुरू होकर पड़ाव चौक, जहाज पुल, आर्यनगर, राजगुरू मार्केट, परिजात चौक, पालिका बाजार से होती हुई नागौरी गेट पर पहुंची। यहां से उनकी देह एंबुलैंस के माध्यम मेडिकल कॉलेज रोहिल खंड बरेली (यूपी) भिजवा दी गई। शव यात्रा में सुभाष मुखीजा इन्सां, अतुल इन्सां, अशोक इन्सां, संजय पाहुजा, अशोक मेहता व जयलाल सहित सैंकड़ों की संख्या में साध संगत के अलावा राजनीतिक व धार्मिक संगठनों के लोग भी शामिल हुए। किरण देवी के पति कृष्ण कुमार इन्सां ने बताया कि पूजनीय हुजूूर पिता संत गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां की पावन प्रेरणा से ही उन्होने शरीर दान किया है।
कस्बावासियों ने की सराहना
शांति नगर निवासी किरण देवी इन्सां द्वारा शरीर दान किए जाने का समाचार मिलने पर कस्बावासियों ने मुक्तकंठ से उनके इस साहसिक कार्य की सराहना की।
देहदान से पहले किए नेत्रदान
इससे पहले शनिवार को उनके निधन के बाद उनकी आखें भी दान की गई। निधन की सूचना मिलने के बाद डेरा सच्चा सौदा के हिसार के नेत्रदान समिति के सेवादारों ने मौके पर पहुंचकर डा. अशोक गर्ग के नेतृत्व में गुरदीप अनेजा इन्सां ने नेत्र उत्सर्जित कर उन्हे सुरक्षित डेरा सच्चा सौदा सिरसा स्थित नेत्र बैंक में सुरक्षित पहुंचा दिये। जहां उनकी आंखे दो अंधेरी जिन्दगियों को रोशनी प्रदान करेगी।
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