Thursday, June 30, 2011



ईब मारै स फेर रोवेगी बंजारे की ढाला....
- किस्से व कहानियों का गवाह है लक्खी बंजारे का मकबरा
हिसार (संदीप सिंहमार)। कभी देश के मुख्य नगरों में शुमार रहे ऐतिहासिक नगर हांसी में कई स्थानों पर ऐसी धरोहरें हैं जिन्हें देखकर कोई भी आगंतुक सोचने के लिए मजबूर हो जाता है। धरोहरों की निर्माण कला का तो बेजोड़ नमूना दिखाई देता है। हांसी जहां मुगलकाल, हिन्दू सम्राटों व गुलामी के दिनों में ब्रिटीश हुकूमत के सरदारों के लिए केंद्र रहा वहीं इस धरती को सूफी संतों की धरती के नाम से भी जाना जाता है। हांसी शहर के दक्षिण में आज भी चार सूफी संतों के नाम से बनी दरगाह चारकुतुब देखी जा सकती है। मुस्लिम समाज के लिए चारकुतुब दरगाह का अपना विशेष महत्व है। इसी दरगाह के दक्षिण प्रांगण में बने कब्रिस्तान में एक विशाल मकबरा बना हुआ है। यह मकबरा बंजारा जाति में मशहूर रहे लक्खी बंजारे के मकबरे के नाम से जाना जाता है। इस ऐतिहासिक मकबरे के बारे में शहर के प्रमुख लोगों के साथ-साथ आसपास रहने वाले लोग भी नहीं जानते। इतिहास में भी हांसी में स्थित पृथ्वीराज चौहान के दुर्ग व बड़सी गेट को जो स्थान मिला वह स्थान लक्खी बंजारे के मकबरे को नहीं मिल सका।
आज गंदगी व अतिक्रमण का शिकार हुआ मकबरा
कब्रिस्तान के प्रांगण में जहां मकबरा है वहां आज गंदगी का आलम छाया हुआ है। इर्द-गिर्द के क्षेत्र में स्थानीय लोगों द्वारा कब्जे कर लिए गए हैं। मकबरे के करीब 100 मीटर की परिधि में भी अवैध निर्माण दिखाई दे रहे हैं। कभी शान से बनवाया गया यह मकबरा अब अपनी शान बचाने के लिए इंतजार कर रहा है। दिन-प्रतिदिन बढ़ते अतिक्रमण व गंदगी से मकबरे का क्षेत्र अब दूर से दिखाई ही नहीं देता है।
बड़सी गेट से मिलता है मकबरे का स्वरूप
कहा जाता है कि इस मकबरे को लक्खी नामक बंजारे ने बनवाया था। इसके निर्माण में लाख रंग के पत्थरों का प्रयोग किया गया है। निर्माण की दृष्टि से इसका स्वरूप हांसी में अलाऊदीन खिलजी द्वारा बनवाए गए ऐतिहासिक बड़सी दरवाजे से मिलता है। मकबरे के अंदर जाने के लिए चार गेट बने हुए हैं। गेटों की रूपरेखा बड़सी दरवाजे के समान बनी हुई है। इसी की तरह पत्थरों को उकेर कर इसे बनाया गया है।
मकबरे में दफनाया गया था बंजारे का शव
कहा जाता है कि लक्खी बंजारा एक धनवान चरवाहा था, उसके पास एक लाख भेड़-बकरियां हुआ करती थी। लक्खी जन्म से हिंदू था लेकिन दरगाह चारकुतुब के पहले कुतुब शेख जमालउद्दीन साहब के प्रति अपार श्रद्धा भाव होने के कारण उन्होंने मुस्लिम धर्म अपना लिया था। लक्खी ने कुतुब शेख जमालउद्दीन साहब को अपना गुरू भी माना। इतिहास की धरोहर हांसी के अनुसार लक्खी बंजारे ने एक बार अपने गुरू को कहा कि आपके इन्तकाल(देहांत) के बाद आपके शरीर को इस मकबरे में दफनाया जाना चाहिए, ऐसी मेरी इच्छा है। इस बात पर गुरूजी ने कहा कि यह तो खुदा पर निर्भर है कि मकबरा किस के लिए बना है। बताया जाता है कि लक्खी बंजारे का देहांत अपने गुरू से पहले हो गया और इस मकबरे में उसके शव को दफनाया गया। आज भी मकबरे में बंजारे की मजार देखी जा सकती है। यह मजार सफेद संगमरमर के पत्थरों से बनाई गई है। पहले मकबरे के दरवाजों को ईंटों से ढककर रखा जाता था लेकिन आजकल इसके सभी दरवाजे खुले हैं।
पंडित लख्मीचंद व मांगेराम की रचनाओं में है लक्खी बंजारे का जिक्र
लक्खी बंजारे की कहानी कोई नई कहानी नहीं है। देश के हर हिस्से में इस बंजारे के किस्से सुने जा सकते हैं। देश के प्रत्येक राज्यों की संस्कृति के अनुसार उनके किस्से भी अलग-अलग तरह के घड़े गए हैं। हरियाणा भी इससे अछूता नहीं है। हरियाणवी रागनियों व लोकगीतों में अपने समय में नाम कमाने वाले पंडित लख्मीचंद व मांगेराम ने भी अपनी काव्य रचनाओं में लक्खी बंजारे का प्रमुखता से जिक्र किया है। हरियाणवीं लोक गीतों 'हम सभी राजपूत जात के, नहीं मरण का टाला, ईब मारै स फेर रोवेगी बंजारे की ढालाÓ व 'कुता मार बंजारा रोया या वाए कहाणी बणगी, मै काला था तूं भूरी, मेरी क्यूकर रानी बणगीÓ आदि में लक्खी बंजारे का जिक्र सुना जा सकता है।
कुता मार बंजारा रोया
लोककथाओं के अनुसार लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) शहर में लक्खी नामक एक साहुकार बंजारा रहता था। वह अपने समय में कभी 352 सरकियों का मालिक था। समय गुजरता गया और लक्खी बंजारे का सब कुछ लूट गया, यहां तक की उसके परिवार के सदस्य भी नहीं बचे। लक्खी बंजारे के पास बचा तो सिर्फ उसका वफादार कुता। कहते हैं कि बंजारा अपने कुत्ते को साथ लेकर चलता हुआ आगरा शहर तक पहुंच गया। इससे पहले गरीब बेहाल हुए बंजारे पर काफी कर्ज चढ़ गया। एक किंवदंती के अनुसार यहां आकर लक्खी बंजारे ने एक साहुकार से कर्ज लेना चाहा। साहुकार ने कर्ज देने के बदले कुछ गिरवी रखने की बात कही। साहुकार की इस बात पर लक्खी बंजारे ने कर्ज के बदले में अपने वफादार कुत्ते को साहुकार के पास गिरवी रख दिया। बंजारे ने अपने कुत्ते को कर्ज न चुकाने तक साहुकार के पास रहने के लिए कहा। बताया जाता है कि साहुकार के घर एक रात को डकैती पड़ जाती है। चोर जिस समय साहुकार के घर में चोरी कर रहे थे वह कुत्ता गली में खड़ा यह सारा दृश्य देखता रहा। जब चोर धन लेकर चले तो कुत्ता पीछे-पीछे चलता रहा। चोरों ने धन गांव से बाहर एक तालाब के किनारे दबा दिया। कुत्ता यह सब देखकर वापिस साहुकार के दरवाजे पर आ गया। सुबह जब साहुकार के घर चोरी होने के कारण हड़कंप मचा तो वह कुत्ता बार-बार अपने साहुकार की धोती को पकड़कर खिंचने लगा। उसी दौरान एक वृद्ध ने कहा कि यह कुत्ता इशारों के द्वारा कुछ कह रहा है। बताते हैं कि कुत्ता आगे-आगे चलता रहा और सभी लोग उसके पीछे चलने लगे। कुत्ता सभी को उसी स्थान पर ले गया जहां चोरों ने लूटने के बाद धन को दबाया था। उस स्थान को जब खोदकर देखा गया तो साहुकार का सारा धन वहीं दबा मिल गया। कुत्ते की इस समझदारी को देखकर साहुकार ने समझा कि लक्खी बंजारे का यह कुत्ता कोई मामूली कुत्ता नहीं है। अपना चोरी हुआ धन मिलने के कारण साहुकार ने उस कुत्ते को अपने पास से रिहा करते हुए उसके गले में एक चिट्ठी लटका दी व कहा कि बंजारे का कर्ज आज पूरा हो गया। वह अपने मालिक के पास जा सकता है। चिट्ठी में भी कुत्ते की वफादारी के कारण रिहा करने की बात लिखी गई थी। इसी दौरान कुत्ता वहां से चलकर अपने स्वामी लक्खी बंजारे के ठिकाने पर पहुंच गया। जब लक्खी बंजारे को अपना कुत्ता आता हुआ दिखाई दिया तो उसने समझा कि वह कर्ज के बदले में साहुकार के पास इस कुत्ते को गिरवी रखकर आया था और आज इस कुत्ते ने वहां से भागकर मेरा अपमान करवाया है। बताते हैं कि उसी वक्त बंजारे ने तैश में आकर अपने कुत्ते को बिना सोचे-समझे मार दिया। कुत्ते के मरने के बाद बंजारे ने उसके गले में बंधी चिट्ठी खोलकर देखी तो उसमें उस कुते के गुणों का वर्णन किया गया था। जब बंजारे ने साहुकार द्वारा लिखी गई इस चिट्ठी को पढ़ा तो वह पछताता हुआ रोने लगा। इसी समय से भारतीय समाज में एक बात प्रचलित हुई कि मुझे मारकर तूं इस तरह पछताएगा, जिस तरह कुत्ते को मारकर बंजारा रोया था।



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