सुभाषचन्द्र बोस जो नेताजी नाम से भी जाने जाते हैं,
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये, उन्होंने
जापान के सहयोग से
आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया
जय हिन्द का नारा,
भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया हैं। 1944 में अमेरिकी पत्रकार
लुई फिशर से बात करते हुए,
महात्मा गाँधी ने नेताजी को
देशभक्तों का देशभक्त कहा था। नेताजी का योगदान और प्रभाव इतना बडा था कि कहा जाता हैं कि अगर उस समय नेताजी
भारत में उपस्थित रहते, तो शायद
भारत एक संघ राष्ट्र बना रहता और
भारत का विभाजन न होता। स्वयं
गाँधीजी ने इस बात को स्वीकार किया था।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म
23 जनवरी,
1897 को
उड़ीसा के
कटक शहर में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस
कटक शहर के मशहूर वकील थे। पहले वे सरकारी वकील थे, मगर बाद में उन्होंने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। उन्होंने
कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया था और वे
बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें
रायबहादुर का खिताब दिया था। प्रभावती देवी के पिता का नाम गंगानारायण दत्त था। दत्त परिवार को
कोलकाता
का एक कुलीन परिवार माना जाता था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर
14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाषचंद्र उनकी नौवीं
संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव
शरदचंद्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थें। सुभाष
उन्हें मेजदा कहते थें। शरदबाबू की पत्नी का नाम विभावती था।
स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश और कार्य
कोलकाता के स्वतंत्रता सेनानी,
देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष
दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे।
इंग्लैंड से उन्होंने
दासबाबू को खत लिखकर, उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की।
रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह के अनुसार,
भारत वापस आने पर वे सर्वप्रथम
मुम्बई गये और
महात्मा गाँधी से मिले।
मुम्बई में
गाँधीजी मणिभवन में निवास करते थे। वहाँ,
20 जुलाई,
1921 को
महात्मा गाँधी और सुभाषचंद्र बोस के बीच पहली बार मुलाकात हुई।
गाँधीजी ने भी उन्हें
कोलकाता जाकर
दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाषबाबू
कोलकाता आ गए और
दासबाबू से मिले।
दासबाबू उन्हें देखकर बहुत खुश हुए। उन दिनों
गाँधीजी अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ
असहयोग आंदोलन चलाया था।
दासबाबू इस आंदोलन का
बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए
1922 में
दासबाबू ने
कांग्रेस के अंतर्गत
स्वराज पार्टी की स्थापना की।
विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए,
कोलकाता महापालिका का चुनाव
स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता। स्वयं
दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में
कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल डाला।
कोलकाता के रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें
भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।बहुत जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए।
पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने
कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की
इंडिपेंडन्स लिग शुरू की।
1928 में जब
साइमन कमीशन भारत आया, तब
कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए।
कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया।
साइमन कमीशन को जवाब देने के लिए,
कांग्रेस ने
भारत का भावी संविधान बनाने का काम आठ सदस्यीय आयोग को सौंपा।
पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने
नेहरू रिपोर्ट पेश की।
1928 में
कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन
पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में
कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश धारण करके
पंडित मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी।
गाँधीजी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से
डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। लेकिन सुभाषबाबू और
पंडित जवाहरलाल नेहरू को
पूर्ण स्वराज की मांग से पीछे हटना मंजूर नहीं था। अंत में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को
डोमिनियन स्टेटस देने के लिए, एक साल का वक्त दिया जाए। अगर एक साल में अंग्रेज़ सरकार ने यह मॉंग पूरी नहीं की, तो
कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। अंग्रेज़ सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की। इसलिए
1930 में जब
कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन
पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में
लाहौर में हुआ, तब ऐसा तय किया गया कि
26 जनवरी का दिन
स्वतंत्रता दिन के रूप में मनाया जाएगा।
26 जनवरी,
1931 के दिन
कोलकाता
में राष्ट्रध्वज फैलाकर सुभाषबाबू एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व कर रहे थे।
तब पुलिस ने उनपर लाठी चलायी और उन्हे घायल कर दिया। जब सुभाषबाबू जेल में
थे, तब
गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझोता किया और सब कैदीयों को रिहा किया गया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने
सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारकों को रिहा करने से इन्कार कर दिया।
भगत सिंह की फॉंसी माफ कराने के लिए,
गाँधीजी ने सरकार से बात की। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर
गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझोता तोड दे। लेकिन
गाँधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोडने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अडी रही और
भगत सिंह और उनके साथियों को फॉंसी दी गयी।
भगत सिंह को न बचा पाने पर, सुभाषबाबू
गाँधीजी और
कांग्रेस के तरिकों से बहुत नाराज हो गए।
कारावास
अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल ग्यारह बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 16
जुलाई 1921 में छह महीने का कारावास हुआ।
1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी
कोलकाता
के पुलिस अधिक्षक चार्लस टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से
अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फॉंसी की सजा दी
गयी। गोपिनाथ को फॉंसी होने के बाद सुभाषबाबू जोर से रोये। उन्होने गोपिनाथ
का शव मॉंगकर उसका अंत्यसंस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष
किया कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों से न ही संबंध रखते हैं, बल्कि वे
ही उन क्रांतिकारकों का स्फूर्तीस्थान हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने
सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित
कालखंड के लिए
म्यानमार के
मंडाले कारागृह में बंदी बनाया।
5 नवंबर,
1925 के दिन,
देशबंधू चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसें। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की खबर
मंडाले कारागृह में रेडियो पर सुनी।
मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें
तपेदिक
हो गया। परंतू अंग्रेज़ सरकार ने फिर भी उन्हें रिहा करने से इन्कार कर
दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे इलाज के लिए
यूरोप चले जाए। लेकिन सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि इलाज के बाद वे
भारत
कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। आखिर में
परिस्थिती इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे।
अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह
में मृत्यू हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू इलाज
के लिए
डलहौजी चले गए।
1930 में सुभाषबाबू कारावास में थे। तब उन्हे
कोलकाता के महापौर चुना गया। इसलिए सरकार उन्हे रिहा करने पर मजबूर हो गयी।
1932 में सुभाषबाबू को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हे
अलमोडा जेल में रखा गया।
अलमोडा जेल में उनकी तबियत फिर से नादुरूस्त हो गयी। वैद्यकीय सलाह पर सुभाषबाबू इस बार इलाज के लिए
यूरोप जाने को राजी हो गए।
यूरोप प्रवास
1933 से
1936 तक सुभाषबाबू
यूरोप में रहे।
यूरोप में सुभाषबाबू ने अपनी सेहत का ख्याल रखते समय, अपना कार्य जारी रखा। वहाँ वे
इटली के नेता
मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें,
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया।
आयरलैंड के नेता
डी वॅलेरा सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।
जब सुभाषबाबू
यूरोप में थे, तब
पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का
ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने वहाँ जाकर
पंडित जवाहरलाल नेहरू को सांत्वना दिया।बाद में सुभाषबाबू
यूरोप में
विठ्ठल भाई पटेल से मिले।
विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाषबाबू ने पटेल-बोस विश्लेषण प्रसिद्ध किया, जिस में उन दोनों ने
गाँधीजी के नेतृत्व की बहुत गहरी निंदा की। बाद में
विठ्ठल भाई पटेल बीमार पड गए, तब सुभाषबाबू ने उनकी बहुत सेवा की। मगर
विठ्ठल भाई पटेल का निधन हो गया।
विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी करोडों की संपत्ती सुभाषबाबू के नाम कर दी। मगर उनके निधन के पश्चात, उनके भाई
सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया और उसपर अदालत में मुकदमा चलाया। यह मुकदमा जितकर,
सरदार वल्लभ भाई पटेल ने वह संपत्ती,
गाँधीजी के हरिजन सेवा कार्य को भेट दे दी।
1934 में सुभाषबाबू को उनके पिता मृत्त्यूशय्या पर होने की खबर मिली। इसलिए वे हवाई जहाज से
कराची होकर
कोलकाता लौटे।
कराची में उन्हे पता चला की उनके पिता की मृत्त्यू हो चुकी थी।
कोलकाता पहुँचतेही, अंग्रेज सरकार ने उन्हे गिरफ्तार कर दिया और कई दिन जेल में रखकर, वापस
यूरोप भेज दिया।
1938 में
कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन
हरिपुरा में होने का तय हुआ था। इस अधिवेशन से पहले
गाँधीजी ने
कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना। यह
कांग्रेस का ५१वा अधिवेशन था। इसलिए
कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषबाबू का स्वागत 51 बैलों ने खींचे हुए रथ में किया गया।इस अधिवेशन में सुभाषबाबू का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी
भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो।अपने अध्यक्षपद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने
योजना आयोग की स्थापना की।
पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे। सुभाषबाबू ने
बेंगलोर में मशहूर वैज्ञानिक
सर विश्वेश्वरैय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद भी ली।
1937 में
जापान ने
चीन पर आक्रमण किया। सुभाषबाबू की अध्यक्षता में
कांग्रेस ने
चिनी जनता की सहायता के लिए,
डॉ द्वारकानाथ कोटणीस के नेतृत्व में वैद्यकीय पथक भेजने का निर्णय लिया। आगे चलकर जब सुभाषबाबू ने
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में
जापान से सहयोग किया, तब कई लोग उन्हे
जापान के हस्तक और
फॅसिस्ट कहने लगे। मगर इस घटना से यह सिद्ध होता हैं कि सुभाषबाबू न तो
जापान के हस्तक थे, न ही वे
फॅसिस्ट विचारधारा से सहमत थे।
कांग्रेस के अध्यक्षपद से इस्तीफा
1938 में
गाँधीजी ने
कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, मगर
गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। इसी दौरान
युरोप में
द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि
इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर,
भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने अपने अध्यक्षपद की कारकीर्द में इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था।
गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे।
1939 में जब नया
कांग्रेस
अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ती
अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसी कोई दुसरी
व्यक्ती सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद
कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। लेकिन
गाँधीजी अब उन्हे अध्यक्षपद से हटाना चाहते थे।
गाँधीजी ने अध्यक्षपद के लिए
पट्टाभी सितारमैय्या को चुना। कविवर्य
रविंद्रनाथ ठाकूर ने
गाँधीजी को खत लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने की विनंती की।
प्रफुल्लचंद्र राय और
मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। लेकिन
गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझोता न हो पाने पर, बहुत सालो के बाद,
कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए चुनाव लडा गया।सब समझते थे कि जब
महात्मा गाँधी ने
पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया हैं, तब वे चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। लेकिन वास्तव में, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिल गए और
पट्टाभी सितारमैय्या को 1377 मत मिलें।
गाँधीजी के विरोध के बावजूद सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए।मगर चुनाव के निकाल के साथ बात खत्म नहीं हुई।
गाँधीजी ने
पट्टाभी सितारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर, अपने साथीयों से कह दिया कि अगर वें सुभाषबाबू के तरिकों से सहमत नहीं हैं, तो वें
कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद
कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया।
पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहें और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ बनें रहें।
1939 का वार्षिक
कांग्रेस अधिवेशन
त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज बुखार से इतने बीमार पड गए थे, कि उन्हे स्ट्रेचर पर लेटकर अधिवेशन में आना पडा।
गाँधीजी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे।
गाँधीजी के साथीयों ने सुभाषबाबू से बिल्कुल सहकार्य नहीं दिया।अधिवेशन के बाद सुभाषबाबू ने समझोते के लिए बहुत कोशिश की। लेकिन
गाँधीजी और उनके साथीयों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिती ऐसी बन गयी कि सुभाषबाबू कुछ काम ही न कर पाए। आखिर में तंग आकर,
29 अप्रैल,
1939 को सुभाषबाबू ने
कांग्रेस अध्यक्षपद से इस्तीफा दे दिया।
फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना
3 मई,
1939 के दिन, सुभाषबाबू नें
कांग्रेस के अंतर्गत
फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद, सुभाषबाबू को
कांग्रेस से निकाला गया। बाद में
फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी।
द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही,
फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए, जनजागृती शुरू की। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित
फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को कैद कर दिया।
द्वितीय विश्वयुद्ध
के दौरान सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हे
रिहा करने पर मजबूर करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण उपोषण शुरू कर
दिया। तब सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। मगर अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती
थी, कि सुभाषबाबू युद्ध के दौरान मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हे उनके ही
घर में नजरकैद कर के रखा।
नजरकैद से पलायन
नजरकैद से निकलने के लिए सुभाषबाबू ने एक योजना बनायी।
16 जनवरी,
1941
को वे पुलिस को चकमा देने के लिये एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन का भेष
धरकर, अपने घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाडी
से
कोलकाता से दूर, गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेल्वे स्टेशन से फ्रंटियर मेल पकडकर वे
पेशावर पहुँचे।
पेशावर में उन्हे
फॉरवर्ड ब्लॉक
के एक सहकारी, मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर शाह ने उनकी मुलाकात,
कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से कर दी। भगतराम तलवार के साथ में,
सुभाषबाबू
पेशावर से
अफ़्ग़ानिस्तान की राजधानी
काबुल
की ओर निकल पडे। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बने थे और
सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा बने थे। पहाडियों में पैदल चलते हुए
उन्होने यह सफर पूरा किया।
काबुल में सुभाषबाबू दो महिनों तक उत्तमचंद मल्होत्रा नामक एक
भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले
रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इस में नाकामयाब रहने पर, उन्होने
जर्मन और
इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने की कोशिश की।
इटालियन दूतावास में उनकी कोशिश सफल रही।
जर्मन और
इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। आखिर में ओर्लांदो मात्सुता नामक
इटालियन व्यक्ति बनकर, सुभाषबाबू
काबुल से रेल्वे से निकलकर
रूस की राजधानी
मॉस्को होकर
जर्मनी की राजधानी
बर्लिन पहुँचे।
नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकात
बर्लिन में सुभाषबाबू सर्वप्रथम
रिबेनट्रोप जैसे
जर्मनी के अन्य नेताओ से मिले। उन्होने
जर्मनी में
भारतीय स्वतंत्रता संगठन और
आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी दौरान सुभाषबाबू, नेताजी नाम से जाने जाने लगे।
जर्मन सरकार के एक मंत्री
एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।आखिर
29 मई,
1942 के दिन, सुभाषबाबू
जर्मनी के सर्वोच्च नेता
एडॉल्फ हिटलर से मिले। लेकिन
हिटलर को
भारत के विषय में विशेष रूची नहीं थी। उन्होने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।कई साल पहले
हिटलर ने
माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होने
भारत और
भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने
हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की।
हिटलर ने अपने किये पर माँफी माँगी और
माईन काम्फ की अगली आवृत्ती से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।अंत में, सुभाषबाबू को पता चला कि
हिटलर और
जर्मनी से उन्हे कुछ और नहीं मिलनेवाला हैं। इसलिए
8 मार्च,
1943 के दिन,
जर्मनी के
कील बंदर में, वे अपने साथी अबिद हसन सफरानी के साथ, एक
जर्मन पनदुब्बी में बैठकर, पूर्व आशिया की तरफ निकल गए। यह
जर्मन पनदुब्बी उन्हे
हिंदी महासागर में
मादागास्कर के किनारे तक लेकर आई। वहाँ वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर
जापानी पनदुब्बी तक पहुँच गए।
द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में, किसी भी दो देशों की नौसेनाओ की पनदुब्बीयों के दौरान, नागरिको की यह एकमात्र बदली हुई थी। यह
जापानी पनदुब्बी उन्हे
इंडोनेशिया के
पादांग बंदर तक लेकर आई।
पूर्व एशिया में अभियान
पूर्व
एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम, वयोवृद्ध क्रांतिकारी
रासबिहारी बोस से
भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला।
सिंगापुर के
फरेर पार्क में
रासबिहारी बोस ने
भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया।
जापान के प्रधानमंत्री
जनरल हिदेकी तोजो ने, नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, उन्हे सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात, नेताजी ने
जापान की संसद
डायट के सामने भाषण किया।
21 अक्तूबर,
1943 के दिन, नेताजी ने
सिंगापुर
में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना
की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस
सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी
आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए।
आज़ाद हिन्द फौज में
जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे हुए
भारतीय युद्धबंदियोंको भर्ती किया गया।
आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतो के लिए
झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण करके वहाँ स्थायिक
भारतीय लोगों से
आज़ाद हिन्द फौज में भरती होने का और उसे आर्थिक मदद करने का आवाहन किया। उन्होने अपने आवाहन में संदेश दिया
तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान
आज़ाद हिन्द फौज ने
जापानी सेना के सहयोग से
भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने
चलो दिल्ली का नारा दिया। दोनो फौजो ने अंग्रेजों से
अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। यह द्वीप अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद के अनुशासन में रहें। नेताजी ने इन द्वीपों का
शहीद और स्वराज द्वीप ऐसा नामकरण किया। दोनो फौजो ने मिलकर
इंफाल और
कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पगडा भारी पडा और दोनो फौजो को पिछे हटना पडा।
जब
आज़ाद हिन्द फौज पिछे हट रही थी, तब
जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परंतु नेताजी ने
झाँसी की रानी रेजिमेंट की लडकियों के साथ सैकडो मिल चलते जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा।
6 जुलाई,
1944 को
आजाद हिंद रेडिओ पर अपने भाषण के माध्यम से
गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने
जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा
आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्येश्य के बारे में बताया। इस भाषण के दौरान, नेताजी ने
गाँधीजी को राष्ट्रपिता बुलाकर अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा । इस प्रकार, नेताजी ने
गाँधीजी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता बुलाया।
लापता होना और मृत्यु की खबर;लकिन रहस्य बरकरार
द्वितीय विश्वयुद्ध में
जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होने
रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था।
18 अगस्त,
1945
को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे
लापता हो गए। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये।
23 अगस्त,
1945 को
जापान की
दोमेई खबर संस्था ने दुनिया को खबर दी, कि
18 अगस्त के दिन, नेताजी का हवाई जहाज
ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ले ली थी।दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज में नेताजी के साथ उनके सहकारी कर्नल हबिबूर
रहमान थे। उन्होने नेताजी को बचाने का निश्च्हय किया, लेकिन वे कामयाब नहीं
रहे। फिर नेताजी की अस्थियाँ
जापान की
राजधानी तोकियो में
रेनकोजी नामक
बौद्ध मंदिर में रखी गयी।स्वतंत्रता के पश्चात,
भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए,
1956 और
1977 में दो बार एक आयोग को नियुक्त किया। दोनो बार यह नतिजा निकला की नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। लेकिन जिस
ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी, उस
ताइवान देश की सरकार से तो, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।
1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया।
2005 में
ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि
1945 में
ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था।
2005 में मुखर्जी आयोग ने
भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन
भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
18 अगस्त,
1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह
भारत के इतिहास का सबसे बडा
अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।देश के अलग-अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा
करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर
छत्तीसगढ़
के रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे हुये हैं लेकिन इनमें से
सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चंद्र बोस के होने
को लेकर मामला राज्य सरकार तक गया। हालांकि राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप
योग्य नहीं मानते हुये मामले की फाइल बंद कर दी।
विकिपीडिया से साभार