Saturday, December 22, 2012

-पात्र अध्यापक हाईकोर्ट के फैंसले को सुप्रीम कोर्ट में देंगे चुनौती


चार वर्ष का अनुभव मान्य करने का मामला
-पात्र अध्यापक हाईकोर्ट के फैंसले को सुप्रीम कोर्ट में देंगे चुनौती
आज रोहतक में बुलाई बैठक
हिसार 22 दिसम्बर।
शिक्षक भर्ती प्रक्रिया में 4 वर्ष का अनुभव मान्य किए जाने के पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट के फैसले से आहत प्रदेश के पात्र अध्यापक संघ ने रविवार 23 दिसम्बर को 11 बजे रोहतक की छोटूराम धर्मशाला में बैठक बुलाई है। यह जानकारी देते हुए पात्र अध्यापक संघ के प्रदेशाध्यक्ष राजेन्द्र शर्मा ने बताया कि हाईकोर्ट के फैसले के बाद प्रदेश के हजारों पात्र अध्यापकों के मंसूबों पर पानी फिर गया है। उन्होने बताया कि हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस एके सीकरी व आरके जैन की खंड पीठ के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में जोरदार चुनौती दी जाएगी। रविवार को होने वाली बैठक में प्रदेश भर से हजारों की संख्या में पात्र अध्यापक भाग लेंगे व इस बैठक में आगामी रणनीति के बारे में विचार विमर्श किया जाएगा। शर्मा ने बताया कि पीजीटी व पीआरटी भर्ती प्रक्रिया में हरियाणा स्कूल अध्यापक चयन बोर्ड व सरकार ने पात्रता परीक्षा पास करने वाले अभ्यर्थियों के साथ चार वर्ष का अनुभव वाले शिक्षकों को भी भर्ती में मौका दिया था। सरकार के इस फैंसले को सैंकड़ों पात्र अध्यापकों ने हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। चार वर्ष के अनुभव वाले शिक्षकों की वजह से ही प्रदेश के हजारों पात्र अध्यापक शॉर्ट लिस्टिंग से प्रभावित होकर भर्ती प्रक्रिया से बाहर हो गए। हाईकोर्ट में याचिका डालने के बाद शॉर्ट लिस्टिंग से प्रभावित सैंकड़ों पात्र अध्यापकों के चीफ जस्टिस एके सीकरी की खंड पीठ ने अस्थाई तौर पर साक्षात्कार लेने के आदेश दिए थे।
 अस्थाई साक्षात्कार भी हुए रद्द
शुक्रवार को आए फैंसले के बाद अस्थाई साक्षात्कार भी रद्द कर दिए गए हैं। राजेन्द्र शर्मा ने बताया कि भर्ती बोर्ड ने पीजीटी भर्ती प्रक्रिया में हिन्दी, इतिहास, राजनीतिक विज्ञान व कॉमर्स विषय में शॉर्ट लिस्टिंग की थी। इन विषयों के लिए चार वर्ष के अनुभव वाले 7020 शिक्षकों ने आवेदन किया था। इन्ही के कारण इस भर्ती प्रक्रिया से हिन्दी, इतिहास, राजनीतिक विज्ञान व कॉमर्स विषय के 5478 पात्र अध्यापक बाहर हो गए। शर्मा ने कहा कि साफ तौर पर कहा जा सकता है कि चार वर्ष के अनुभव प्राप्त शिक्षकों ने पात्र अध्यापकों का गणित विगाड़ कर रख दिया है। उन्होने बताया कि इस भर्ती प्रक्रिया में एनसीटीई के नियमों को किनारे कर दिया गया है क्योंकि एनसीटीई ने 1 जून 2012 को हरियाणा सरकार को एक पत्र लिखकर भर्ती प्रक्रिया में चार वर्ष के अनुभव वाले शिक्षकों को छूट न देने की बात कही थी।

राकेश क्रांति के मामले में दीपेंद्र से मिलेंगे पत्रकार

राकेश क्रांति के मामले में दीपेंद्र से मिलेंगे पत्रकार
हिसार। वरिष्ठ पत्रकार राकेश क्रांति पर कातिलाना हमला करने के मामले को लेकर जिले के पत्रकारों की आपात बैठकर शनिवार को लोक निर्माण विश्राम गृह में हुई। बैठक में इस पूरे मामले को लेकर विचार-विमर्श किया गया और आगामी रणनीति तैयार की गई। आगामी रणनीति के तहत जिले के पत्रकार रविवार को हिसार में सांसद दीपेन्द्र ङ्क्षसह हुड्डा से मिलकर एक ज्ञापन सौपेंगे। ज्ञापन के माध्यम से राकेश क्रांति के परिवार के जीवन यापन करने हेतु उनकी पत्नी के लिए हरियाणा सरकार की तरफ से सरकारी नौकरी की व्यवस्था किये जाने और साथ ही वर्तमान में उनके परिवार को 25 लाख रुपए की आर्थिक मदद भी उपलब्ध कराने की मांग की जाएगी।  बैठक में उपस्थित समस्त पत्रकारों का मानना है कि पत्रकार राकेश क्रांति पर हमला करने वाले जिन चारों आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है उनकी सरकारी व शहर के निजी अस्पतालों के चिकित्सकों से मिलीभगत है। इस हमले में चिकित्सकों का भी हाथ है। पूर्व में फर्जी एमएलआर काटने के मामले से संबंधित समाचार भी प्रकाशित हुए थे। इस कड़ी से भी यह मामला जुड़ा हो सकता है। सांसद श्री हुड्डा से इस पूरे मामले की सीबीआई से जांच करवाए जाने की तथा हमले में शामिल चिकित्सकों का भी पता लगाकर उनको गिरफ्तार करने की मांग की जाएगी।  जिले के सभी पत्रकारों से अपील है कि वे सांसद दीपेन्द्र सिंह हुड्डा को ज्ञापन देने के समय मौके पर उपस्थित रहें।

आरोपियों को अदालत में पेश करने ले जाती पुलिस

क्रांति के गुनाहगार पांच दिन के पुलिस रिमांड पर 
हिसार। 20दिसम्बर ,2012
दैनिक भास्कर के ब्यूरो चीफ राकेश क्रांति पर जानलेवा हमला करने वाले गिरफ्तार किए गए चारों आरोपियोंं को वीरवार को पुलिस ने न्यायिक दंडाधिकारी हेमंत यादव की अदालत में पेश किया, जहां से उनको पांच दिन के पुलिस रिमांड पर भेज दिया गया। रिमांड के दौरान पुलिस आरोपी अनिल, प्रिंस उर्फ पन्नू, अंजन उर्फ बाबा व सोनू से हमले में प्रयोग की गई लोहे के पाईप, सरिए, लाठी बरामद करेगी। हमलावर जिस गाड़ी व बाईक पर सवार होकर आए थे, उनको भी पुलिस रिमांड के दौरान बरामद करने का काम करेगी। पुलिस अपराध शाखा व स्पेशल स्टाफ टीम के सदस्यों ने चारों आरोपियों का बुधवार को अलग-अलग स्थानों से गिरफ्तार किया था। ज्ञात रहे कि 16 दिसम्बर की रात को पत्रकार राकेश क्रांति पर अनिल, प्रिंस, अंजन उर्फ बाबा व सोनू ने उस समय जानलेवा हमला किया था, जब वह अपने कार्यालय से देर रात अपने घर लौट रहा था। इस हमले में राकेश क्रांति के दोनों पैर व दोनों हाथ टूट गए थे। आरोपी अनिल एंबुलैंस के गौरखधंधे से संबंधित छापे गए समाचार के कारण राकेश क्रांति से रंजिश रखने लगा था। इसी रंजिश के कारण घटना से एक दिन पहले अनिल व प्रिंस ने क्रांति के घर के बाहर खड़ी उनकी गाड़ी को भी क्षतिग्रस्त कर दिया था, ताकि वह अपने कार्यालय में गाड़ी में न आकर बाईक पर सवार होकर आए। इस तरह एक योजनाबद्ध तरीके से आरोपियों ने वारदात को अंजाम दिया था।

Wednesday, December 19, 2012

हिसार प्रेस क्लब का नए साल का कार्यक्रम स्थगित

हिसार प्रेस क्लब का नए साल का कार्यक्रम स्थगित ,राकेश क्रांति पर हुए हमले को गंभीरता से लेते हुए लिया फैसला 
हिसार 19 दिसम्बर
    हिसार प्रेस क्लब ने नए साल पर प्रस्तावित कार्यक्रम को स्थगित कर दिया है। यह निर्णय हिसार में दैनिक भास्कर के ब्यूरो चीफ, हिसार प्रेस क्लब के पूर्व प्रधान और वर्तमान में संरक्षक राकेश क्रांति पर हुए जानलेवा हमले के चलते लिया गया है। राकेश क्रांति के मामले को देखते हुए हिसार प्रेस क्लब का कोई भी कार्यक्रम फिलहाल आयोजित नहीं किया जाएगा।    इस संधर्भ में क्लब के महासचिव सुरेंद्र सैनी ने बताया कि राकेश क्रांति पर हुआ हमला घोर निंदनीय है। पूरा पत्रकार समाज इस वक्त राकेश क्रांति के साथ है और अगला निर्णय होने तक हिसार प्रेस क्लब के सभी कार्यक्रमों को स्थगित किया जाता है, जिसमें नए साल का प्रस्तावित कार्यक्रम भी शामिल है।

अभी भी नाजुक है साथी पत्रकार राकेश क्रांति की हालत

जिंदल अस्पताल की आई सी यू में उपचाराधीन राकेश क्रांति 

पत्रकार राकेश क्रांति पर जानलेवा हमला करने वाले चार गिरफ्तार


पत्रकार राकेश क्रांति पर जानलेवा हमला करने वाले चार गिरफ्तार
हिसार।
भास्कर के ब्यूरो चीफ  राकेश क्रान्ति पर तीन दिन पहले हुए जानलेवा हमले के मामले में पुलिस ने चार आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है। इन आरोपियों में मिलगेट स्थित शिवनगर निवासी अनिल पुत्र दयाकिशन, सिविल अस्पताल के सामने किराए पर रहने वाला मोठ निवासी प्रिंस उर्फ पन्नू पुत्र प्रेमकुमार, सूर्यनगर निवासी अंजन उर्फ बाबा पुत्र राधेश्याम तथा भारत नगर निवासी नरेन्द्र उर्फ सोनू पुत्र मोहनलाल शामिल है।
वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक बी सतीश बालन ने बुधवार सांय एक पत्रकार वार्ता में बताया कि पत्रकार राकेश क्रांति पर हुआ हमला व आरोपियों को पकडऩा पुलिस के लिए चुनौतीभरा काम था। पुलिस अधीक्षक के अनुसार उन्होंने स्वयं इस मामले में कार्रवाई करते हुए छानबीन की तो पुलिस को कुछ महत्वपूर्ण सुराग मिले जिनके आधार पर कार्रवाई करते हुए पुलिस ने इन चारों आरोपियों को दबोच लिया। आरोपियों को काबू करने के लिए अपराध शाखा प्रभारी दलीप सिंह व स्पेशल स्टाफ प्रभारी प्रदीप कुमार के नेतृतव में गठित टीमों ने सफलता हासिल की। पुलिस गिरफ्त में आए अनिल ने बताया कि उसकी सिविल अस्पताल के सामने ही अनिल मेडिकल हाल के नाम से दुकान है तथा वह दो एंबुलेंस का संचालन भी करता है। उसके भाई जितेन्द्र की दुकान राजगढ़ रोड स्थित एक निजी अस्पताल में है। अपनी ये दोनों एंबुलेंस (बोलेरो व ओमानी मारूति) वह अपने मेडिकल हाल के सामने ही खड़ी करता है। आरोपी अनिल ने पुलिस पूछताछ के दौरान बताया कि राकेश क्रान्ति ने निजी एंबुलंैस के संबंध में समाचार प्रकाशित किया था। इसी कारण वह राकेश क्रांति से रंजिश रखने लगा।
             एसपी बालन ने बताया कि पूछताछ में अनिल ने खुलासा किया है कि वे सिविल अस्पताल के चिकित्सकों से मिलकर मरीज को रोहतक मेडिकल के लिए रैफर करवा देते थे। मरीज के परिजन उसे रोहतक ले जाने की बजाय निजी अस्पतालों में ले जाते थे और इस काम में उनकी एंबुलेंस काम आती थी। अपनी इन एंबुलेंसों में वे जाते समय मरीज को ले जाते और आते समय सवारियां आदि बैठा लेते थे। इसके अलावा राजगढ़ रोड स्थित निजी अस्पताल में उसके भाई का मेडिकल स्टोर होने के कारण भी उन्हें फायदा होता था।
ऐसे बनाई थी योजना-
पुलिस अधीक्षक ने बताया कि पूछताछ में अनिल ने बताया कि बार-बार मरीजों को रैफर करने व एंबुलेंसों से संबंधित समाचार प्रकाशित होने से वह कुपित हो गया और उसने अपने एंबुलेस चालक प्रिंस उर्फ पन्नू, अंजन उर्फ बाबा तथा भारत नगर निवासी नरेन्द्र उर्फ सोनू को बुलाया और पत्रकार राकेश क्रांति पर हमले की योजना बनाई। इसी योजना के तहत रविवार रात को राकेश कं्राति पर उस समय हमला कर दिया गया जब वह डाबड़ा चौक होकर अपने घर आ रहा था। हमलावरों ने इससे पहले दिन पत्रकार राकेश क्रान्ति की गाड़ी को क्षतिग्रस्त कर दिया ताकि वह गाड़ी में न आकर बाईक पर सवार होकर आए।
पुलिस अधीक्षक ने बताया कि पकड़े गए आरोपियों पर धारा 323, 325, 307 व 34 के तहत केस दर्ज हैं। चारों आरोपियों को वीरवार को अदालत में पेश करके रिमांड हासिल किया जाएगा।

तीन जिलों के पत्रकार मिले आईजी चावला से


पत्रकार राकेश क्रांति पर जानलेवा हमले का मामला
तीन जिलों के पत्रकार मिले आईजी चावला से

दिया 48 घंटे का अल्टीमेटम

हिसार। 19 दिसम्बर
स्थानीय लोकनिर्माण विश्राम गृह में मंगलवार को सिरसा, फतेहाबाद व हिसार जिला के पत्रकारों की एक बैठक का आयोजन किया गया, जिसमें हिसार के पत्रकार राकेश क्रांति पर हुए हमले की कड़ी आलोचना की गई। इस बारे में जानकारी देते हुए हरियाणा यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स के प्रदेश प्रवक्ता एवं सिरसा जिलाध्यक्ष धीरज बजाज ने बताया कि इस बैठक में निर्णय लिया गया कि अगर 48 घंटों के भीतर पुलिस ने हमलावरों को गिरफ्तार नहीं किया तो 21 दिसम्बर को पूरे हरियाणा के पत्रकार हिसार में धरना देंगे। मीटिंग के उपरांत सभी पत्रकार पुलिस महानिरीक्षक अरशिन्द्र चावला से भी मिले। वहीं हरियाणा यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स हिसार युनिट द्वारा श्री क्रांति जी को 1 लाख रुपये  देने की घोषण भी की। आईजी चावला ने इस मामले में हमलावरों के खिलाफ जल्द से जल्द सख्त कार्रवाई करने का आश्वासन दिया। मंगलवार सुबह हिसार, सिरसा और फतेहाबाद के पत्रकार काफी संख्या में रेस्ट हाउस में एकत्रित हुए। वरिष्ठ पत्रकार ऋषि सैनी की अध्यक्षता में हुई बैठक के दौरान सभी पत्रकारों ने इस घटना की कड़े शब्दों में निंदा की। बैठक में उपस्थित सभी पत्रकारों ने कहा कि लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया की आवाज को दबाने का कुप्रयास किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र के प्रहरियों पर हुए इस हमले का कलम के सिपाही मुंह तोड़ जवाब देंगे। उन्होंने कहा कि भविष्य में किसी भी मीडिया कर्मी के साथ ऐसी पुनरावृति न हो इसके लिए प्रदेश भर के पत्रकार एकजुट हुए हैं। बैठक में हिसार, सिरसा व फतेहाबाद जिलों के सैंकड़ो की संख्या में पत्रकार उपस्थित थे।



लागू हो जर्नलिस्ट्स प्रोटेक्शन एक्ट: राठी
हिसार। 19दिसम्बर
नेशनल यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स के राष्ट्रीय सचिव संजय राठी ने हिसार के पत्रकार राकेश क्रान्ति
पर कातिलाना हमले की कड़ी निंदा की है। उन्होंने हमलावरों को शीघ्र गिरफ्तार करने की मांग की है।
उन्होंने कहा कि पूरे प्रदेश भर में लगातार मीडियाकर्मियों के साथ दुव्र्यवहार और मारपीट की घटनाएं बढ़ रही हैं। लेकिन पुलिस प्रशासन द्वारा कभी कभार ही प्रभावी कार्रवाई की गई। इससे सरकार की असंवेदनशीलता स्पष्ट झलकती है। संजय राठी ने कहा कि प्रदेश भर के पत्रकार लगातार जर्नलिस्ट्स प्रोटेक्शन एक्ट बनाने की मांग सरकार से करते रहे हैं। लेकिन सरकार मीडियाकर्मियों के प्रति उपेक्षित रवैया अपनाए हुए हैं। वर्तमान परिस्थितियों में पत्रकारिता चुनौतीपूर्ण व्यवसाय बनती जा रही है। जिसके कारण सच्चाई, ईमानदारी व निष्पक्ष पत्रकारिता करना मुश्किल होता जा रहा है। संजय राठी ने कहा कि प्रदेश के सभी संगठनों को एक मंच पर लाकर पत्रकारों के हितों के लिए आंदोलन की रूपरेखा तैयार की जाएगी।
राकेश क्रांति पर जानलेवा हमले के मामले में हांसी ,नारनौंद व बरवाला में भी सोंपे ज्ञापन 
हिसार/मंडी आदमपुर/नारनौंद।
पत्रकार राकेश क्रान्ति पर हुए जानलेवा हमले की विभिन्न राजनीतिक, धार्मिक व सामाजिक संगठनों ने कड़ी आलोचना की है। जनसंगठनों के आहवान पर हमलावरों की गिरफ्तारी की मांग का लेकर फव्वारा चौक पर धरना भी लगाया गया। आदमपुर प्रेस कल्ब ने पत्रकार राकेश क्रांति पर किए जानलेवा हमले पर रोष प्रकट करते हुए मंगलवार को तहसीलदार को मुख्यमंत्री व डीजीपी के नाम ज्ञापन सौंपा। तहसीलदार महावीर प्रसाद ने ज्ञापन को मुख्यमंत्री व डीजीपी तक पहुंचाने का आश्वासन दिया। इस अवसर पर पूर्व जिला उपप्रधान डीपी बिश्नोई, प्रधान विनोद खन्ना व सचिव हरभगवान भारद्वाज अमित गोयल, बंशीधर, बलराज सिड़ाना, संगीता सिंह, पवन जैन, गुलशन ऐलावादी, सुरजीत सहित कई पत्रकार उपस्थित थे।
वहीं पत्रकार पर हुए जानलेवा हमले को लेकर नारनौंद के पत्रकारों ने भी तहसीलदार अशोक कुमार को जिला उपायुक्त के नाम ज्ञापन सौंपा। इस अवसर पर नारनौंद संघ के पत्रकार सुनील मान, श्यामसुन्दर, सज्जन सैनी, सुनील कोहाड़, रमेश कुमार, बलजीत जांगड़ा, पवन पेटवाड़ सहित अनेक सदस्य मौजूद थे। पात्र अध्यापक संघ के प्रदेशाध्यक्ष राजेन्द्र शर्मा ने कहा कि पत्रकार राकेश क्रान्ति पर हमला लोकतन्त्र पर हमला है। उन्होने हमलावरों की शीघ्र गिरफ्तारी की मांग की। वहीं प्रसार भारती आक्समिक प्रस्तोता संघ ने भी संघ की अध्यक्ष अर्चना सुहासिनी की अध्यक्षता में मधुबन पार्क में एक बैठक कर पत्रकार पर हुए हमले की कड़े शब्दों में निंदा की।

सीएम ने लिया क्रांति पर हमले का संज्ञान

हिसार ,18 दिसम्बर 2012
 मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने हिसार में दैनिक भास्कर के चीफ रिपोर्टर राकेश क्रांति पर हुए हमले का कड़ा संज्ञान लेते हुए डीजीपी को निर्देश दिए हैं कि हमलावरों को जल्द से जल्द पकड़ा जाए। उन्होंने कहा कि क्रांति के इलाज का खर्च राज्य सरकार उठाएगी। उधर, हमले में जख्मी क्रांति के दोनों पैरों की हड्डी का ऑपरेशन सोमवार शाम को जिंदल अस्पताल में किया गया। चिकित्सकों ने बताया कि कुछ और ऑपरेशन करने पड़ सकते हैं। क्रांति फिलहाल बेहोश हैं और उनकी हालत काफी चिंताजनक है। हर आठ घंटे बाद दो स्टेटस रिपोर्ट : डीजीपी एस.एन. वशिष्ठ ने हिसार रेंज के आईजी ए.एस चावला से बात की और क्रांति के परिवार को तुरंत सुरक्षा प्रदान करने के निर्देश दिए। डीजीपी ने आईजी को निर्देश दिए हैं कि हर आठ घंटे बाद इस मामले की स्टेटस रिपोर्ट उन्हें दी जाए। प्रदेशभर में निंदा : हमले की प्रदेशभर के पत्रकारों, राजनीतिक दलों व गणमान्य लोगों ने तीखी भत्र्सना की है। सोमवार को पत्रकार संगठनों ने जिला मुख्यालयों पर डीसी को सीएम के नाम ज्ञापन सौंपकर हमलावरों को पकडऩे की मांग की। पंचकूला में पत्रकारों ने कैंडल मार्च निकाला। 

Wednesday, November 21, 2012

कसाब को फांसी, जेल में ही दफ़्न

मुंबई हमले का दोषी था अजमल आमिर कसाब ,पाकिस्तान के ओकारा जिले का निवासी था 

बी बी सी हिंदी से साभार 

कसाब
दस हमलावरों में से सिर्फ़ कसाब जीवित बचे थे
मुंबई में26/11 को हुए हमले के दोषी पाकिस्तानी नागरिक अजमल कसाब को बुधवार की सुबह फाँसी दे दी गई है.केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने इसकी पुष्टि करते हुए कहा कि कसाब को पुणे की यरवडा जेल में सुबह 7.30 बजे फाँसी दे दी गई.
शिंदे के अनुसार गृहमंत्रालय ने कसाब की दया याचिका नामंज़ूर करने की सिफ़ारिश 16 अक्तूबर को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के पास भेजी थी और राष्ट्रपति ने कसाब की दया याचिका को ख़ारिज करने संबंधी फ़ाइल पांच नवंबर को वापस गृहमंत्रालय को भेज दी थी.शिंदे ने बताया कि सात नवंबर को उन काग़ज़ात पर हस्ताक्षर करने के बाद उन्होंने आठ नवंबर को उन्हें महाराष्ट्र सरकार के पास भेज दिए थे.शिंदे के अनुसार आठ तारीख़ को ही इस बात का फ़ैसला ले लिया गया था कि 21 नवंबर को पुणे की यरवडा जेल में कसाब को फांसी दी जाएगी.

दफ़ना दिया गया

कैसे हुआ फ़ैसला

  • 16 अक्तूबर,2012: गृहमंत्रालय ने कसाब की दया याचिका नामंज़ूर की.
  • 05 नवंबर: राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने दया याचिका ख़ारिज की.
  • 07 नवंबर: गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने उनपर दस्तख़्त किए.
  • 08 नवंबर: गृहमंत्रालय ने फ़ाइल महारष्ट्र सरकार को भेजी.उसी दिन कसाब को 21 नवंबर को फांसी देने का निर्णय कर लिया गया.
  • 19 नवंबर: कसाब को मुंबई के आर्थर रोड जेल से पुणे के यरवडा जेल ले जाया गया.
  • 21 नवंबर: सुबह साढ़े सात बजे यरवडा जेल में फांसी दी गई
शव के बारे में पूछे जाने पर शिंदे ने कहा कि पाकिस्तान को इस बारे में सूचित कर दिया गया है लेकिन अभी तक पाकिस्तान की तरफ़ से शव की मांग नहीं की गई है.
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के अनुसार कसाब के शव को यरवडा जेल परिसर में ही दफ़ना दिया गया है.
साल 2008 में नवंबर की 26 तारीख़ को कसाब अपने 10 साथियों के साथ समुद्र के रास्ते मुंबई आया था.
उन लोगों ने शिवाजी रेलवे स्टेशन, ताज होटल और ट्राइडेंट होटल समेत शहर के कई इलाक़ों को निशाना बनाया था.
इस हमले में कुल 166 लोग मारे गए थे और सैंकड़ों अन्य घायल हुए थे. इनमें कई पुलिस अधिकारी और विदेशी भी शामिल थे.
पुलिस और एनएसजी कमांडो की जवाबी कार्रवाई में कसाब के नौ साथी मारे गए थे जबकि वो पकड़ा गया था.

फांसी पर राजनीति भी शुरू

लंबी कानूनी प्रक्रिया और लगभग चार साल के इंतज़ार के बाद कसाब को फांसी दी गई. लेकिन इसको  राजनीतिक रंग भी दिया जा रहा है.
शीतकालीन सत्र से एक दिन पहले कसाब को फांसी दिए जाने को कई विश्लेषक सरकार की उस कवायद का हिस्सा मान रहे हैं जिसके जरिए उसने विपक्ष की रणनीति पर पानी फ़ेर दिया है.
स्टेशन की तस्वीरें
प्लेटफॉर्म पर हमलावरों ने अंधाधुंध गोलीबारी की थी
द हिंदू अख़बार की स्मिता गुप्ता बताती हैं कि अगले महीने होने वाले गुजरात चुनाव को देखते हुए इसका राजनीतिक फ़ायदा भी सरकार को हो सकता है.
दूसरी ओर विपक्ष अब नए मुद्दे तलाशने में जुट गया है. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्विट किया, “अफ़ज़ल गुरू का क्या होगा, जिसने हमारे जनतंत्र के मंदिर – संसद भवन – पर 2001 हमला किया था. उसका अपराध कसाब के अपराध से कई साल पहले किया गया था.”
हालाँकि विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद ने मीडिया से बात करते हुए उन्होंने कहा, “मैं ऐसी बातों का जवाब देना भी उचित नहीं समझता. (जो लोग ऐसी बातें कह रहे हैं) क्या वो चाहते थे कि कसाब को फाँसी न दी जाती.”

'यही अंजाम होना था'

कसाब को फांसी दिए जाने पर पाकिस्तान में भी कोई ख़ास हलचल नहीं दिखी है.पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मोआज्जम अली ख़ान ने अपनी  प्रतिक्रिया में कसाब का ज़िक्र किए बिना कहा है, "हम किसी भी तरह के आतंकवादी हरकतों की निंदा करते हैं और इसके ख़िलाफ़ लड़ रहे देशों का सहयोग करने को तैयार हैं."
वहां के ज़्यादातर राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक भी उन्हें भारत सरकार के इस कदम का इंतज़ार था.
राजधानी इस्लामाबाद स्थित एक और वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एहतेशामुल हक़ के अनुसार आम पाकिस्तानी में इसको लेकर कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है. उनके मुताबिक़ ज़्यादातर लोगों का यही मानना है कि कसाब ने जो किया था उसकी यही अंजाम होना था.एहतेशामुल हक़ का कहना है कि आम पाकिस्तानी नागरिकों को लगता है कि मुंबई पर हमले के कारण पाकिस्तान और भारत के रिश्ते और ख़राब हो गए हैं और अब जबकि कसाब को फांसी दे दी गई है तब हो सकता है कि भारत और पाकिस्तान के संबंध थोड़े बेहतर हों.

Monday, November 19, 2012

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी

 लालबहादुर सिंह चौहान की पुस्तक खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी के कुछ अंश 

साभार  

भारत के स्वतन्त्रता-संग्राम में केवल पुरुषों ने ही मर-मिटकर अपनी जिन्दगियाँ तबाह नहीं की थीं, अपितु वीर-बाँकुरी नारियाँ भी घर की चहारदीवारी से बाहर निकली थीं और उन्होंने भी बहादुरी तथा अदम्य साहस का परिचय देते हुए रणभूमि में युद्ध कर दुश्मनों के दाँत खट्टे कर दिए थे। कौन नहीं जानता कि सन् 1857 के स्वातन्त्र्य-समर में महारानी लक्ष्मीबाई ने इंग्लैंड की अपार शक्ति को छका-छका कर छक्के छुड़ा दिए थे।
झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई भी जंगे आजादी में विशिष्ट योगदान करनेवाली अविस्मरणीय एक ऐसी ही वीराँगना थीं। जिस समय अंग्रेज शासक देशी रियासतों को एक-एक करके अपनी अधीनता स्वीकार कराते जा रहे थे और उनके राज्य को अपने में मिलाते जा रहे थे, तभी महारानी लक्ष्मीबाई ने कहा था-‘‘मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।’’
मोरोपन्त महाराष्ट्र में सतारा के समीप कृष्णा नदी के किनारे बाई नामक गाँव में रहते थे। साधारण परिवार था। उनकी फिर भी बड़ों-बड़ों तक पुहँच थी। चिमाजी आपा साहब उन्हें बहुत मानते थे। वह काशी में रहते थे, इसलिए उन्होंने मोरोपन्त को पचास रुपए मासिक वेतन पर अपने पास काशी में बुला लिया था। उनकी धर्मपत्नी श्रीमती भागीरथी बाई भी उन्हीं साथ काशी चली गईं। वहीं काशी में दिनाँक 16 नवम्बर, सन् 1835 ई. को मनु का जन्म हुआ। मोरोपन्त का शुष्क दाम्पत्य जीवन सर-सब्ज हो गया। परन्तु अधिक दिनों तक यह अवस्था न रहने पाई। तीन-चार वर्ष बाद ही आपा साहब का निधन हो गया। मोरोपन्त को इस घटना से बड़ा दुःख हुआ। अब उनके लिए काशी में रहना कठिन हो गया। तब फिर उन्होंने बाजीराव को पत्र लिखा।
बाजीराव चिमाजी के भाई थे। उन्हें ब्रिटिश सरकार से आठ लाख रुपया वार्षिक पेंशन मिलती थी। भाई की मृत्यु का समाचार सुनकर उन्हें बहुत दुःख हुआ। उन्होंने मोरोपन्त को अपने पास बुला लिया।
मनुबाई की माता भागीरथी बाई बहुत सुन्दर, सामाजिक और धार्मिक विचारों की विदुषी महिला थीं। मनु अभी बेचारी चार-पाँच वर्ष की अबोध बालिका थी कि अकस्मात् उनकी माता भागीरथी बाई का देहान्त हो गया। मनु के पिता मोरोपन्त पेशवा बाजीराव की सेवा में ही थे और घर में छोटी-सी मनु की देखभाल करने वाला कोई अन्य न था। अतः उनके पिताश्री मोरोपन्त अपनी बेटी को अपने साथ पेशवा बाजीराव के दरबार में ले गए। नटखट, गोरे रंग की बेहद खूबसूरत मनु ने वहाँ सबका मन मोह लिया और उसे लोग छबीली कहने लगे। मनुबाई का पालन-पोषण पिता ने ही किया।
बाजीराव पेशवा के बच्चों के पढ़ाने के लिए कई अध्यापक आते थे; मनु भी उनके बच्चों के साथ बैठकर पढ़ने-लिखने लगी। प्राथमिक शिक्षा के साथ-साथ मनु ने तलवार चलाना और बन्दूक का निशाना साधना बाल्यकाल में ही सीख लिया था। बाजीराव पेशवा के बच्चों के साथ मनु रहती ही थी, इसलिए उन बच्चों के साथ ही अभ्यास करके उसने निपुणता हासिल कर ली और घुड़सवारी करने में भी बहुत माहिर हो गई। छोटी-सी बालिका को तीर, तलवार और बन्दूक चलाते देखकर लोग आश्चर्य में पड़ जाते थे। बचपन में यह सब विद्याएँ मनु ने खेल-खेल में ग्रहण कर लीं।
झाँसी के राजा गंगाधर राव के साथ मनु का विवाह बड़ी धूमधाम और गाजे-बाजे के साथ सम्पन्न हुआ। विवाहोपरान्त मनु का नाम परिवर्तित कर लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार बाल्यकाल की मनु और छबीली नाम की लड़की झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई बन गई।
उन दिनों भारत में पर्दा-प्रथा का अधिक जोर था, इसलिए शादी के उपरान्त झाँसी में महारानी लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था और उन्हें बाहर जाने की मनाही थी। स्वच्छन्द और खुले वातावरण में पली और बढ़ी मनु को किले के भीतर राजभवन का यह परतन्त्र जीवन रास नहीं आया और मनु ने राजा से कहकर दुर्ग के अन्दर ही व्यायामशाला बनवाई और शस्त्र चलाने तथा घोड़े की सवारी का अभ्यास करने की भी अपने लिए व्यवस्था करा ली। महारानी लक्ष्मीबाई ने महिलाओं की एक सेना भी तैयार की। राजा गंगाधर राव महारानी लक्ष्मीबाई की वीरता, योग्यता तथा सुन्दरता से बेहद प्रभावित व प्रसन्न थे और रानी को बहुत प्यार करते थे।
महारानी लक्ष्मीबाई बड़ी दयालु प्रकृति की थीं। एक दिन महारानी जब अपनी कुल देवी महालक्ष्मी के मन्दिर से दर्शन-अर्चन कर वापस लौट रही थीं तो मार्ग में कुछ गरीब, अनाथ और बेसहारा लोगों ने उन्हें रोक लिया। महारानी के पूछने पर उन्होंने बताया कि इस सर्द ऋतु के कड़ाके की ठण्ड से बचने के लिए हमारे पास कपड़े-लत्ते नहीं हैं, हम बड़े लाचार लोग हैं और उन्होंने अपनी विपन्नता की व्यथा-कथा महारानी को कह सुनाई। उनको दुःखी देखकर महारानी लक्ष्मीबाई का हृदय द्रवित हो गया और वे अपनी आँखों में आँसू भर लाईं। तत्पश्चात् उन्होंने नगर में डुग्गी पिटवाकर घोषणा करा दी कि अमुक दिन सब गरीब और असहायजन अमुक मैदान में एकत्रित हों। वहाँ में सबके दुःख-दर्द की बात सुनूँगी और उनके कल्याणार्थ कुछ उपाय करूँगी। मुनादी के अनुसार सब निर्धन व असहायजन निश्चित तिथि पर मैदान में एकत्रित हुए। महारानी ने सबसे वार्ता की, गौर से उन्हें सुना और फिर उन्होंने प्रत्येक गरीब को रुई भी फतूरी, टोपी और एक-एक कम्बल अपने हाथ से वितरित किया। ऐसी थीं करुणामयी महारानी लक्ष्मीबाई। कई बार उन्होंने निर्धनों के हितार्थ ऐसे आयोजन किए।
कुछ वर्षों बाद महारानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। झाँसी के चारों ओर अपार खुशियाँ मनाई गईं, जगह-जगह जश्न हुए परन्तु कुछ महीनों के पश्चात् वह शिशु बीमार पड़ा और उसको बचाया नहीं जा सका, उसका प्राणान्त हो गया। झाँसी में सर्वत्र शोक छा गया और महारानी बहुत दुःखी रहने लगीं। दुर्भाग्य और बुरे समय ने महारानी का पीछा नहीं छोड़ा। कुछ दिनों पश्चात् बच्चे के गम में राजा गंगाधर राव को गम्भीर बीमारी ने यकायक धर दबाया, उनके जीवन-रक्षा की कोई आशा नहीं रही। तब दरबार के लोगों ने पुत्र गोद लेने की सलाह दी। अस्तु, अपने ही परिवार के एक पंच वर्षीय बालक को उन्होंने गोद ले लिया अपना दत्तक पुत्र बनाया। बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। गोद लेने के केवल दो दिन बाद ही 21 नवम्बर, सन् 1853 ई. को राजा गंगाधर राव का निधन हो गया। 18 वर्ष की युवा लक्ष्मीबाई विधवा हो गईं और पति-वियोग में शोकसागर में डूब गईं। इस घड़ी पर झाँसी का हर नागरिक गमगीन व व्याकुल था।
राजा गंगाधर राव के निधन के पश्चात् झाँसी की जनता की जिम्मेदारी महारानी लक्ष्मीबाई के कन्धों पर आ गई। महारानी ने अपने मन में निश्चय किया-‘‘झाँसी के लोगों का भाग्य अब मेरे हाथों में है। मैं उनका विश्वास नहीं तोड़ूँगी।’’ महारानी लक्ष्मीबाई ने अपने को अच्छी तरह से राजकाज चलाने के लिए तैयार किया और अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को मान्यता दिलाने के लिए महारानी ने अंग्रेज गवर्नर जनरल को प्रस्ताव भेजा, परन्तु उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया।
उस समय भारत के बड़े भू-भाग पर अंग्रेज शासन कर रहे थे। वे झाँसी को भी अपने आधिपत्य में लाना चाहते थे। उन्हें यह मौका अच्छा लगा। वे जानते थे कि महारानी लक्ष्मीबाई महिला हैं और युद्ध में हम अंग्रेजों का सामना नहीं कर सकतीं।
इसलिए गवर्नर जनरल ने लिखकर भेजा कि राजा गंगाधर राव को कोई पुत्र नहीं है। अस्तु, अब झाँसी पर अंग्रेजों का अधिकार होगा। वीरांगना लक्ष्मीबाई यह समाचार पाकर क्रोध से भभक उठीं और उन्होंने घोषणा की कि ‘‘मैं अपनी झाँसी कभी नहीं दूँगी।’’ झाँसी की स्वामिभक्त और मातृभूमि की रक्षा में जान निछावर करने वाली प्रजा ने भी यह नारा गर्व से बुलन्द किया कि ‘‘हम अपनी झाँसी नहीं देंगे।’’ जनता का सहयोग व समर्थन पाकर महारानी में एक नई ताकत पैदा हो हुई। उधर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की तैयारियाँ देश भर में प्रारम्भ हो गई थीं।
10 मई, सन् 1857 को मेरठ छावनी में सैनिकों ने खुला विद्रोह कर दिया। उन्होंने अंग्रेज अफसरों पर गोलियाँ चलाईं और अपने बन्दी साथियों को मुक्त करा लिया। मेरठ और दिल्ली के सैनिकों ने मिलकर दिल्ली पर अपना कब्जा कर लिया और बहादुर शाह को दिल्ली के सिंहासन पर बैठाकर भारत का राजा घोषित कर दिया। देशभक्त जवानों के सम्मुख अंग्रेज पूर्णतया कमजोर साबित हुए और उनकी हिम्मत पस्त हो गई। देशभक्तों ने झाँसी में कहा, ‘‘लक्ष्मीबाई झाँसी पर राज्य करें, हम दिल्ली चलते हैं।’’

महारानी लक्ष्मीबाई ने एक दिन जनता के सभी वर्गों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया और कहा-‘‘मैं चाहती हूँ कि यह निर्णय जनता करे कि झाँसी पर कौन राज्य करे ?’’ जनप्रतिनिधियों ने फैसला किया, ‘‘झाँसी पर हमेशा के लिए महारानी लक्ष्मीबाई का राज्य रहेगा। हम पूरी तरह से महारानी के साथ हैं।’’ महल के बाहर खड़ी राज्य की पूरी जनता ने एक स्वर में कहा, ‘‘झाँसी स्वतन्त्र राज्य होगा और महारानी लक्ष्मीबाई उस पर राज्य करेंगी।’’
सन् 1857 में महारानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी का शासन अपने हाथों में लिया और वहाँ काफी सुधार किया। खजाना भरा गया और सेना को शक्तिशाली बनाया गया। पुरुषों के साथ-साथ महिला-सेना भी तैयार की गई।

महारानी लक्ष्मीबाई के शासन को सबसे पहली चुनौती स्वर्गीय महाराजा के भतीजे सदाशिव राव ने अपने को झाँसी का राजा घोषित करके दी। लक्ष्मीबाई की सेना ने एक ही झटके में सदाशिव राव को परास्त कर भगा दिया। दतिया और ओरछा के पड़ोसी राज्यों के राजाओं ने भी झाँसी को लक्ष्मीबाई से छीनने की कोशिश की, परन्तु उन्हें भी पराजय का सामना करना पड़ा।
उधर अंग्रेजों ने फिर से दिल्ली को जीतकर अपने कब्जे में कर लिया। दिल्ली के बादशाह को कैद कर लिया और उसके लड़कों को गोलियों से भून दिया गया। कानपुर और अवध आदि को भी अंग्रेजों ने फिर से जीत लिया और अब अंग्रेजों का निशाना झाँसी ही थी। सेना लेकर अंग्रेजों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। महारानी लक्ष्मीबाई ने भी युद्ध की पूरी तैयारी की। बन्दूकों, तोपों, रसद तथा चारे का पर्याप्त प्रबन्ध कर लिया और सेना में भरती होने की लोगों से अपील की।
25 मार्च, सन् 1858 को सुबह-सवेरे अंग्रेजों की तोपों ने झाँसी पर गोलाबारी शुरू कर दी। महारानी लक्ष्मीबाई जानती थीं कि अंग्रेज तोपों से लड़ेंगे। इसलिए उन्होंने भी दुर्ग की दीवारों पर तोपें लगा दीं। महारानी ने अपने महल के सोने और चाँदी के सामान को भी तोप के गोले बनाने के लिए दे दिया। महारानी लक्ष्मीबाई के विश्वासपात्र और कुशल तोपची गुलाम मुहम्मद गौस खाँ तथा खुदाबक्श थे। महारानी ने सब सरदारों को बुलवाया और झाँसी के दुर्ग के चारों ओर सुदृढ़ किलाबन्दी की। महारानी के किलेबन्दी की व्यवस्था देखकर अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज भी चकित रह गया। अंग्रेजी फौज ने दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया और दुर्ग पर आक्रमण होने लगे। महारानी लक्ष्मीबाई के सैनिकों ने भी अंग्रेजों के प्रत्येक गोले का जवाब गोले से ही दिया।
अंग्रेज आठ दिन तक लगातार किले पर गोले बरसाते रहे, परन्तु वे झाँसी का किला न जीत सके। महारानी और उनकी स्वामिभक्त प्रजा ने दृढ़ संकल्प किया था कि आखिरी साँस तक झाँसी के दुर्ग पर फिरंगियों का झण्डा नहीं फहराने देंगे। अंग्रेज सेनापति सर ह्यूरोज ने यह भली प्रकार जान लिया कि सैनिक-शक्ति के बल पर हम झाँसी पर अधिकार नहीं कर सकेंगे। अतः उसने छल और चालाकी से काम लिया। झाँसी के एक सरदार दूल्हासिंह को सर ह्यूरोज अंग्रेज सेनापति ने लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। जब अंग्रेजों का रात को आक्रमण हुआ तो दूल्हासिंह ने दक्षिण दुर्ग के फाटक को खोल दिया। बस, फिर क्या था ? फिरंगियों ने नगर में घुसकर बहुत लूटपाट की और हिंसा का पैशाचिक दृश्य उपस्थित कर दिया। यहाँ तक कि महिलाओं और अबोध बच्चों तक को भी मौत की नींद सुला दिया।
झाँसी की बहादुर फौज ने अपनी महारानी के नेतृत्व में मजबूती से दुश्मन का मुकाबला किया। युद्ध का भयंकर दृश्य उपस्थित था। महारानी लक्ष्मीबाई रणचण्डी की मूर्ति बनी शत्रु-सेना पर टूट पड़ीं और शत्रु-पक्ष के सैनिकों को गाजर-मूली की भाँति काटने लगीं। जय भवानी और हर-हर महादेव के नारों से आकाश गूँज उठा।
उधर ताँत्याटोपे झाँसी की सहायता के लिए आया। झाँसी की सेना में और जोश उत्पन्न हो गया। सैनिकों के जोश और उत्साह का पता इस बात से चलता है कि सैनिकों ने कहा-‘‘अंग्रेज झाँसी पर कभी राज्य नहीं कर पाएँगे।’’ रात को अंग्रेजों ने और तोपें मँगाकर ताँत्याटोपे की फौज पर गोलाबारी प्रारम्भ कर दी और अगले दिन अंग्रेजों ने ताँत्याटोपे की सेना को एक ही आक्रमण में साफ कर दिया।
महारानी लक्ष्मीबाई अपने समस्त सेनापतियों को इकट्ठा किया और कहा-‘‘हमें हिममत नहीं छोड़नी है। हम अकेले भी अंग्रेजों से लड़ सकते हैं। आज तक आप लोग जिस बहादुरी और वीरता से युद्ध कर रहे हैं, मुझे पूर्णविश्वास है कि आप रणभूमि में अवश्य विजय प्राप्त करेंगे।’’
सेनापतियों ने निर्णय किया कि जब तक एक भी आदमी जीवित रहेगा, हम डटकर प्राण-पण के दुश्मन से लड़ते-रहेंगे। आखिरी विजय हमारी ही होगी। हम हथियार कभी नहीं छोड़ेंगे और फिरंगियों को मौत के घाट अन्त तक उतारते रहेंगे।
थोड़े समय के पश्चात् अंग्रेजों ने फिर से युद्ध शुरू कर दिया। झाँसी को चारों ओर से घेर लिया गया। कहाँ झाँसी की थोड़ी-सी फौज और कहाँ अंग्रेजों की विशाल सेना। महारानी लक्ष्मीबाई जब युद्ध में चारों ओर से घिर गईं तो उन्होंने अपने सेनापतियों से कहा-‘‘मैंने यह फैसला किया है कि मैं समर्पण नहीं करुँगी, जो मरने को तैयार हैं वह मेरे साथ रहें। बाकी किला छोड़े सकते हैं।’’ कई सेनापतियों ने कहा कि हम आपके साथ हैं। महारानी के विश्वसनीय सरदारों ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ कालपी जाने का परामर्श दिया।
तद्नुसार अपने कुछ विश्वासपात्र सरदारों के साथ महारानी लक्ष्मीबाई आधी रात को किले से निकल गईं और कालपी की ओर बढ़ीं। अंग्रेजों को पता लगा कि महारानी लक्ष्मीबाई झाँसी से बच निकलीं, तो उन्होंने अपने कुछ अंग्रेज सैनिक महारानी का पीछा करने के लिए भेजे। ये घुड़सवार अंग्रेज सैनिक महारानी के पीछे लग गए। दो सैनिकों ने महारानी को पकड़ने की कोशिश की, परन्तु महारानी ने उन्हें मार गिराया।
कालपी में महारानी लक्ष्मीबाई राव साहब पेशवा के पास पहुँचीं। राव साहब पेशवा ने महारानी का स्वागत करते हुए कहा कि मुझे अपने संघर्ष में आपकी नितान्त आवश्यकता है। महारानी लक्ष्मीबाई ने कहा-‘‘मराठों की शान व गौरव की रक्षा करने में युद्ध के मैदान में मरने से अधिक मुझे और कोई खुशी नहीं हो सकती।’’
अंग्रेज-फौज ने कालपी के आसपास घेरा डालना प्रारम्भ कर दिया। अंग्रेजों की सेना से देशभक्त सैनिकों ने घमासान युद्ध किया, परन्तु अन्त में कालपी की सेना पराजित हो गई। कालपी के राव साहब पेशवा ने सोचा के अब समर्पण के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं रहा और हम पूरी तरह पराजित हो चुके हैं। महारानी लक्ष्मीबाई ने कहा कि हमें हिम्मत नहीं छोड़नी चाहिए और आगे की कार्यवाही के लिए सोचना व विचारना चाहिए। अन्त में यह निर्णय हुआ कि हम आखिरी दम तक युद्ध करते रहेंगे।
महारानी लक्ष्मीबाई अपने घोड़े पर सवार होकर शेरनी की तरह अंग्रेजी सेना पर टूट पड़ीं और दूसरे सेनापति भी महारानी के साथ-साथ दुश्मन की फौज से भिड़ गए। परन्तु अंग्रेजों की चतुर रणनीति सफल हो गई और राव साहब पेशवा की सेना पराजित हो गई। तब अन्ततः 24 मई, 1858 को अंग्रेजों ने कालपी के दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया।
इसके पश्चात् देशभक्त रावसाहब पेशवा, ताँत्याटोपे, बांदा के नवाब और महारानी लक्ष्मीबाई की बैठक हुई। महारानी लक्ष्मीबाई ने कहा कि मेरा विचार है कि ग्वालियर का किला पास ही है, हम ग्वालियर चलकर वहाँ से सहायता प्राप्त करें। यदि वह किला हमें मिल गया तो हम युद्ध कर सकते हैं और पूर्ण आशा है कि हम दुश्मन को अवश्य परास्त कर देंगे। ग्वालियर की सेना और वहाँ की जनता अंग्रेजों के विरुद्ध है।
महारानी लक्ष्मीबाई तांत्याटोपे के साथ एक सेना लेकर ग्वालियर पहुँचीं। महारानी लक्ष्मीबाई को देखते ही ग्वालियर की सेना ने अपने हथियार महारानी के सामने डाल दिए और ‘महारानी झाँसी की जय’ के नारे लगाए। ग्वालियर का महाराजा जयाजी राव सिंधिया भागकर आगरा आया और आगरा में अंग्रेजों की शरण में पहुँच गया।
ग्वालियर में कालपी के राव साहब पेशवा ने एक विशाल दरबार बुलाकर अपने को ‘मराठा राज्य-संघ’ का प्रधान घोषित कर दिया। इस उपलक्ष में खुशी के माहौल में एक भव्य समारोह आयोजित किया गया। सभी लोग समारोह में मस्त हो रहे थे, परन्तु महारानी लक्ष्मीबाई के मन में चिन्ता व्याप्त थी। अंग्रेज सेना ने जब ग्वालियर में प्रवेश किया तो राव साहब पेशवा को इस बात का पता ही न था। अंग्रेजों ने आक्रमण प्रारम्भ कर दिया। ग्वालियर में सेना तैयार नहीं थी, इसलिए महारानी ने राव साहब से कहा कि सेना को युद्ध के मैदान में उतारिए। महारानी लक्ष्मीबाई ने पुरुषों के वस्त्र पहने और युद्ध में कूद पड़ीं। परन्तु अंग्रेजों की फौज ने ग्वालियर की सेना को काफी नुकसान पहुँचाया।
महारानी लक्ष्मीबाई ने फैसला किया कि मैं कभी हार नहीं मानूँगी और आत्म-समर्पण नहीं करूँगी। उधर महारानी घायल हो गई थीं और दोनों ओर से सेनाएँ जमकर लड़ रही थीं तथा अंग्रेज सेना तेजी से किले में घुस रही थी। महारानी के समक्ष अब भागने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प न था। घोड़े की लगाम अपने दाँतों में दबाकर और दोनों हाथों से तलवार चलाती हुई महारानी आगे बढ़ती रहीं। घुड़सवार अंग्रेज सैनिक महारानी का पीछा कर रहे थे और दुर्भाग्य से एक गोली महारानी की जाँघ में घुस गई; इससे उनकी गति कुछ धीमी पड़ गई। इतने में घुड़सवार अंग्रेज उनके निकट आ पहुँचे। दोनों दलों में भयंकर युद्ध होने लगा। महारानी श्रान्त व काफी जख्मी हो चुकी थीं परन्तु फिर भी उनके पराक्रम व साहस में कोई कमी नहीं आई।
एक सवार उनके बिल्कुल पास आ पहुँचा और उसने महारानी पर वार करना चाहा, परन्तु महारानी की तलवार ने बिजली की गति से घूमकर उसे तत्काल यमलोक पहुँचा दिया। महारानी ने पुनः अपना घोड़ा दौड़ाया पर उसी समय उन्हें अपनी प्रिय सखी मुन्दर की चीत्कार सुनाई दी। वे तुरन्त घूम पड़ीं। उन्होंने देखा कि एक अंग्रेज घुड़सवार ने तलवार से मुन्दर को मार दिया है; तो वे क्रोध से तमतमा उठीं और उन्होंने अपनी सखी मुन्दर के हत्यारे पर झपटकर भीषण प्रहार किया और उसे मौत के घाट उतार दिया।
तदुपरान्त महारानी लक्ष्मीबाई ने पुनः अपना घोड़ा दौड़ाया, परन्तु मार्ग में एक नाला आ गया। महारानी ने अपने घोड़े को नाले के पार कुदाने का भरसक प्रयास किया, किन्तु वह नाले को पार न कर सका। इतने में अंग्रेज घुड़सवार पास आ गए। एक अंग्रेज ने पीछे से महारानी के मस्तक पर प्रहार किया। इससे महारानी के सिर का दाहिना भाग कट गया और उनकी एक आँख बाहर निकल आई। इस सवार ने महारानी के हृदय पर संगीन से वार किया। भयंकर रूप से घायल होने पर भी महारानी के हाथ की तलवार चलती रही। अपने आक्रमणकारी पर महारानी ने ऐसा जबरदस्त वार किया वह चीखकर धराशायी हो गया और उसके साथ ही महारानी स्वयं भी जमीन पर गिर पड़ीं। पठान सरदार गुलाम मुहम्मद जो अब भी महारानी के साथ था, प्रतिशोध से पागल होकर अंग्रेज घुड़सवारों पर झपटा। उसका रौद्र रूप देखकर वे फिरंगी घुड़सवार भाग खड़े हुए।
स्वामिभक्त रामराव देशमुख आखिरी तक महारानी लक्ष्मीबाई के साथ थे। महारानी के रक्त से बुरी तरह सने हुए शरीर को वे निकटवर्ती गंगादास बाबा की कुटिया पर ले गए। महारानी ने व्याकुल होकर पानी माँगा। गंगादास बाबा ने उन्हें गंगाजल पिलाया।
महारानी के शरीर में असह्य वेदना हो रही थी, पर उनके चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था। एक बार उन्होंने अपने पुत्र दामोदर राव की ओर देखा और फिर उनके नेत्र सदा-सदा के लिए बन्द हो गए। दिनाँक 18 जून, सन् 1858 को क्रान्ति की यह ज्योति हमेशा-हमेशा के लिए लुप्त हो गई। उसी कुटिया के निकट एक चिता तैयार की गई और महारानी का पार्थिव शरीर इस चिता पर रखा गया। उनके पुत्र दामोदर राव ने चिता में अग्नि प्रज्वलित की। महारानी की काया धू-धू कर जलने लगी। महारानी लक्ष्मीबाई मरकर भी अमर हो गईं। वास्तव में ही नारी-गौरव महारानी लक्ष्मीबाई राष्ट्र-रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग करने वाली वीरांगनाओं में अग्रगण्य थीं। आज भी उनकी अमर-गाथा घर-घर में गूँज रही है।
अक्सर जब मैं रात को अपनी नन्हीं पोती तेजस्विनी को सुलाने के लिए अपने पास लिटाकर महारानी लक्ष्मीबाई की जीवन-कथा सुनाता हूँ तो वह उसे बार-बार सुनाने का आग्रह तो करती ही है, साथ ही जिज्ञासावश कभी-कभी कुछ प्रश्न भी। ‘‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो...’’शीर्षक (ऐतिहासिक नाटक) मेरी कृति उसी को सस्नेह समर्पित है। अन्त में भाई डॉ. जयसिंह ‘नीरद’ तथा श्रद्धेय आचार्य डॉ. चन्दन लाल पाराशर का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपनी अत्याधिक व्यस्तता के बावजूद भी उक्त कृति का अवलोकन कर अपने विचार प्रकट करते हुए मुझे प्रोत्साहित किया।

Saturday, November 3, 2012

सफाई अभियान के बाद हरिद्वार वासियों ने कहा थैंक्यू ,डेरा सच्चा सौदा


गंगा नदी के सफाई महाभियान पर हरिद्वार से संदीप सिंहमार की कलम से

डेरा सच्चा सौदा की साध संगत ने पूज्य गुरु जी की पावन प्रेरणा से हरिद्वार में सफाई महाभियान चलाकर पवित्र गंगा नदी की सफाई कर एक अनुकरणीय उदाहरण पेश कियाजो कार्य आज तक केंद्र व राज्य सरकार तथा कोई अन्य संस्था भी नहीं कर सकी उसी काम को साध संगत ने कुछ ही घंटो में कर दिखाया अब भागीरथी की सफाई व्यवस्था को बनाये रखना हम सब का कर्तव्य बनता है ।       





Monday, October 29, 2012

भारत में कृषि की दुर्दशा के कारण

विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बनने के बाद भारत के किसानों की दशा और अधिक दयनीय हुई है। मुट्ठी भर किसानों एवं व्यापारियों के हितों के आगे बहुसंख्यक गरीब और छोटे किसानों के हितों की बलि दे दी गई। हालात इतने बदतर हो गए हैं कि देश भर में हजारों किसान आत्महत्या कर चुके हैं और यदि सरकार ने रास्ते नहीं तलाशे तो आने वाले दिनों में इनकी संख्या लाखों में पहुंच सकती है।
इससे पहले कभी भी भारत के किसानों की इतनी दुर्दशा नहीं हुई थी। भारत के किसान स्वयं खुशहाल थे एवं अन्नदाता के रूप में पूरे देश का पालन- पोषण करने में सक्षम थे लेकिन सरकार के गलत निर्णयों एवं चंद पैसों के लालच में भारत के सनातनी और ऋषि कृषि परम्परा को बाजारू कृषि बना दिया गया। दरअसल भारतीय कृषि की इस दारुण कथा की लम्बी दास्तान है।
विकासशील देशों के साथ भारत के किसानों की दुर्दशा की कहानी उन दिनों शुरू हुई जब भारत ने 1995 में विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि समझौते पर अपने हस्ताक्षर किए। यहां उल्लेख करना आवश्यक होगा कि जब तत्कालीन सरकार ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए उस समय कृषि से जुड़े संबंध पक्षों को विश्वास में नहीं लिया गया। उरुग्वे दौर की वार्ता के क्रम में जब कृषि समझौता दस्तावेज बनने की प्रक्रिया में था विकसित देश इसका विरोध करते थे।
बाद में अचानक उन्होंने इसे स्वीकार किया और विकासशील देशों को भी इस सहमति के लिए बाध्य किया। 1994 के अप्रैल में मराकेश समझौता के अंग के रूप कृषि समझौता भी स्वीकृत हुआ और 1 जनवरी 1995 से सभी देशों के लिए यह समझौता बाध्यकारी हो गया।
यहां यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि आखिर डब्ल्यूटीओ के अन्तर्गत कृषि समझौते में आखिर कौन-कौन सी बातें हैं जो आज देश के लिए परेशानी का कारण बन गई हैं
 
 
 
 
 
 
 
 
 
कृषि समझौते के अनुसार सभी सदस्य देशों को तीन प्रमुख मुद्दों पर अपने-अपने देशों में अमल करना था। वे मुद्दे इस प्रकार हैं-
1 .  बाजार पहुंच
2.   घरेलू सहायता
3.   निर्यात अर्थ सहायता (सब्सिडी)
ये तीनों ऐसे मुद्दे हैं जिस पर दोहा में यह तय हुआ था कि विकसित देश तय समय सीमा के भीतर अपने बाजारों को गरीब देशों के किसानों के उत्पादों के लिए खोलेंगे। अमीर देश इनके उत्पादों पर लगने वाले सभी गैर व्यापार अवरोधों को समाप्त करेंगे। सभी देश इस बात पर भी सहमत हुए थे कि मात्रात्मक प्रतिबंध भी उठा लिया जाएगा। इन सबके बदले केवल प्रशुल्क की व्यवस्था रहेगी। जिसे समय-समय पर बातचीत के द्वारा सर्वमान्य स्तर पर ले आया जाएगा।
विकासशील देशों को इस बात की छूट मिली थी कि अपना बाजार बचाने के लिए वे गैर शुल्क अवरोध भी लगा सकते हैं। भारत ने समय से पूर्व ही सभी मात्रात्मक प्रतिबंध उठा लिए। परिणाम यह हुआ कि भारत में संवेदनशील वस्तुओं का आयात कई गुना बढ़ गया और उस क्षेत्र के उत्पादक की रोजी-रोटी समाप्त हो गयी। इसी प्रकार विकसित देशों से उनके यहां जारी घरेलू सहायता एवं निर्यात सहायता को कम करने का समझौता दोहा में हुआ था। तय समय सीमा के बाद भी ये देश निर्यात एवं घरेलू सहायता कम करने के बजाए बढ़ाते ही रहे।
इसका दुष्परिणाम भारत जैसे गरीब देशों को उठाना पड़ा। हांगकांग मंत्रिस्तरीय सम्मेलन आते-आते विकसित देशों ने अब अपनी सब्सिडी हटाने के एवज में  विकासशील देशों के ऊपर मनमानी शर्तें शुरू कर दी हैं।
डब्ल्यूटीओ में कृषि पर बातचीत की शुरुआत वर्ष 2000 से शुरू हुई। दोहा में 2001 के नवम्बर में कृषि वार्ता हेतु एक मार्गदर्शक रूपरेखा तय की गई। दोहा में ही कृषि वार्ता हेतु एक निश्चित समय सीमा 1 जनवरी 2005 तय की गई। जब तक कृषि पर होनेवाली बातचीत समाप्त हो जानी चाहिए थी। इससे पूर्व सभी देशों ने अपनी कृषि नीति-व्यापार से जुड़े दस्तावेज बनाए और एक दूसरे को सौंपी। इस आधार पर एक विस्तृत प्रारूप बनाया गया।
लेकिन सभी देशों के बीच असहमति के बाद वर्ष 2003 में यह वार्ता असफल हुई। इसका कारण था विकसित देशों द्वारा कृषि से अनेक मुद्दों को जोड़ना। लेन-देन के इस फेर में विकासशील देशों ने दोहा जैसी एकजुटता दिखायी और अपने हितों की रक्षा की। जबसे कृषि का मुद्दा विश्व व्यापार संगठन में प्रमुखता से उभरा है, इसकी मंत्रिस्तरीय वार्ताएं एक-एक कर असफल होने लगी हैं। बावजूद इसके भारत की सभी सरकारें इस संस्था एवं इसको चलाने वाले पश्चिमी देशों के सामने हमेशा नतमस्तक होती आई हैं। उनकी दब्बू एवं रीढ़विहीन गति विधियों से भारतीय संप्रभुता एवं सम्मान की पगड़ी तो नीचे हुई ही भारतीय किसानों की दुर्दशा भी बढ़ती गई।
वैसे तो आर्थिक उदारीकरण के दुष्परिणाम भारत के सभी क्षेत्रों में दिखाई देते हैं लेकिन कृषि पर इसका दुष्प्रभाव गंभीर है। कृषि की दयनीय दशा होने के कारण ही गरीबी निवारण अभियान अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहा। ज्ञातव्य हो कि भारत में 70 प्रतिशत जनसंख्या अभी भी कृषि से ही अपना भरण-पोषण करती है। लेकिन विश्व व्यापार संगठन के दबाव में भारत सरकार द्वारा समय-समय पर ऐसे निर्णय लिये गये जिनके कारण भारत की खाद्य सुरक्षा, किसानों का हित एवं राष्ट्र की सम्प्रभुता खतरे में पड़ गयी है।
किसानों में बढ़ती आत्महत्या:
उदारीकरण के एक दशक से अधिक बीत जाने के बाद देश में किसानों की आत्महत्या बड़े पैमाने पर होने लगी है। किसानों ने लोभ में आकर अधिक पैसे कमाने के चक्कर में परम्परागत खेती को छोड़कर नकदी खेती करनी शुरू कर दी। सरकार द्वारा निर्यात केन्द्रित खेती को बढ़ावा देने के कारण किसानों का लोभ दुगुना हुआ। बाजार में निरवंश बीज और महंगे उत्पादक समान से कृषि लागत कई गुना बढ़ गयी।
फसल होने के बाद बाजार में समर्थन मूल्यों का अभाव एवं घर में सामाजिक सुरक्षा के  अभाव में जी रहे किसानों के ऊपर बैंक वालों ने कृषि ऋण वापसी के लिए जब शिकंजा कसना शुरू किया तो बेचारे गरीब किसानों को आत्महत्या के अलावा कोई दूसरा मार्ग दिखाई नहीं दिया। आत्महत्या आज भी जारी है। आर्थिक विशेषज्ञ प्रधानमंत्री क्या जानें किसानों के दु:ख दर्द को। निर्लज्जता की सीमा राजनेताओं ने किस हद तक लांघ ली है, इसकी मिसाल संसद में बहस के दौरान कृषि मंत्री शरद पवार के बयान से झलकती है, जिसमें उन्होंने कहा कि यूपीए सरकार के समय एनडीए सरकार की तुलना में कम किसानों ने आत्महत्या की है।
खेती छोड़ने को मजबूर:
खेती अब किसानों के लिए आजीविका चलाने लायक रोजगार नहीं रह गई। कृषि लागत बढ़ गई है। देशी बीज पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्जा है। सरकार द्वारा किसी प्रकार की सब्सिडी या अन्य सुविधाएं विश्व व्यापार संगठन के दबाव के तहत या तो बंद कर दी गई है या कम की जा रही हैं। हताश-निराश किसान खेती को छोड़कर जीविका के अन्य साधनों की तलाश में हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकीय सर्वेक्षण का मानना है कि देश के 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़ने का मन बना चुके हैं। एक कृषि प्रधान देश के लिए इससे बढ़कर और दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि उसके यहां किसानों को उसका सम्मान नहीं मिल रहा।
व्यापार के नाम पर बेईमानी:
विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के समय किया गया यह दावा कि मुक्त व्यापार से गरीब देशों के किसानों को लाभ मिलेगा, गलत साबित हुआ है। विकासशील और गरीब देशों के लगभग 30 करोड़ किसानों की आजीविका खतरे में पड़ी है। दबाव में गरीब देशों को आयात हेतु अपना बाजार खोलना पड़ा है। सस्ती आयातित वस्तुओं से बाजार में स्थानीय उत्पादों की प्रतिस्पर्धा कमजोर पड़ गई है। विकासशील देशों के बाजार ऐसे सस्ते कृषि उत्पादों से पटे पड़े हैं।
विकसित देश अपने यहां उत्पादन लागत को कम नहीं कर पाते लेकिन अपने व्यापारी एवं निर्यातकों को इतनी अधिक मात्रा में आर्थिक सहायता उपलब्ध कराते हैं जिनके कारण उनके कृषि मूल्य विकासशील देशों की तुलना में काफी कम हो जाते हैं।
दूसरी तरफ जब विकासशील देशों के उत्पाद विदेशों में जाते हैं तो उनको नये-नये व्यापार अवरोध बनाकर वहां बिकने से रोका जाता है। व्यापार के नाम पर इस तरह की बेईमानी विकसित देशों द्वारा बड़े पैमाने पर अपनाई जा रही है। भारत जैसे विकासशील देशों के मंत्री इन विकसित देशों के सामने दास भाव से खड़े होते हैं। वे व्यापार के नाम पर होने वाली इन गलत हरकतों से देश के किसानों की रक्षा करने के लिए वे अवाज भी नहीं उठा पाते।
खाद्यान्न असुरक्षा:
डब्ल्यूटीओ के दबाव में सरकार द्वारा उदारीकरण के जो निर्णय लिये गये उससे कृषि सुधार पर ज्यादा बल दिया गया। परिणाम यह हुआ कि देश की वर्तमान एवं भविष्य के कुछ वर्षों के लिए प्रमुख खाद्यान्नों की उपलब्धता, जिसे खाद्य सुरक्षा भी कहा जाता है, पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। विशेषज्ञ एवं नौकरशाह और राजनेता मिलकर लोगों को यह बताकर भ्रमित करते हैं कि आयात के द्वारा देश की खाद्य सुरक्षा को पूरा कर लिया जाएगा। लेकिन ऐसा उदाहरणों से स्पष्ट नहीं है।
गरीब अफ्रीकी देशों में खाद्यान्न के अभाव के कारण लाखों लोग भूख से मर रहे हैं फिर भी उन्हें कोई खाद्यान्न उपलब्ध नहीं करा रहा। यदि कोई देश तैयार भी होता है तो उसकी शर्तें इतनी महंगी होती हैं कि उन पर अमल करना संभव नहीं होता। अभी तक माना जाता है कि हरित क्रांति के बाद खाद्यान्न के मामले में भारत आत्मनिर्भर देश हो गया है।
लेकिन वर्तमान सरकार द्वारा जिस प्रकार गेहूं की बड़ी मात्रा में आयात का निर्णय लिया गया है, उससे पता चलता है कि हमारी खाद्य सुरक्षा का दावा खोखला है। साथ ही इससे यह भी स्पष्ट है कि विकसित देशों का भारत के ऊपर इतना दबाव है कि हम अपने किसानों के हितों को ताक पर रखकर उनके दबाव में गेहूं का आयात कर रहे हैं। भारत जैसे देशों में गेहूं, चावल, दालें खाद्य सुरक्षा के प्रारम्भिक चक्र हैं। इसमें एक चक्र तो टूट गया है। आर्थिक दस्तावेज बताते हैं कि चावल और दलहन में भी हमारी स्थिति कमजोर है। इस प्रकार हमारी खाद्य सुरक्षा फिर खतरे में आ गई है।
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का बोलबाला:
विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से पश्चिमी देशों की विशालकाय बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कृषि उत्पादों को अपना निशाना बना रही हैं। ये कम्पनियां इतनी बड़ी हैं कि भारत जैसे कई देशों के बजट के कुल खर्चे से अधिक का इनका कारोबार होता है। इनके मुकाबले देश के छोटे उद्योग या व्यापारी या दुकानदार टिक ही नहीं सकते।
पहले तो ये कम्पनियां सस्ती दरों पर अपना माल बेचकर बाजार में प्रवेश करती हैं। बाद में छोटी-छोटी कम्पनियों को खरीद कर बाजार में अपना एकाधिकार बना लेती हैं। फिर इनके हाथ में होता है बाजार, मूल्य, उपभोक्ता एवं वहां की स्थानीय निकाय और सरकार। ये कम्पनियां सभी को खरीदने की क्षमता रखती हैं। इस देश में उदारीकरण के बाद ऐसी कई कम्पनियां आई हैं, जिन्होंने बाजार में अपना वर्चस्व स्थापित किया। उन्होंने बीज पर कब्जा किया।
इसके बाद तकनीकी पर कब्जा किया और यहीं के उत्पाद को खरीदकर उसे दुगुने-तिगुने दाम पर बेचकर भरपूर मुनाफा कमाया। अभी इन कम्पनियों ने भारत सरकार के ऊपर खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति देने के लिए दबाव बनाया हुआ है। खुदरा व्यापार में कृषि उत्पाद की बहुत सारी वस्तुएं आ गयी हैं। ये कम्पनियां इस माध्यम से भी देश के करोड़ों लोगों को रोजगार देने वाले क्षेत्र पर कब्जा करने का षडयंत्र रच चुकी है। दुर्भाग्य से देश के राजनेता हकीकत को नजरअंदाज कर उन कम्पनियों को देश में बुलाने के लिए पलक पांवड़े बिछाए रहते हैं।
पेटेंट और बौद्धिक सम्पदा:
विश्व व्यापार संगठन के सबसे विवादास्पद नियमों में बौद्धिक संपदा का कानून है जिसके दबाव में भारत को 1970 के पेटेंट कानून में विकसित देशों एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को लाभ पहुंचाने के लिए संशोधन करने पड़े हैं। ज्ञातव्य हो कि भारत का 1970 का पेटेंट कानून देश की भौगोलिक सीमा के अधीन उपलब्ध सभी प्राकृतिक संसाधनों एवं आविष्कारों की रक्षा करने में सक्षम था।
चूंकि यह कानून विदेशी कम्पनियों को यहां के बाजार का लाभ उठाने से रोकता था। इसलिए उनके दबाव में इसमें परिवर्तन किया गया। अब परिवर्तित पेटेंट कानून के तहत भारत के सामने दिन प्रतिदिन अनेक चुनौतियां आ रही हैं। पेटेंट प्राप्त बीज, अनाज, फल, दूध, दवा एवं अन्य समानों के मूल्य आसमान को छू रहे हैं। आम आदमी इसे खरीद पाने में अक्षम है।
इतना ही नहीं विदेशी कम्पनियां इस मामले में भी बेईमानी करने से बाज नहीं आतीं। भारतीय बासमती चावल, करेला, नीम जैसे प्रमुख खाद्य पदार्थो का उन्होंने बेईमानी से अपने यहां पेटेंट करा लिया था। भारत के लोगों को इसके खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी, तब जाकर इसे मुक्त कराया जा सका।
निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता प्राप्त करने के बाद भारत के किसानों, गरीबों एवं व्यापारियों की स्थिति दिन-प्रतिदिन बदतर हुई है। वे अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई में पिछड़ रहे हैं। उनके प्रति सरकार का सौतेला व्यवहार उनकी दशा को और भी दयनीय बना रहा है।
दूसरी तरफ विदेशों में ऐसे-ऐसे कानून वहां के किसानों की रक्षा के लिए बनाए जा रहे हैं, जिनके विरुद्ध आवाज बुलन्द करना समय की आवश्यकता होते हुए भी सरकारी कमजोरी के कारण सम्भव नहीं हो पा रहा है। हालात यदि ऐसे ही रहे तो किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं की घटना आगे चलकर सामूहिक आत्महत्या का स्वरूप ग्रहण कर लेगी।
साभार विद्यानंद आचार्य  

Sunday, October 28, 2012

जो माँ अपंनी कोख में बेटी को मरवाती है ,वह माँ नहीं डायन होती है


र्स्वग  से लडकी ने अपनी माँ को लिखा पत्र...!!
आप मेरे जैसे हो?ग्रुप से


मेरी प्यारी मम्मी...

तु अब दवाखाने से घर आ गई होगी..?

तेरी तबियत की मुझे चिँता होती है..

अब आपकी तबियत अच्छी होगी ..?

प्यारी मम्मी तेरी कोख से मेरा अंश रहा

तब से मुझे वात्सल्य से उभरता माँका चेहरा देखना है...

मम्मी मेरे गाल तेरे एक प्यार भरी चुम्मी के लिए तरसते हैं

मुझे मेरी जननी के हाथ मेँ फूल होकर खिलना था...

मुझे मेरी मम्मी के हाथ से मार खाकर रोना था.....

मम्मी, मुझे तेरे आगंन मेँ पाँव रखना था

और अपना घर खिल खिलाहट से भरना था....

और मम्मी,
मुझे तेरी लोरी सुनते-सुनते सोने कि तरस थी.....

कुदरत ने मुझे तेरा लडका बनाया होता तो कोई प्रोब्लम नही होती..

मम्मी,
लेकिन तुझे कुदरत का न्याय मंजुर नही था.

तुझे तो लडके कि भुख थी.

तुझे तो केवल मात्र संतान से गोद नही भरनी थी..

तेरे तो भविष्य मेँ कमाऊ लड़के कि सपंति से घर भर देना था..

मम्मी, तुझे तो मिलकत का वारिस उगाना था..

और बुढापे मेँ माँ बेटा-बहु का प्रेम,

सेवा और दु:ख मेँ आँसु पोंछने वाले का सहारा चाहिए था.

तुझे मेरी काली भाषा सुनना पसंद नही थी..

तेरे दिल मेँ कोई प्रेम नही आया?

इसिलिए मम्मी
तूने मुझ से
छुटकारा पा लिया...

मम्मी, जब डाँक्टर कैँची से
फूल जैसी बेटी को कुचल रहा था..

मेरे शरीर के एक के बाद एक अगं काटकर अलग रख रहा था..

मुझे लग रहा था कि अब माँ को दया आयेगी लेकिन
तुझे दया नही आयी...

तुझे तो दया नही आयी मम्मी!
लेकिन
भगवान को तो दया आयी.

डाक्टर के तेज धार कि कैँची से मेरा कलेजा फट गया
और
भगवान ने मुझे अपने पास बुला लिया.....

मम्मी, तु खुद लडकी है,

तो यह बात कैसे भुल गई ?
चलो वो तो सब ठीक है,
लेकिन
तेरे पेट मे ही मेरी कब्र बना दी
तुझे जरा भी दया नहि आयी ?

चिँता मत कर मम्मी,
अब जब मेरा भाई जन्म ले तब

इस लड़की की याद दिलाना...
अरे हाँ ! रक्षाबंधन के दिन मुझे याद कर के भाई को मेरा आशिर्वाद देना...!!

गिरिधर की कुंडलिया


गिरिधर की  कुंडलिया 
बिना बिचारे जो करे  , सो पीछे पछिताए। 
काम  बिगारै आपनो, जग में होत हंसाए।।
जग में होत हंसाए, चित में चैन न पावै ।
खान, पान सनमान, राग रंग मनहि न भावै।।

 कह  गिरिधर कविराय, दुख कछु टरत ना टारे।।
खटकत   है जिय माहिं, कियो  जो बिना बिचारे

दौलत पाय न कीजिय , सपने में अभिमान
चंचल जल दिन चारि के , ठाऊं न रहत निदान
ठाऊं न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै
मीठे वचन सुनाय, विनय सबही की कीजे ।। 

कह गिरिधर कविराय, अरे यह सब घट तौलत
पाहुन निसि दिन चारि, रहत सबही के दौलत।।

गुन के  गाहक सहस नर, बिनु गुन लहै न कोय ।
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग  सब भय अपावन।। 

कह गिरिधर कविराय, सुनो हो ठाकुर मन के ।
बिनु गुन लहै न कोय , सहस नर ग्राहक  गुन के  ।।

Sunday, October 7, 2012

वर्ल्ड एनिमल डे 4 अक्टूबर पर विशेष-




लुप्त होने की कगार पर है पशु पक्षियों की दुलर्भ प्रजातियां

हिसार। संदीप सिंहमार
आज के इस वैज्ञानिक युग में एक तरफ जहां चिकित्सकीय प्रणाली सुदृढ़ होने के कारण मानव जीवन खुशहाल हुआ है, वहीं दूसरी तरफ पशु पक्षियों पर इसके दुस्प्रभाव भी पड़े हैं। पशु पक्षियों को बीमारियों से बचाने के लिए दवाओं का बेरोक टोक प्रयोग होने से पूरे विश्व भर में पशु पक्षियों की संख्या लगातार घटती जा रही है। हर वर्ष 4 अक्तूबर को पूरी दुनिया में 'वल्र्ड एनिमल डेÓ भी मना लिया जाता है, लेकिन दुधारू पशुओं को छोड़कर अन्य पशु पक्षियों की घटती संख्या की ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। पक्षियों की कई प्रजातियां तो लुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी है। प्रात: काल जहां चिडिय़ा की चहचाहट सुनाई देती थी, वो आज गायब है। मरे हुए पशुओं का मांस खाने वाले गिद्ध भी कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। पशु विज्ञानी पक्षियों की प्रजाति लुप्त होने या कम होने का कारण स्वयं मानव को ही मार रहे हैं। खेतों में अधिक उत्पादन के लिए किसान कीटनाशकों का उपयोग करते हैं। दूसरी तरफ पशुओं को बीमारियों से बचाने के लिए दवाओं का प्रयोग किया जाता है। कीटनाशक युक्त फसलों से पैदा हुआ अनाज खाने व पशुओं का मांस खाने से पक्षियों की संख्या कम हो गई है।
क्या कहते हैं वैज्ञानिक-
विश्व में पशु पक्षियों की कम होती संख्या के संबंध में लाला लाजपतराय पशु चिकित्सा एवं पशु विज्ञान विश्वविद्यालय के वरिष्ठ पशु शल्य चिकित्सा वैज्ञानिक डॉ. सुखबीर ने बताया कि फसलों में कीटनाशकों के प्रयोग के कारण पक्षियों की संख्या कम होती जा रही है। इसके अलावा पशुओं के इलाज के लिए अकसर चिकित्सक डाईक्लोफेनिक सॉल्ट का प्रयोग करते हैं ऐसे पशुओं के मरने के बाद इनका मांस खाने वाले पक्षी मर जाते हैं। उन्होने बताया कि गिद्ध इसका जीता जागता उदाहरण है। 
यहां दिखाई देता है पक्षियों के प्रति प्रेम
इतना व्यस्तम जीवन होने के बाद भी जिले के गांव किरतान के आजाद हिन्द युवा क्लब के सदस्यों ने प्रधान कपूर सिंह के नेतृत्व में पशु पक्षियों को बचाए रखने की मुहिम चलाई है। क्लब के सदस्यों ने गांव के पेड़ों पर सैंकड़ो की संख्या में लकड़ी व मिट्टी के घोंसले लगाकर इस अभियान को आगे बढ़ाया है। वीरवार को क्लब के सदस्यों ने गांव के प्राथमिक स्कूल के प्रांगण में वल्र्ड एनिमल डे मनाकर पशु-पक्षियों के प्रति छात्रों को जागरूक किया। प्रधान कपूर सिंह ने बताया कि वर्ष 2007 में गांव किरतान के पास कबीर सिंह नहर के पुल पर उन्हे एक मोर दिखाई दिया। उन्होने उस मोर को दाने डाले। यहीं से उनके मन में पक्षियों के प्रति प्रेम जागृत हो गया। कपूर सिंह ने बताया कि कुछ दिनों बाद एक मोरनी भी वहां आ गई उनको लगातार दाना डालने से मोर मोरनी यहीं पर रहने लगे। प्रजनन बढ़ता गया और अथक प्रयासों से अब यहां इसी पुल के आसपास करीब 30 मोर मोरनी रहते हैं।

Wednesday, October 3, 2012

मेडिकल रिसर्च के लिए की देह दान




-बेटियों ने दिया अर्थी को कंधा
हिसार 1 अक्तूबर।
समाज में कुछ लोग ऐसे है जो इस संसार को छोडऩे के बाद भी मानवता भलाई के कार्यों के लिए जाने जाते हैं। इसी तरह शांती नगर निवासी कृष्ण कुमार की पत्नी 45 वर्षीय किरण देवी इन्सां को भी जाना जाएगा। किरण इन्सां के निधन के बाद उनके परिजनों ने उनका शरीर मेडिकल रिसर्च के लिए दान कर समाजसेवा का ऐसा अनूठा उदाहरण पेश किया है जिससे मानवता बाग-बाग हो उठी है। किरण इन्सां का शनिवार को निधन हो गया था जिसके बाद उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार परिजनों ने सोमवार सुबह उनका शव मेडिकल कॉलेज रोहिल खंड बरेली (यूपी) को सौंप दिया। किरण देवी इन्सां की शव यात्रा की शुरूआत विनती का भजन लगाकर की गई। उनके पार्थिव शरीर को उनकी बेटी कान्हा इन्सां व पूजा इन्सां ने कंधा देकर एक अनुकरणीय उदाहरण पेश किया। शव यात्रा उनके निवास स्थान शांति नगर से शुरू होकर पड़ाव चौक, जहाज पुल, आर्यनगर, राजगुरू मार्केट, परिजात चौक, पालिका बाजार से होती हुई नागौरी गेट पर पहुंची। यहां से उनकी देह एंबुलैंस के माध्यम मेडिकल कॉलेज रोहिल खंड बरेली (यूपी) भिजवा दी गई। शव यात्रा में सुभाष मुखीजा इन्सां, अतुल इन्सां, अशोक इन्सां, संजय पाहुजा, अशोक मेहता व जयलाल सहित सैंकड़ों की संख्या में साध संगत के अलावा राजनीतिक व धार्मिक संगठनों के लोग भी शामिल हुए। किरण देवी के पति कृष्ण कुमार इन्सां ने बताया कि पूजनीय हुजूूर पिता संत गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां की पावन प्रेरणा से ही उन्होने शरीर दान किया है।
कस्बावासियों ने की सराहना
शांति नगर निवासी किरण देवी इन्सां द्वारा शरीर दान किए जाने का समाचार मिलने पर कस्बावासियों ने मुक्तकंठ से उनके इस साहसिक कार्य की सराहना की।
देहदान से पहले किए नेत्रदान
इससे पहले शनिवार को उनके निधन के बाद उनकी आखें भी दान की गई। निधन की सूचना मिलने के बाद डेरा सच्चा सौदा के हिसार के नेत्रदान समिति के सेवादारों ने मौके पर पहुंचकर डा. अशोक गर्ग के नेतृत्व में गुरदीप अनेजा इन्सां ने नेत्र उत्सर्जित कर उन्हे सुरक्षित डेरा सच्चा सौदा सिरसा स्थित नेत्र बैंक में सुरक्षित पहुंचा दिये। जहां उनकी आंखे दो अंधेरी जिन्दगियों को रोशनी प्रदान करेगी।

Friday, September 28, 2012

गिरह कुश का मकबरा


खण्डहर हो चुका है गिरह कुश का मकबरा
भाईचारे के प्रतीक के रूप में जाना जाता था

हिसार, संदीप सिंहमार
ऐतिहासिक नगर हांसी की प्राचीनकाल से ही अपनी एक अलग पहचान है। इस नगर ने अपने अस्तित्व में आने के बाद से ही अनेक उतार-चढ़ाव देखें हैं। इसको जहां संतों की धरती के नाम से जाना जाता है, वहीं इतिहास की दृष्टि से भी विशेष महत्व है। हांसी में दुर्ग, बड़सी गेट, नगर की चारदीवारी, लक्खी बंजारे का मकबरा, चारकुतुब जैसी अनेक ऐतिहासिक धरोहरें बनी हैं। इन धरोहरों के कारण हांसी आज भी ऐतिहासिक नगर के रूप में जाना जाता है। इस धरती पर कुछ इमारतें धरोहरों को तो इतिहास में भी स्थान मिला, लेकिन कुछ ऐसी भी है जिनको न तो इतिहास में स्थान मिला और न ही देश के पुरातात्विक विभाग ने इन्हें अपनाया। ऐसा ही एक मकबरा गृहकशां (गिरह कुश) मकबरा भी है। इस मकबरे के बारे में हांसी नगर में बसने वाले लोग भी कम ही जानते हैं। ऐतिहासिक चारकुतुब से सिसाय पुल की तरफ स्थित कयामसर झील के दक्षिण में एक गुम्बद देखी जा सकती है। इसी गुबंद को गिरह कुश के मकबरे के रूप में जाना जाता है। इतिहास की धरोहर हांसी के अनुसार यह गुम्बद गिरह कुश नाम के एक मुस्लिम फकीर की मजार पर बनी हुई हैं। गिरह कुश के जीवन के बारे में इतिहास में जानकारी का अभाव मिलता है। केवल स्थानीय लोगों ने जो पीढ़ी दर पीढ़ी सुना उसके अनुसार गिरह कुश मध्यकाल में हुए। ये आंखों से अंधे थे व आपसी भाईचारे के प्रतीक थे। इनके पास आने वालों से बिना किसी भेदभाव के व्यवहार किया जाता था। इनके बारे में यह भी कहा जाता है कि रस्सी में कैसी भी कठिन गांठ लगी हो इनके पास लाइ जाए तो ये उसे आसानी से खोल देते थे। किन्तु इसका अर्थ यह भी लगाया जाता है कि इनके सामने समाज घर-परिवार, लौकिक-अलौकिक से संबंधित कैसा भी प्रश्न या समस्या रखी जाती तो ये अपने विवेक व ज्ञान से उसका समाधान निकाल देते थे। इसलिए इनका नाम गिरह (गांठ) कुश (खोलना) गांठ खोलने वाला रखा गया। इनके देहान्त के बाद इनका मजार यहां बनवाया गया।
हांसी पर टिकी थी सबकी नजरें 
तजकरा-ए-हांसी के अनुसार महाराजा पृथ्वीराज चौहान के समय में हांसी के दुर्ग व शहर को नए सिरे से रंगत प्रदान की। हांसी के दुर्ग से इसके अधीन अन्य अस्सी किलो (दुर्गों) का नियंत्रण होता था। इस दुर्ग में उस समय के श्रेष्ठ शस्त्रों से लैस सुसंगठित राजपूत सैना तैयार रहती थी। महाराज पृथ्वीराज चौहान को हांसी दुर्ग पर नाज था। दुश्मन सदा इससे भय खाते थे। इस सब के बाद भी कुछ तुर्कों की जनर हांसी व दुर्ग को पाने के लिए टिकी रहती थी। ख्वाजा हसीम उलद्दीन अपने चौबीस हजार लड़ाकू सैनिकों को साथ लेकर हांसी दुर्ग पर आ धमका किंतु बहादुर राजपूत सेना से मुंह की खाकर अपने सैनिकों सहित मारा गया। इनकी कब्रें बड़सी दरवाजे के बाहर 1947 ई. से पहले जहां ताजिये दफन होते थे वहां बनी थी। यह स्थान अब आवासीय, व्यापारिक प्रतिष्ठान व कुछ भाग विद्यालय के खेल के मैदान के रूप में प्रयोग हो रहा है। ताजिये दफन का एक अन्य स्थान तोशाम पुल है, इसे करबला पुल भी कहा जाता है। इसके स्थान पर आजकल ट्रक यूनियन है। इसके बाद ख्वाजा आसमान गिरा, गृहकशां, शामा काजी जैसे करामाती औलिये (धर्म के पथ प्रदर्शक) अपने लश्कर को साथ लेकर हांसी की ओर बढ़े, किन्तु ये भी अपने अरमान पूरे न कर सके और राजपूत सेना के हाथों मारे गए। इनकी कब्रें क्यामसर तालाब के पश्चिम में थी। इन कब्रों को 1983 ई. तक देखा जा सकता था किंतु इसके बाद इन्हें तोड़कर खेत का रूप दे दिया गया।
नष्ट हो चुकी है मजार
गिरहकुश की मजार पर एक विशाल गुम्बद बनाया गया। यह स्थान क्यामसर झील के दक्षिण में स्थित हैं। किंतु ये गुम्बद अब खंडहर अवस्था में तबदील हो गए हैं वहीं मजार तो नष्ट हो चुकी हैं। सन् 1905 में हाजी अजीम उल्ला ने इस गुम्बद की मुरम्मत करवाई थी। 1913 में पीर फजल करीम साहिब माफीदार ने भी इसकी काया पलट की थी। गिरहकुश का मकबरा मुगल काल से पहले का बना हुआ प्रतीत होता है क्योंकि यह छोटी ईंटों से बना हुआ हैं। इसकी दीवारों पर चूना मिश्रित मिश्रण का लेप है। हांसी में अपने काल का यह एकमात्र मकबरा है। अब इस मकबरे की छत व दीवारों के नीचे का भाग खंडहर हो चुका है। 90 के दशक तक यह मकबरा सुनसान स्थान पर था और इसके चारों तरफ घने जंगल थे। अब इस स्थान के तीन तरफ आवास बन गए हैं। मकबरे के अंदर की मजार गायब है। इसके आसपास कुछ खानाबदोश जाति (ढंईया) के लोगों ने अपना आवास बना लिया है। मकबरे की छत में बड़े-बड़े छेद हो चुके हैं, दीवारों के नीचे का भाग भी जर्जर हो चुका है। मकबरे की खंडहर अवस्था की तरफ किसी का ध्यान भी नहीं हैं।
मकबरे के पास होती थी पंचायत 
बताया जाता है कि जहां गिरहकुश का मकबरा बना हुआ है उसी के पास ढंईया जाति के लोग किसी भी झगड़े के निपटारे के लिए पंचायत किया करते थे। यहां आयोजित की जाने वाली पंचायत में आपसी भाईचारे से बड़े से बड़े मामलों का निपटारा कर लिया जाता था। मकबरे के पास पंचायत के बारे में बताया जाता है कि मुस्लिम फकीर गिरहकुश स्वयं भाईचारे के प्रतीक के रूप में जाने जाते थे। इसी कारण सौहार्दपूर्ण तरीके से झगड़ों के निपटारे के लिए ही इसके समीप पंचायत की जाती थी। लेकिन समय बदलने के साथ-साथ लोगों के वे विचार भी बदल गए। अब यहां किसी भी प्रकार की पंचायत आयोजित नहीं की जाती है।
 

पात्र अध्यापकों का सपना टूट गया ,पात्रता परीक्षा पास करने के बाद भी रहेंगे साक्षात्कार से वंचित


शॉर्ट लिस्टिंग से खफा हुए पात्र अध्यापक
30 को रोहतक में बुलाई मीटिंग

हिसार। संदीप सिंहमार 
हरियाणा स्कूल शिक्षक भर्ती बोर्ड द्वारा पीजीटी भर्ती प्रक्रिया में हिन्दी, राजनीतिक विज्ञान, इतिहास व कॉमर्स विषयों के पदों के लिए की गई शॉर्ट लिस्टिंग से खफा पात्र अध्यापक संघ ने रविवार 30 सितंबर को रोहतक की छोटूराम धर्मशाला में मीटिंग बुलाई है। इस मीटिंग में आगामी रणनीति तैयार की जाएगी। शॉर्ट लिस्टिंग किए जाने से पात्र अध्यापकों में भारी रोष है। संघ के प्रदेशाध्यक्ष राजेन्द्र शर्मा ने कहा कि भर्ती प्रक्रिया में बोर्ड ने शॉर्ट लिस्टिंग का जो पैमाना अपनाया है, वह ठीक नहीं है। इससे हजारों की संख्या में बेरोजगारों का सपना लटक गया है। उन्होने कहा कि यदि बोर्ड द्वारा सक्रीनिंग या टैस्ट लेकर छंटनी की जाती तो यह बेहतर तरीका हो सकता था। इससे सभी अभ्यर्थियों को बराबर का मौका मिल सकता था। शर्मा ने कहा कि शीघ्र ही शार्ट लिस्टिंग के मामले में मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा व भर्ती बोर्ड के चेयरमैन से मिलकर समस्या के समाधान की अपील की जाएगी। फिर भी यदि समस्या का समाधान ना हुआ तो प्रदेश स्तरीय आंदोलन भी किया जा सकता है। पात्र अध्यापक संघ की महिला विंग की अध्यक्षा अर्चना सुहासिनी ने कहा कि शॉर्ट लिस्टिंग करके पात्रता परीक्षा पास करने वाले बेरोजगार अध्यापकों के साथ धोखा किया गया है। उन्होने कहा कि भर्ती बोर्ड द्वारा पीजीटी भर्ती प्रक्रिया में तरह-तरह की नीतियां बनाई जा रही है। सुहासिनी ने कहा कि अंगे्रजी विषय की तरह हिन्दी, राजनीति विज्ञान, इतिहास व कॉमर्स के सभी अभ्यार्थियों को साक्षात्कार के लिए बुलाया जाना चाहिए। सुहासिनी ने कहा कि पीजीटी भर्ती प्रक्रिया में सभी पात्र अध्यापकों को मौका मिलना चाहिए। उन्होने कहा कि बोर्ड के इस निर्णय से गलत तरीके से बाहर के विश्वविद्यालयों से डिग्री हासिल करने वाले उम्मीदवारों को मौका मिलेगा जोकि पात्र अध्यापकों के साथ सरासर अन्याय है।

शॉर्ट लिस्टिंग से खफा हुए पात्र अध्यापक 30 को रोहतक में बुलाई मीटिंग




 हिसार/चंडीगढ़
हरियाणा स्कूल शिक्षक भर्ती बोर्ड द्वारा पीजीटी भर्ती प्रक्रिया में हिन्दी, राजनीतिक विज्ञान, इतिहास व कॉमर्स विषयों के पदों के लिए की गई शॉर्ट लिस्टिंग से खफा पात्र अध्यापक संघ ने रविवार 30 सितंबर को रोहतक की छोटूराम धर्मशाला में मीटिंग बुलाई है। इस मीटिंग में आगामी रणनीति तैयार की जाएगी। शॉर्ट लिस्टिंग किए जाने से पात्र अध्यापकों में भारी रोष है। संघ के प्रदेशाध्यक्ष राजेन्द्र शर्मा ने कहा कि भर्ती प्रक्रिया में बोर्ड ने शॉर्ट लिस्टिंग का जो पैमाना अपनाया है, वह ठीक नहीं है। इससे हजारों की संख्या में बेरोजगारों का सपना लटक गया है। उन्होने कहा कि यदि बोर्ड द्वारा सक्रीनिंग या टैस्ट लेकर छंटनी की जाती तो यह बेहतर तरीका हो सकता था। इससे सभी अभ्यर्थियों को बराबर का मौका मिल सकता था। शर्मा ने कहा कि शीघ्र ही शार्ट लिस्टिंग के मामले में मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा व भर्ती बोर्ड के चेयरमैन से मिलकर समस्या के समाधान की अपील की जाएगी। फिर भी यदि समस्या का समाधान ना हुआ तो प्रदेश स्तरीय आंदोलन भी किया जा सकता है। पात्र अध्यापक संघ की महिला विंग की अध्यक्षा अर्चना सुहासिनी ने कहा कि शॉर्ट लिस्टिंग करके पात्रता परीक्षा पास करने वाले बेरोजगार अध्यापकों के साथ धोखा किया गया है। उन्होने कहा कि भर्ती बोर्ड द्वारा पीजीटी भर्ती प्रक्रिया में तरह-तरह की नीतियां बनाई जा रही है। सुहासिनी ने कहा कि अंगे्रजी विषय की तरह हिन्दी, राजनीति विज्ञान, इतिहास व कॉमर्स के सभी अभ्यार्थियों को साक्षात्कार के लिए बुलाया जाना चाहिए। सुहासिनी ने कहा कि पीजीटी भर्ती प्रक्रिया में सभी पात्र अध्यापकों को मौका मिलना चाहिए। उन्होने कहा कि बोर्ड के इस निर्णय से गलत तरीके से बाहर के विश्वविद्यालयों से डिग्री हासिल करने वाले उम्मीदवारों को मौका मिलेगा जोकि पात्र अध्यापकों के साथ सरासर अन्याय है।

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