Saturday, November 5, 2011

Hisar ki Beti Hockey capt.Poonam Rani


आदमपुर व रतिया उपचुनाव घोषित -30 नवंबर को मतदान , 4 दिसंबर को होगी मतगणना

हिसार (संदीप सिंहमार)
निर्वाचन आयोग ने आदमपुर व रतिया उपचुनाव की तारीख घोषित की है। निर्वाचन आयोग के अनुसार आदमपुर व रतिया विधानसभा उपचुनाव के लिए अधिसूचना 5 नवंबर को जारी की जाएगी और इसी के साथ 5 से 12 नवंबर तक नामांकन भरे जाएंगे व 30 नवंबर को दोनों सीटों के लिए मतदान होगा। आदमपुर व रतिया विधानसभा क्षेत्रों की मतगणना एक ही दिन 4 दिसंबर को होगी। ज्ञात रहे कि रतिया विधानसभा सीट सितंबर माह में खाली हुई थी। रतिया से इनेलो विधायक ज्ञानचंद ओढ की 12 सितंबर को मृत्यु हो गई थी। दूसरी तरफ हिसार लोकसभा उपचुनाव में हजकां-भाजपा सयुंक्त प्रत्याशी कुलदीप बिश्नोई की जीत के बाद आदमपुर विधानसभा सीट भी खाली हो गई। कुलदीप बिश्नोई इससे पहले आदमपुर के विधायक थे। हाल ही 24 अक्तूबर को बिश्नोई ने आदमपुर सीट से विधानसभा अध्यक्ष को अपना इस्तीफा दिया था। आदमपुर व रतिया विधानसभा उपचुनाव की घोषणा के बाद सभी पार्टी नेताओं के दिल की धड़कनें तेज हो गई है।  

मिर्चपुर प्रकरण तीन को उम्र कैद व पांच को 5-5 साल की कैद



हिसार 

बहुचर्चित मिर्चपुर प्रकरण में दिल्ली की रोहिणी में स्थित डा. कामिनी लाऊ की अदालत ने फैसला सुनाया। अदालत ने इस मामले में मिर्चपुर निवासी तीन लोगों कुलविंद्र, रामफल व राजेंद्र को उम्र कैद, पांच लोगों बलजीत, कर्मपाल, धर्मवीर उर्फ इल्ला, बोबल उर्फ लंगड़ा को पांच-पांच साल की सजा सुनाई है। फैसले के अनुसार जिन लोगों को सजा दी गई है उन्हें 20-20 हजार रुपए का जुर्माना भी अदा करना होगा। वहीं अदालत ने इस प्रकरण में दोषी करार दिए गए सात लोगों सुमित, प्रदीप, प्रदीप पुत्र सुरेश, सुनील, राजपाल, ऋषि व मोनू को प्रोबेशन पर दस हजार रुपए के निजी मुचलके पर रिहा कर दिया। इसके लिए बचाव पक्ष के वकील ने इन दोषियों को प्रोबेशन ऑफ आफेंडर्स एक्ट के तहत लाभ देने की अपील की थी। अदालत के फैसले के अनुसार दोषियों से मिलने वाली जुर्माने की राशि पीडि़तों को मुआवजे के तौर पर वितरित की जाएगी। न्यायाधीश कामिनी लाऊ ने अपने फैसले में इस तरह के मामलों पर नजर रखने के लिए संसद की लीगल कमेटी को सुझाव भी दिए। सुझाव में कहा गया कि ऐसे मामलों में जब पुलिस अधिकारियों द्वारा बयान दर्ज किए जाते हैं तो उनकी वीडियोग्राफी भी की जानी चाहिए व जिन दो जातियों में विवाद हुआ हो पुलिस जांच में उन दोनों जातियों से अलग जाति के अधिकारी होने चाहिए। फैसले के बाद पीडि़त पक्ष के वकील रजत कल्सन ने कहा कि इस फैसले के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट में अपील की जाएगी। दूसरी तरफ मिर्चपुर प्रकरण के फैसले के मद्देनजर गांव में जिला प्रशासन की तरफ से सुरक्षा व्यवस्था कड़ी की गई थी। ड्यूटी मजिस्ट्रेट के तौर पर तहसीलदार राजेश कुमार को तैनात किया गया। सुरक्षा व्यवस्था पर डीएसपी अमरीक सिंह, लाल सिंह व राजेंद्र सिंह ने नजर रखी। ज्ञात रहे कि 21 अप्रैल 2010 को नारनौंद के समीपवर्ती गांव मिर्चपुर में दो पक्षों के बीच हुए मामूली विवाद के बाद हुई आगजनी की घटना में वाल्मीकी समुदाय के ताराचंद व उसकी अपाहिज पुत्री सुमन मारे गए थे। अदालत ने इस मामले में 24 सितंबर को 98 आरोपियों को रिहा कर दिया था व 15 आरोपियों को दोषी करार दिया गया था।  

लोकसभा उपचुनाव हिसार से लोकसभा पहुंचे कुलदीप बिश्नोई



हिसारहिसार लोकसभा उपचुनाव में हजकां-भाजपा गठबंधन प्रत्याशी कुलदीप बिश्नोई 6335 वोटों से जीत हासिल कर हिसार के सांसद बने। वहीं इनैलो के अजय सिंह चौटाला उपचुनाव में दूसरे नंबर पर रहे जबकि कांग्रेस प्रत्याशी जयप्रकाश (जेपी) को तीसरा स्थान मिला। मतगणना के बाद लोकसभा उपचुनाव के परिणामों की घोषणा करते हुए जिला निवार्चन अधिकारी डॉ.अमित अग्रवाल ने कहा कि कुलदीप बिश्नोई को 3,55,955, इनैलो के अजय चौटाला को 3,49,620 व कांग्रेस के जयप्रकाश को 1,49,776 वोट मिले। वहीं 27802 वोट प्राप्त कर भारतीय संत मत पार्टी के उम्मीदवार औमप्रकाश कल्याण चौथे नंबर पर रहे। इस उपचुनाव में निर्वाचन क्षेत्र के 9 लाख 16 हजार 462 मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। इस चुनाव परिणाम में कुलदीप बिश्नोई ने आदमपुर, हांसी, बरवाला, हिसार व नलवा में पहला स्थान प्राप्त किया जबकि उचाना कलां, उकलाना, नारनौंद व बवानीखेड़ा में दूसरे स्थान पर रहे। कांग्रेस प्रत्याशी जयप्रकाश सभी हलकों में तीसरे स्थान पर ही बने रहे। मतगणना शुरू होने के साथ हजकां-भाजपा गठबंधन समर्थकों की भीड़ महावीर स्टेडियम व हांसी के एसडी कॉलेज के बाहर जुटनी शुरू हो गई थी। खास बात यह रही कि कुलदीप के समर्थन में लोग इतने उत्साहित थे कि उन्होंने जिला निर्वाचन अधिकारी की घोषणा से पहले ही करीब 1 बजकर 30 मिनट पर जीत का जश्न मनाना शुरू कर दिया। उस समय तक उचाना कलां, उकलाना व नारनौंद के सभी राऊंडों का परिणाम भी नहीं आया था। मतगणना में सबसे ढीली मतगणना भी उचाना, उकलाना व नारनौंद हलकों की ही रही। जीत के बाद हजकां-भाजपा के कुलदीप बिश्नोई के समर्थकों ने विजयी जुलूस निकाला व शहर के विभिन्न मार्गों पर ढोल की थाप पर नाचे। समर्थक अपने नवनिर्वाचित सांसद कुलदीप बिश्नोई के साथ सैक्टर 15 स्थित उनके निवास स्थान पर पहुंचे व गुलाल उड़ाकर जीत का जश्न मनाया। 
1998 से शुरू हुआ राजनीतिक कैरियर
ज्ञात रहे कि कुलदीप बिश्नोई 1998 में आदमपुर विधानसभा क्षेत्र से अपने राजनीतिक कैरियर की शुरूआत कर पहली बार विधायक बने थे। उसके बाद वर्ष 2004 के आम लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस पार्टी की टिकट पर इनेलो के अजय सिंह चौटाला को हराकर भिवानी से सांसद बने। जब 2005 में हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए उस समय भी कुलदीप बिश्नोई कांग्रेस पार्टी के स्टार प्रचारक रहे। वर्ष 2007 में कुलदीप बिश्नोई ने कांग्रेस पार्टी को अलविदा कहकर हरियाणा जनहित कांग्रेस (बीएल) नाम से अपनी अलग पार्टी का गठन किया। 2009 के विधानसभा चुनाव में आदमपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए। 



Saturday, October 15, 2011

विधायकों का राजनीतिक भविष्य बताएगा हिसार उपचुनाव परिणाम -लोकप्रियता पर भी लग सकता है प्रश्न चिन्ह



विधायकों का राजनीतिक भविष्य बताएगा हिसार उपचुनाव परिणाम 
-लोकप्रियता पर भी लग सकता है प्रश्न चिन्ह 
हिसार (संदीप सिंहमार)।
हिसार लोकसभा उपचुनाव का परिणाम विभिन्न राजनीतिक दलों में जहां उनके जनाधार को साबित करेगा, वहीं  इन राजनीतिक दलों के स्थानीय विधायकों का राजनीतिक भविष्य भी तय करेगा। हिसार लोकसभा क्षेत्र के नौ विधानसभा क्षेत्र के विधायक किसी न किसी राजनीतिक दल से जरूर जुड़े हैं। कोई कांग्रेस से, कोई इनेलो से तो कोई हरियाणा जनहित कांग्रेस पार्टी से। चुनाव का परिणाम इन विधानसभा क्षेत्र के विधायकों की ताकत भी पार्टी सुप्रीमो या हाइकमान के सामने लाएगा, जहां से वे जीत कर विधानसभा पहुंचे हैं। अप्रत्यक्ष रूप से कहें तो, यह चुनाव परिणाम भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी किस उम्मीदवार को उतारे, इसकी भी एक धुंधली तस्वीर पार्टी हाइकमान के सामने ला सकता है। अपनी इस परीक्षा में पास होने के लिए यहां के विधायक संभवत: पार्टी प्रत्याशी के साथ फिलहाल जुटे और उसे विजयी बनाने का दावा भी कर रहे हैं। मगर सभी की तस्वीर 17 अक्टूबर को होने वाली मतगणना के बाद स्पष्ट हो जाएगी। राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो चुनाव में मुकाबला तीन प्रत्याशियों के बीच है। हरियाणा जनहित कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के संयुक्त प्रत्याशी कुलदीप बिश्रोई, कांग्रेस के जय प्रकाश और इंडियन नेशनल लोकदल के प्रत्याशी अजय चौटाला। हिसार का यह चुनावी मैदान कांग्रेस प्रत्याशी जय प्रकाश के लिए 2009 वाला ही है। मगर मैदान में उतरे भाजपा-हजकां प्रत्याशी कुलदीप बिश्रोई और इनेलो प्रत्याशी अजय चौटाला के लिए यह मैदान अलग है। ये दोनों ही हिसार लोकसभा से पहली बार चुनाव लड़े हैं। इससे पहले इन दोनों का मुकाबला भिवानी लोकसभा क्षेत्र में हो चुका है। उस वक्त कुलदीप बिश्रोई अजय चौटाला को हराकर पहली बार सांसद बने थे। वहीं कांग्रेस प्रत्याशी जय प्रकाश को हरियाणा जनहित कांग्रेस के संरक्षक एवं पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल 2009 के आम लोकसभा चुनाव में शिकस्त दी थी। यह चुनाव परिणाम क्या नया रंग लाता है, उसकी परतें 17 अक्टूबर की शाम तक खुल जाएंगी। मगर जाहिर सी बात है कि अब इन तीनों प्रत्याशियों के लिए उपचुनाव का परिणाम अब तक की सबसे बड़ी चुनौती है। यह चुनौती सिर्फ इन प्रत्याशियों के लिए नहीं है, बल्कि राजनीतिक दलों के हिसार लोकसभा क्षेत्र के विधायकों के लिए भी है। नौ हलकों के इस लोकसभा क्षेत्र में सबसे ज्यादा छह विधायक कांग्रेस के, दो इनेलो के और एक स्वयं कुलदीप बिश्रोई आदमपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं।  
 इनेलो प्रत्याशी अजय चौटाला के साथ उनकी पार्टी के दो विधायक हैं। उचाना कलां से उनके पिता एवं पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला स्वयं विधायक हैं और नारनौंद से विजयी रही इनेलो की विधायक सरोज मोर हैं। कांग्रेस की टीम में हिसार विधानसभा से लगातार दूसरी बार विधायक बनी सावित्री जिंदल, नलवा से पूर्व मंत्री प्रो.संपत सिंह, बवानी खेड़ा से रामकिशन फौजी, बरवाला से रामनिवास घोड़ेला, उकलाना से नरेश सेलवाल और हांसी से मुख्य संसदीय सचिव विनोद भ्याना हैं। बता दें कि विनोद भ्याना हांसी विधानसभा से हरियाणा जनहित कांग्रेस से लड़े थे, मगर बाद में वे हजकां छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो गए। 2009 के ही विधानसभा चुनाव में हिसार लोकसभा क्षेत्र के नौ हलके में बहुमत कांग्रेस का रहा। अब इन विधानसभा क्षेत्रों से कांग्रेस प्रत्याशी का किसी भी प्रत्याशी से पीछे रहना यहां के विधायकों की लोकप्रियता पर भी सीधे प्रश्न चिन्ह लगा सकता है।
मगर 2009 के लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव परिणामों का आंकड़ा कुछ अलग ही बयान करते हैं। जिन विधानसभा क्षेत्रों से कांग्रेस के विधायक बन कर आए, उन क्षेत्रों में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी जय प्रकाश  दूसरे या तीसरे नंबर पर रहे थे। अगर उस वक्त इनेलो-भाजपा के संयुक्त प्रत्याशी प्रो. संपत सिंह की बात करें तो उन्होंने नारनौंद, उचानाकलां और उकलाना विधानसभा क्षेत्र से सबसे ज्यादा वोट हासिल किए थे और उनमें से दो उचाना और नारनौंद विधानसभा क्षेत्र में इनेलो के ही विधायक बने। हरियाणा जनहित कांग्रेस प्रत्याशी पूर्व मुख्यमंत्री स्व. भजनलाल की जीत 6983 वोटों से हुई थी। वे हिसार लोकसभा के नौ हलकों में से छह हलके हिसार, बरवाला, हांसी, आदमपुर, बवानीखेड़ा और नलवा में आगे रहे। जब  विधानसभा चुनाव की बारी आई तो स्थिति अलग बनी और इन छह हलकों में से केवल आदमपुर और हांसी विधानसभा क्षेत्र में हजकां प्रत्याशी विजयी हुए। लिहाजा, यह उपचुनाव तीनों राजनीतिक दलों के विधायकों के जनाधार की स्थिति भी स्पष्ट करेगा। पंद्रहवीं लोकसभा में हिसार क्षेत्र में कुल मतदान 828461 हुआ, जिसमें से भजनलाल को 248476, प्रो. संपत सिंह को 241493 और कांग्रेस प्रत्याशी जय प्रकाश को 205539 वोट मिले थे। इस दौरान बसपा प्रत्याशी राम दयाल गोयल 90277 वोट लेकर चौथे स्थान पर रहे थे।

लोकसभा 2009 में तीन मुख्य पार्टी प्रत्याशियों के पक्ष में नौ विधानसभा क्षेत्रों में मिले वोट
विधानसभा क्षेत्र कुल मतदाता कांग्रेस इनेलो हजकां         जीत में अंतर
उचाना कलां        106618       22655 47181 14861          24526
आदमपुर              92693         24577 18893 38914          14337
उकलाना              107944      26620 40346 20904      13726    
नारनौंद             104801     29476      38954 18267           9478
हांसी                  91441       23811 21279      32581            8770
बरवाला             84444         18468    22210 29274            7064
हिसार            622971              4324   9166 31850           17526
नलवा            82347             22008   19738 30528            8520
बवानी खेड़ा      95616      22529 23629 31232            7603




विधानसभा 2009 में इन्हीं तीन मुख्य पार्टी प्रत्याशियों के पक्ष में इन्हीं नौ विधानसभा क्षेत्रों में मिले वोट        
विधानसभा क्षेत्र कुल मतदाता कांग्रेस इनेलो हजकां भाजपा जीत में अंतर
उचाना कलां             133891      62048 62669 1323 1525  621
आदमपुर              105356       42209  8676 48224  1209 6015  
उकलाना               111653       45973 42235 14820  2911 3738
नारनौंद                 121976      38225 48322 कोई नहीं 37949 10097
हांसी                   106122      28113   18316 35282  6042 7104
बरवाला                  94345      29998   20602 18785  3854 9396
हिसार                    78030    32866           6527 14437  2594 14728
                                  94295    38138          21799 27237  1144 10901
बवानी        104401 35039     28766          25376  1500  6273











Saturday, September 24, 2011

मिर्चपुर प्रकरण रोहिणी अदालत ने सुनाया फैसला

मिर्चपुर प्रकरण
रोहिणी अदालत ने सुनाया फैसला

थाना प्रभारी सहित 82 बरी, 15 दोषी करार
नारनौंद/हिसार
बहुचर्चित मिर्चपुर कांड का फैसला रोहणी कोर्ट की अदालत ने आखिरकर सुना ही दिया। इस मामले में जेल में बंद 97 आरोपियों में से तत्कालीन थाना प्रभारी विनोद काजल सहित 82 आरोपियों को कोर्ट ने बरी कर दिया है जबकि 15 युवकों को दोषी करार दिया गया है। एक आरोपी जसबीर सिंह कोर्ट से पेशी के दौरान फरार हो गया था। उस पर फैसला सुरक्षित रखा गया है। फैसले से ग्रामीण खुश हैं और गांव में पूर्ण रूप से शांति का माहौल है। पुलिस ने सुरक्षा के लिहाज से गांव में चप्पे-चप्पे पर पुलिस फोर्स तैनात कर रखी है। मिर्चपुर कांड का फैसला रोहणी कोर्ट की जज डॉ.कामनी लाऊ ने सुना दिया। दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद 97 आरोपियों में से थाना प्रभारी विनोद काजल सहित 82 आरोपियों को बरी करार दिया गया है। 15 आरोपियों में राजबीर, प्रदीप, सुनील, राजपाल, रीषि, प्रदीप, मोनू, बलबीर, कर्मबीर, धर्मबीर, कर्मपाल, बोबल, कुलविन्द्र, रामफल और राजेन्द्र को मामले में दोषी बनाया गया है। इनमें से कुलविन्द्र, राजेन्द्र और रामपाल को मृतक ताराचंद के घर में आगजनी करने का आरोपी बनाया गया है। 6 युवकों को आगजनी करने और 6 युवकों को पत्थर बाजी करने का आरोपी बनाया गया है। एक अन्य आरोपी जसबीर सिंह रोहिणी की कोर्ट से सुनवाई के दौरान फरार हो गया था। वह अभी तक पुलिस की गिरफ्त से बाहर है। उसके खिलाफ अभी तक कोई आरोप तय नहीं किया और उसके मामले में फैसला सुरक्षित रखा गया है। फैसले को लेकर बारह खाप के प्रधान राजबीर ढ़ांडा ने कहा कि माननीय कोर्ट का फैसला सबको मंजूर है तथा गांव में पूर्ण रूप से शांति का माहौल है। वहीं गांव में बनाई गई शांति कमेटी के प्रधान मा.चन्द्रप्रकाश ढांडा ने भी फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि सभी ग्रामीण कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हैं।
ज्ञात रहे कि 21 अप्रैल 2010 को नारनौंद के गांव मिर्चपुर में दो समुदायों के बीच में चल रहे विवाद में एक समुदाय विशेष के लोगों ने दलित समुदाय के ताराचंद के घर आग लगा दी थी जिसमें स्वयं ताराचंद व उसकी अपाहिज बेटी सुमन जिंदा जल गए थे। इसके बाद समुदाय के लोगों ने गांव में भयावह स्थिति को देखते हुए गांव से पलायन कर लघु सचिवालय हिसार में डेरा लगा लिया था। वे यहां पर करीबन एक महीना रहे। इस दौरान घटना के करीब एक हफ्ते बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी ने भी औचक दौरा किया था। उसके बाद सरकार व प्रशासन ने कार्रवाई करते हुए गांव में शांति कायम करने के लिए अनेक प्रयास किए। सरकार ने इस दौरान गांव से पलायन करने वाले परिवारों को गांव में ही बसाने के लिए मुफ्त मकान व घटना के दौरान हुए नुकसान की भरपाई भी की थी। उल्लेखनीय है कि घटना के काफी बीत जाने के बाद भी गिरफ्तारी ना होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर जिला पुलिस ने 103 लोगों की गिरफ्तारी की थी। सरकार ने गांव में शांति व्यवस्था कायम रखने के लिए समुदाय के लोगों की विभिन्न मांगों को पूरा किया जिनमें स्वर्गीय ताराचंद के तीनों बेटे अमर, प्रदीप और रवींद्र को नौकरी व सरकारी क्वार्टर अलॉट किए थे।

एतिहात के तौर पर पुलिस फोर्स बरवाला में तैनात
बरवाला (रोहित काठपाल)।
बहुचर्चित मिर्चपुर प्रकारण के फैसले को लेकर एतिहात के तौर पर बरवाला में भी प्रशासन अलर्ट रहा। फैसले को लेकर कोई अनहोनी घटित न हो जाए, इसके लिए पुलिस प्रशासन ने बरवाला में दो टुकडिय़ा जवानों की तथा एक टुकड़ी महिला पुलिस की भी तैनात कर रखी थी। इसके अलावा बरवाला थाने के नजदीक प्रशासन ने पानी की बौछार करने वाली गाड़ी भी तैनात कर रखी थी। बता दें कि नारनौद क्षेत्र के गांव मिर्चपुर में दो समुदाय के बीच विवाद हुआ था। इसी विवाद के चलते गांव के एक समुदाय पर आरोप था कि एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के ताराचंद व उसकी पुत्री को जिंदा जला दिया। इस प्रकरण की सुनवाई रोहिणी की विशेष अदालत में चल रही थी जिसका फैसला शनिवार को घोषित हुआ है जिसमें से 97 आरोपियो में से 82 आरोपियों को बरी कर दिया गया। जबकि 15 आरोपियों को दोषी पाया गया है। अब शुक्रवार को इस मामले में दोषी आरोपियों पर सजा के मुकद्में की बहस होगी। प्रशासन ने एतिहात के तौर पर पुलिस कर्मचारियो को बरवाला में तैनात किया था कि कहीं फैसला घोषित होने के बाद कोई अनहोनी न हो जाए।

फोटो कैप्शन 24 हिसार 7 - बरवाला में तैनात की गई पानी की बौछार करने वाली गाड़ी।

सिलेंडर में लगी आग, हादसा टला
हिसार।
इंदिरा कॉलानी की गली नंबर एक में बीती रात एक घर के सिलेंडर में आग लग गई। समय रहते आग पर काबू पाने के कारण एक बड़ा हादसा टल गया। गली नंबर एक में रहने वाले संदीप ने बताया कि रात करीब दस बजे वह घर में बाहर अपने परिवार के साथ बैठे थे। तभी रसोई में से धुंआ निकलता दिखा। अंदर जाकर देखा तो सिलेंडर में आग लगी थी। तुरंत परिवार वालों को बताया और सभी घर से बाहर हो गए। घटना की जानकारी जैसे ही पड़ोसियों को मिली तो पड़ोसियों के प्रयासों से थोड़ा बहुत सामान बाहर निकाला गया और तुरंत फ ायर ब्रिगेड कार्यालय में बताया गया। करीब बीस मिनट में फायर ब्रिगेड कर्मी वाहन के साथ मौके पर पहुंच गए। तब तक लोगों ने आग पर लगभग काबू कर लिया था।

जूते चुराने वाले युवक को पीटा
हिसार।
पटेल नगर मार्केट के दुकानदारों ने शनिवार सुबह एक युवक को जूतों की दुकान से जूता चुराकर ले जाते हुए पकड़ लिया और उसकी पिटाई कर दी। इसके बाद उसे पुलिस के हवाले कर दिया, जहां से पुलिस उसे उपचार के लिए सिविल अस्पताल ले गई। मगर पुलिस उससे उसका नाम व पता भी नहीं उगलवा पाई है। चिकित्सक आरोपी युवक को मानसिक रोगी बता रहे हैं और उसे उपचार में प्रयोग होने वाली पट्टियों से बांधा गया है। उसके दाहिने हाथ पर टीएस रावत और बाहिने हाथ में मनकों से ठाकुर सिंह नाम का बैंड बांधा हुआ है। दुकानदार कृष्ण ने बताया कि उनकी मार्केट में धीरज बूट हाऊस की दुकान है। सुबह करीब नौ बजे जब वे दुकान के बाहर सफाई कर रहे थे तो एक युवक उनके पास आया और नौ नंबर का जूता मांगा। उसे करीब पंद्रह जोड़ी दिखाई, वह आना-कानी करता रहा। जब उसे जूते की एक नई जोड़ी दिखाने के लिए पीछे मुड़ा तो मौके का फायदा उठाते हुए युवक जूते की एक जोड़ी उठाकर भागने लगा। यह देखते ही उन्होंने तुरंत शोर मचा लिया और आसपास के दुकानदार उसे पकडऩे के लिए भाग लिए। पकडऩे पर पुलिस को बुलाया। इस बीच युवक लोगों के काबू में भी नहीं आया तो कुछ युवकों ने उसकी पिटाई की और पुलिस के हवाले कर दिया। पुलिस को उसके पास से दो हजार रुपए बरामद हुए हैं। पुलिस युवक को चौकी में भी ले गई, मगर आरोपी ने अभी तक अपना नाम व पता नहीं बताया है। फिलहाल उसे प्राथमिक उपचार के लिए सिविल अस्पताल में दाखिल कराया गया है। चिकित्सकों को संभावना है कि युवक ने किसी प्रकार का नशा लिया हुआ है या फि र वह मनोरोगी है।

Tuesday, September 6, 2011

फुर्रस्त के लम्हें

यह फोटो सच कहूं समाचार पत्र के हिसार स्थित कार्यालय की है। वैसे तो आपको पता ही है कि ऑफिस में काम का कितना बोझ रहता है। एक दिन कुछ फुर्रस्त थी तो सोचा क्यों न इन फुर्रस्त के लम्हों को कैमरे में कैद कर लिया जाए।

रेवाड़ी में कुछ दिन पहले

यह फोटो रेवाड़ी की है। दराअसल रेवाड़ी में कुछ दिन पहले हरियाणा यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट का एक प्रोग्राम आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम में मुझे भी शामिल होने का मौका मिला। वहां हरियाणा के तत्कालिन वितमंत्री कैप्टन अजय सिंह यादव बतौर मुख्यातिथि शिरक्त करने पहुंचे थे।



Thursday, August 25, 2011

समाजसेवी अन्ना हजारे के बारे में मैं भी कुछ कहूँ ?

क्या शांतिपूर्ण आंदोलन करने वाले को गिरफ्तार करना सही है?

हिसार।
देश की राजधानी दिल्ली में 16 अगस्त मंगलवार की सुबह दिल्ली पुलिस ने जब प्रभावी लोकपाल बिल की मांग को लेकर शांतिपूर्ण आंदोलन करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता गांधीवादी अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर गुलामी के दिनों की याद दिला दी। अन्ना का कसूर सिर्फ इतना था कि उसने सख्त लोकपाल बिल को लागू करवाने को लेकर 16 अगस्त से दिल्ली के जेपी पार्क में आंदोलन कर अनशन शुरू करने की बात कही थी। दिल्ली पुलिस ने अनशन करने के लिए सशर्त अनुमति देने की बात कही, लेकिन उनकी गिरफ्तारी के बाद देश में उनके समर्थकों के बढ़ते आक्रोश को देखते हुए दिल्ली पुलिस ने अन्ना हजारे को रामलीला मैदान में बिना किसी शर्त के अनशन की अनुमति भी दे दी। अन्ना हजारे व साथियों की गिरफ्तारी के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने
दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी कर गिरफ्तारी का कारण पूछा। दूसरी तरफ देश में अन्ना के समर्थन में चले आंदोलन के दबाव में अन्ना को जेल से रिहा करने का फैसला लिया गया। लेकिन अन्ना हजारे ने अनशन की अनुमति मिलनेके बाद ही जेल छोड़ी। ये दिल्ली पुलिस के मुंह पर करारा तमाचा था।
अन्ना के समर्थन में हुआ देशभर में आंदोलन
दिल्ली पुलिस ने अन्ना हजारे व साथियों को गिरफ्तार कर जब तिहाड़ जेल भेजा तो देश के विभिन्न संगठनों , राजनीतिक दलों व युवाओं का खून खौल उठा। पल भर में अन्ना के समर्थन में देश भर में आंदोलन खड़ा हो गया।
यदि गुलामी के दिनों की याद करें तो 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद देशभर में
आंदोलन हुए थे। 23 मार्च 1931 में जब ब्रिटिश हुकूमत ने क्रांतिकारी शहीद भगतसिंह, राजगुरू व सुखदेव को फांसी पर लटकाया था तो उस वक्त भी देश के नौजवानों ने सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाया था, ठीक उसी तरह एक लंबे अंतराल के बाद जब 16 अगस्त 2011 को अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेजा गया तो देश भर में आंदोलन खड़ा हो गया। बच्चे, बूढ़े, जवानों व महिलाओं ने हाथों में तिरंगा झण्डा लेकर दिल्ली सरकार व केंद्र सरकार के खिलाफ दहाड़ लगाई। सोचने की बात है कि देश में शांतिपूर्ण आंदोलन करने वालों को तो जेल भेजा जाता है जबकि सरेआम उपद्रव मचाने वालों को टोका भी नहीं जाता। वर्ष 2010 व 2011 में हरियाणा व उत्तरप्रदेश में एक समुदाय विशेष के लोगों ने आरक्षण व मिर्चपुर कांड के नाम पर रेलवे मार्गों को रोका था, तब सरकार व प्रशासन ने वहां कार्रवाई करने की जहमत भी नहीं उठाई। ये सोचने का विषय है।

Monday, August 8, 2011

वैचारिक क्रान्ति के सूत्रधार थे शहीद भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू
*मेरा रंग दे बसंती चोला* गाते हुए चूमा था फांसी का फंदा
संदीप सिंहमार
जिस आजादी में आज हम खुली सांस ले रहे हैं उसे प्राप्त करने के लिए अनेक क्रांतिकारियों ने आत्म बलिदान दिया। जिनकी चर्चा आज के युग में बहुत कम सुनने को मिलती है। 23 मार्च 1931 को क्रांतिकारी भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव ने अनोखे तरीके से आत्म बलिदान देकर उस समय सारे देश को झकझोर दिया था। भगतसिंह और उसके साथियों का अभियान अंग्रेजों को भारत छोडऩे के लिए विवश करने तक ही सीमित नहीं था वरन वे भारत में वैचारिक क्रांति के सूत्रधार थे और बड़े योजनाबद्ध तरीके से वे ही उस ओर कार्यरत थे। वे भारत में अंग्रेजी सरकार ही नहीं बल्कि हर प्रकार के दमन और शोषण के खिलाफ थे। भगतसिंह व उसके साथी बचपन से ही भारत के बहुत चर्चित राजनेताओं नंदकिशोर मेहता, लाल पिंडीदास, सूफी अंबा प्रसाद, लाला लाजपत राय आदि के संपर्क में आए। उन पर गदर आंदोलन के नेता करतार सिंह सराभा का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। जिन्होंने 20 वर्ष की अल्प आयु में 1916 में हंसते-हंसते फांसी का फन्दा चूमा था। जब भगतसिंह गिरफ्तार हुए तो उनके पास से करतार सिंह सराभा की एक फोटो भी मिली थी। भगतसिंह अपनी शिक्षा के दौरान लाहौर में लाला लाजपतराय द्वारा स्थापित नेशनल कॉलेज में भगवती चरण, सुखदेव, यशपाल, रामकिशन और तीर्थदास आदि के संपर्क में आए। जिस समय महात्मा गांधी ने अपना असहयोग आंदोलन बंद किया तो क्रांतिकारियों का एक वर्ग पंजाब, संयुक्त प्रांत और बिहार में सक्रिय था तो दूसरा बंगाल में सक्रिय हुआ। संयुक्त प्रांत में सचिंद्रनाथ सान्याल, रामप्रसाद बिस्मिल, योगेशचंद्र चटर्जी आदि ने अक्टूबर 1924 में कानपुर में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की। इसी समय भगतसिंह भी लाहौर छोड़कर कानपुर चले गए। उस समय कानपुर संयुक्त प्रांत के क्रांतिकारियों का महत्वपूर्ण ठिकाना था। कानपुर में भगतसिंह ने गणेश शंकर विद्यार्थी से भेंट की। जिसका घर क्रांतिकारियों का केंद्र बना हुआ था। इसलिए भगतसिंह जल्द ही दूसरे क्रांतिकारियों चंद्रशेखर आजाद, योगेशचंद्र चटर्जी आदि के संपर्क में आ गए। वे हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य भी बने। अब भगतसिंह इस संस्था के लिए कार्य करने लगे। 9-10 सितंबर 1928 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला नामक स्थान पर क्रांतिकारियों की एक सभा बुलाई गई। सभा में भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद, विजय कुमार सिन्हा, ब्रह्मदत, जतिन्द्र नाथ दास, भगवती चरण वोहरा, रोशनसिंह जोश और सरदूल सिंह आदि ने भाग लिया। इस सभा के मंत्री भगतसिंह थे। सभा में भगतसिंह के सुझाव पर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन नाम में सोशलिस्ट शब्द और जोड़ दिया गया। अब इस क्रान्तिकारी संगठन का नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन हो गया। इस समय एक पुरानी एसोसिएशन को एक समाजवादी रूप दिया गया। एच.एस.आर.ए की केन्द्रीय समिति ने साइमन कमीशन का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। जब साइमन कमीशन 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर पहुंचा तो इसका विरोध करने वाले जुलूस का नेतृत्व लाला लाजपतराय कर रहे थे। भगतसिंह व साथी जुलूस की अग्रिम पंक्तियों में थे। जब जुलूस आगे बढऩे से नहीं रूका तो मि.अंग्रेज स्कॉट स्वयं लाठी लेकर निर्दयता से लाला जी को पीटना शुरू कर दिया। लाठियों की मार से लाला जी 17 नवंबर 1928 को शहीद हो गए। इस पर भगतसिंह व साथियों ने इसे राष्ट्रीय अपमान माना तथा लालाजी की शहादत का बदला लेना तय किया। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद व जयगोपाल को यह कार्य सौंपा। क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सहायक पुलिस अधीक्षक सांडर्स को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया। इस दौरान अंग्रेजी अधिकारियों की आंखों में धूल झोंककर मौके से खिसकने में भी कामयाब हुए। 1929 में ब्रिटिश सरकार मजूदरों के मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने के उद्देश्य से दी विधेयक पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिसप्यूटस बिल पारित करने की तैयारी में थी। एच.एस.आर.ए. की केन्द्रीय समिति ने आगरा में हींग की मंडी में सभा आयोजित कर केन्द्रीय एसैंबली में जिस दिन बिल पारित करने थे, उसी दिन बम फैंकने की योजना बनाई। इस कार्य को करने के लिए भगतसिंह अड़ गए। चंद्रशेखर आजाद एसैंबली में बम फैंकने का कार्य भगतसिंह के हाथों नहीं करवाना चाहते थे परंतु विवशतापूर्वक आजाद को भगतसिंह का निर्णय स्वीकार करना पड़ा। भगतसिंह के साथ क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त को भी यह जिम्मेवारी सौंपी गई। 8 अप्रैल 1929 को निश्चित समय पर दोनों क्रांतिकारी एसैंबली में पहुंचे। एसैंबली हाल में जब बिल पेश करने की तैयारी हुई उसी समय भगत ने एक बम फैंका, कुछ ही सैकेंड बाद दूसरा बम फैंका। बटुकेश्वर दत्त ने सदन में पत्र फैंके। बम फैंकने के बाद दोनों क्रांतिकारी कहीं नहीं भागे बल्कि अपनी गिरफ्तारी दी। दोनों क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी के बाद अंग्रेजी सिपाहियों ने सुखदेव, जयगोपाल व किशोरीलाल को भी पकड़ लिया। इस पत्र में कहा गया था, बहरों को सुनाने के लिए ऊंचे धमाके सुनाने पड़ते हैं। ये शब्द एक फ्रांसीसी देशभक्त ने कहे थे। इन्हीं शब्दों के साथ हम भी अपनी कार्यवाही की सफाई पेश करते हैं। पिछले वर्षों के अपमानजनक इतिहास को दोहराए बगैर हम कहना चाहते हैं कि अंग्रेजी सरकार हमें रोटी के टुकड़े देने के बजाय बूटों की ठोकरें, लाठियों एवं रोलेट एक्ट देती है। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त पर असैंबली बम कांड में मुकदमा चलाया गया। बाद में भगतसिंह, राजगुरू, सुखदेव और अन्य क्रांतिकारियों पर अनेक षडयंत्रों में शामिल होने के आरोप लगाए गए तथा उन पर मुकदमा चला। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को 12 जून 1929 को आजीवन कारावास का दंड दिया गया। जब भगतसिंह व उनके साथी आजीवन कारावास के दौरान लाहौर जेल में थे तभी 10 जुलाई 1929 को उन पर सांडर्स की हत्या का मुकदमा चलाया गया। इस केस में 24 क्रांतिकारियों को लपेटा गया। इनमें से 6 क्रांतिकारी फरार थे। 3 को छोड़ दिया गया। 7 अन्य क्रांतिकारी सरकारी गवाह बन गए थे। यह सांडर्स हत्या केस लाहौर षडयंत्र के रूप में जाना गया। भगतसिंह और उनके साथियों ने इस केस को गंभीरतापूर्वक नहीं लिया था। अदालत में पेशी के दौरान क्रांतिकारी इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद का नाश हो आदि नारे लगाते तथा गीत गाने लगते। जज अपनी कुर्सी पर बैठा उनका मुंह ताकता रहता। बाद में ब्रिटिश सरकार ने इस मुकदमे की सुनवाई के लिए विशेष ट्रिब्यूनल का गठन किया। इस ट्रिब्यूनल ने जेल में ही इस केस की सुनवाई की। अंत में 7 अक्टूबर 1930 को इस मुकदमे का फैसला सुनाया गया। जिसके अनुसार भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई। शेष क्रांतिकारियों को आजीवन काला पानी की सजा सुनाई गई। फांसी की सजा होने के बाद भी देश में इन क्रांतिकारियों को बचाने के लिए अनेक प्रयास किए गए। मृत्युदंड के फैसले को बदलने के लिए अनेक स्थानों पर विरोध-प्रदर्शन हुए। लाखों लोगों ने तत्कालीन गवर्नर जनरल वायसराय को सजा को बदलने के लिए पत्र भेजे। कहते हैं कि गांधी जी ने भी 17 फरवरी 1931 से 5 मार्च 1931 तक चलने वाले गांधी इरविन समझौते में लार्ड इरविन के समक्ष सजा बदलने का प्रश्न उठाया था परंतु वायसराय सहमत नहीं हुए। हर्बेट इमरसन लार्ड इरविन के समय में भारत के गृह सचिव थे। जब गांधी इरविन समझौता चल रहा था तो कभी-कभी बीच में इमरसन को भी कमरे में बुलाया जाता था। इस विषय में इमरसन कि शब्दों से यह निष्कर्ष निकलता था कि भगतसिंह व साथियों की सजा बदलवाने के लिए गांधी जी ने कोई विशेष कोशिश नहीं की। उन्होंने लिखा है कि गांधी जी मुझे इस विषय में विशेष चिंतित नहीं लगे। महात्मा गांधी ने भी अपनी पुस्तक यंग इंडिया में लिखा है कि मैं सजा के परिवर्तन को समझौते की शर्त बना लेता पर यह यकीन न हो सका। कार्यकारिणी समिति मुझ से सजा के परिवर्तन को समझौते की शर्त न बनाने में सहमत थी। इसलिए मैं केवल इसका जिक्र ही कर सका। देश के युवा वर्ग में इस बनी समझौते से बहुत नाराजगी हुई क्योंकि भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव की सजा ज्यों की त्यों बनी हुई थी। कह सकते हैं कि स्थिति वही ढाक के तीन पाते थी। अंत में सरकार ने 24 मार्च 1931 को तीनों क्रांतिकारियों को फांसी पर चढ़ाने की तारीख निश्चित की। सामान्यत: फांसी की सजा प्रात: दी जाती थी तथा शव उनके परिजनों को सौंपे जाते थे। सरकार ने भारतीय जनता के विद्रोह के भय से इन दोनों ही परंपराओं को नहीं निभाया तथा एक दिन पहले 23 मार्च 1931 को भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव को सायं 7 बजे फांसी पर लटका दिया गया। फांसी देने से पहले जब क्रांतिकारियों को इनकी आखिरी इच्छा पूछी गई तो उन्होंने कहा कि मुंह पर से काला पर्दा उठा दिया जाए व हम तीनों को आपस में गले मिलने दिया जाए। इसके बाद इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए आपस में गले मिलकर तीनों क्रांतिकारियों ने फांसी के फंदे को चूमा लेकिन निर्दयी अंग्रेजों ने फांसी के बाद भी इनके शवों को काट-काटकर बोरियों में भरवाया और जेल के पीछे की दीवार तोड़कर सतलुज नदी के तट पर ले जाकर उनका अधूरा अंतिम संस्कार किया। भारतीय जनता को जब पता चला कि भगतसिंह, राजगुरू व सुखदेव को फांसी दे दी गई है और उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया है तो जनता ने रोष भरा जुलूस निकाला जिसे देश के सभी समाचार पत्रों ने प्रमुखता से प्रकाशित किया था। अगले ही दिन 24 मार्च 1931 को कांग्रेस के कराची अधिवेशन में भगतसिंह व उसके साथियों को गांधी-इरविन समझौते में फांसी से न बचा पाने पर गांधी जी का भारी विरोध हुआ तथा कराची अधिवेशन में भगतसिंह, राजगुरू व सुखदेव की बहादुरी और बलिदान की प्रशंसा करते हुए प्रस्ताव पारित किया। इस प्रकार इन क्रांतिकारियों का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। उनके बलिदान को भुलाया नहीं जा सकता लेकिन बड़े दु:ख की बात है कि देश के राजनीतिज्ञ अपने स्वार्थों के वशीभूत होकर आज इन क्रांतिकारियों को भूलते जा रहे हैं। देश के सभी राजनीतिज्ञ होली, दीपावली व सभी राष्ट्रीय त्यौहारों को मन में उमंग भरकर मनाते हैं लेकिन शहीदों को मुख्यत: साल में दो बार स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस के अवसर पर मजबूरी में याद किया जाता है। उस समय भी सिर्फ खानापूर्ति ही की जाती है। अपने संबोधन में नेता शहीदों को भूलकर अपनी उपलब्धियां गिनवाने में ही लगे रहते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जो क्रांतिकारी हमें सुख देने के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए, आज उनको याद करना हमारा परम कर्तव्य बनता है।

Tuesday, July 5, 2011

इतिहास के पन्नों में नहीं है लाला हुकुमचंद व मिर्जा मुनीर बेग की शहादत
-हांसी से अंग्रेजों को खदेडऩे के लिए चलाया था आंदोलन
संदीप सिंहमार
अंग्रेजों की दासता से मुक्ति पाने के लिए जिन वीरों ने अपनी जान कुर्बान की, आज समाज उन वीर शहीदों को भुला रहा है। उन शहीदों के नाम देश के इतिहास में भी मुख्य रूप से शामिल नहीं किए गए हैं। ऐसे ही बिसार दिए गए शहीदों के नाम है लाला हुकुमचंद जैन कानूनगो व मिर्जा मुनीर बेग। लाला हुकुमचंद जैन हिंदू थे तो मिर्जा मुनीर बेग मुस्लिम समाज से थे। दोनों नेता अपने-अपने धर्म के लोगों में खासे प्रभावशाली व्यक्ति थे। 1857 की क्रांति से पहले दोनों नेता ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार भी थे। कई गांवों पर इनका शासन चलने के कारण गहरा प्रभाव बना हुआ था। ब्रिटिश सरकार ने ही लाला हुकुमचंद जैन को कानूनगो नियुक्त कर हांसी में बसाया था तो मिर्जा मुनीर बेग को भी एक महत्वपूर्ण पद दिया गया था। लेकिन अंग्रेजों के जुल्मों को दोनों नेताओं ने स्वीकार नहीं किया और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हांसी क्षेत्र में क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर अंग्रेजों को हिलाकर रख दिया। इन शहीदों के बारे में हांसी व हिसार के आसपास के बुजुर्ग व बुद्धिजीवी वर्ग के लोग तो अवश्य जानते हैं लेकिन युवा पीढ़ी इनके नामों व इनकी कुर्बानी के बारे में नहीं जानती। अंग्रेजों के जुल्मों से तंग आ चुकी देश की जनता ने 11 मई 1857 को मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को भारत का सम्राट घोषित कर दिल्ली में स्थित लालकिले में गद्दी पर बैठाया। मई 1857 के अंतिम सप्ताह में दिल्ली से मुगल परिवार का बादशाह शहजादा मुहम्मद आजम ने हांसी नगर आकर सम्राट बहादुरशाह जफर की तरफ से हांसी क्षेत्र के शासन को अपने हाथों में ले लिया। 29 मई 1857 को गांव रोहनात, पुट्ठी मंगल खां, जमालपुर, मंगाली, भाटोल, रांगड़ान, हाजमपुर, खरड़ अलीपुर के किसानों व हांसी के लोगों ने हांसी में अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। क्रांति के पहले ही दिन किले में घुसकर क्रांतिकारियों ने तहसीलदार को गोली से उड़ा दिया व कई अन्य अंग्रेज अफसरों को भी मौत के घाट उतार दिया।
इसी बीच हांसी में क्रांतिकारियों की कमान लाला हुकुमचंद जैन कानूनगो व मिर्जा मुनीर बेग ने संभाली। लालाजी हिंदू व मिर्जा बेग मुस्लिम होने के कारण भी दोनों नेताओं में किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं था। दोनों ही ब्रिटिश सरकार की गुलामी की बेडिय़ों को काटकर आजादी की खुली हवा में सांस लेना चाहते थे। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए 17 जून 1857 को लाला हुकुमचंद व मिर्जा मुनीर बेग ने दिल्ली के सुल्तान बहादुरशाह जफर को एक पत्र लिखकर हांसी से अंग्रेजों को खदेडऩे के लिए सहायता भेजने व शाही सेना का पूरा साथ देने की बात कही। पत्र मिलने के बाद ही शहजादा मुहम्मद आजम हांसी क्षेत्र में सक्रिय हुआ था। इस दौरान रांगड़ मुसलमानों व हिंदुओं ने मिल-जुलकर विद्रोह किया। क्रांतिकारियों ने अपने नेताओं के नेतृत्व में क्षेत्र में अनेक अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार कर अंग्रेजों से मुक्त होने का प्रयास किया। अंग्रेजी जनरल वार्न कोर्टलैंड ने अपनी दमनकारी नीति के द्वारा क्रांति को दबाने के लिए कप्तान माइल्डवे को भारी सेना के साथ हांसी भेजा। अपनी सेना की हार का समाचार सुनकर जनरल वार्न स्वयं हांसी पहुंचा। क्रांतिकारियों ने उनकी सेना के साथ भी अपने देशी हथियारों से जमकर मुकाबला किया। 20 सितंबर 1857 को दिल्ली पर अंग्रेजों ने एक बार फिर कब्जा कर लिया। बहादुरशाह जफर को गिरफ्तार कर उन्हें रंगून जेल में कैद कर दिया गया। ब्रिटिश सैनिकों ने किले की तलाशी के लिए अभियान चलाया तो तलाशी के दौरान लाला हुकुमचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग का वह पत्र अंग्रेजों के हाथ लग गया जो उन्होंने 17 जून 1857 को बादशाह बहादुरशाह के पास भेजा था। हांसी में विद्रोह अभी शांत नहीं हुआ था इसलिए विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने पलटन नं.14 को हांसी भेज दिया।
ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तारी के लिए जनरल वार्न को भेजा पत्र
जिला कलैक्टर हिसार जनरल वार्न के पास दिल्ली से तलाशी के दौरान मिला वह पत्र भेजा गया जिसमें लाला हुकुमचंद व मिर्जा मुनीर बेग ने बहादुरशाह के प्रति वफादारी की बात कही थी। जनरल वार्न कोर्टलैंड के आदेश पर लाला हुकुमचंद, उनके भतीजे फकीरचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग को गिरफ्तार कर हिसार की अदालत में राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। इस मुकदमे में लाला हुकुमचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग को फांसी की सजा सुनाई गई व फकीरचंद को पत्र लिखने के आरोप में पांच वर्ष की कैद की सजा सुनाई गई। अदालत द्वारा सुनाई गई सजा का स्थानीय लोगों ने विरोध भी किया। आखिर 19 जनवरी 1858 को लाला हुकुमचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग को लालाजी की हवेली के सामने सरेआम फांसी पर लटका दिया गया। दोनों क्रांतिकारियों ने अब सदा के लिए अपनी आंखें बंद कर ली थी। अंग्रेजों के जुल्म की इंतहा यहीं समाप्त नहीं हुई बल्कि फांसी के बाद इनके शव भी परिजनों को नहीं सौंपे गए। इनके शवों को धर्म के विपरीत आचरण करते हुए लालाजी के शव को दफनाया गया व मिर्जा मुनीर बेग के शव को भंगी के हाथों फूंक दिया गया। इसी दौरान अपने ताऊ के कहने पर पत्र लिखने वाले फकीरचंद को भी फांसी दी गई। हालांकि अदालत ने उसे पांच वर्ष की कैद की सजा सुनाई थी। फकीरचंद को फांसी देते वक्त सजा सुनाने वाले जज ने भी ऐतराज जताया था लेकिन अंग्रेजों ने उनकी भी बात अनसुनी कर दी।
लाला हुकुमचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग की शहादत के बाद देश आजाद होने के उपरांत भी केंद्र सरकार व राज्य सरकार को उनकी शहादत याद नहीं आई। लाला हुकुमचंद जैन की स्मृति में लाल लहरीमल जैन, एडवोकेट उमराव सिंह जैन व जौहरीमल ने अपने खर्च पर 22 जनवरी 1961 में एक पार्क बनवाया। इस पार्क में लाला हुकुमचंद जैन की प्रतिभा भी लगाई गई। बड़े खेद की बात यह है कि इस पार्क को आज भी शहीदों के नाम पर नहीं बल्कि डडल पार्क के ही नाम से जाना जाता है।
जन्म परिचय-लाला हुकुमचंद जैन
शहीद लाला हुकुमचंद जैन का जन्म 1816 ई0 में डडल पार्क मुगलपुरा हांसी में हुआ। इनके पिता दुनीचंद जैन क्षेत्र के कानूनगो थे। इनके परिवार के शीतलप्रसाद, खेमचंद, रामदयाल व जवाहरलाल के बाद ब्रिटिश सरकार ने लालाजी को सन् 1856 में हांसी का कानूनगो बनाया। इनके भाई किशनदास उस समय हांसी के नहर विभाग में कैनाल सिरस्तदार के पद पर थे। 29 मई 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में लाला हुकुमचंद जैन ने मिर्जा मुनीर वेग के साथ मिलकर क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर हांसी दुर्ग पर स्वराज्य की स्थापना की लेकिन शीघ्र ही अंग्रेजी फौजी ने आंदोलन दबा दिया।
जन्म परिचय-मिर्जा मुनीर बेग
मिर्जा मुनीर बेग के पूर्वज मुगल बादशाह बाबर के साथ भारत में आए थे। जब राजकुमार हुमायूं को हिसार, हांसी का जागीरदार बनाया गया तो मिर्जा मुनीर बेग के पूर्वज बिन्दुबेग को हांसी का नाजीम नियुक्त किया गया। डडल पार्क से धोला कुआं के बीच बेग परिवार की एक विशाल हवेली थी। जिसे 1947 में मची मारकाट के दौरान बलवाईयों ने तोड़कर खाक कर दिया था। इनके पूर्वज मिर्जा अजीम बेग व मिर्जा इलियास बेग उस समय शासन प्रबंध के सहयोगी थे। सन् 1857 के विद्रोह में मिर्जा मुनीर बेग ने हांसी क्षेत्र में मुसलमान विद्रोहियों का नेतृत्व किया था। सन् 1947 तक इनके वंशज मौहल्ला मुगलपुरा(वर्तमान रामपुरा) में रहते थे। लेकिन हिंदू-मुस्लिम दंगों में देश के विभाजन के बाद इनके वंशज मुलतान पाकिस्तान में चले गए। मुनीर बेग के वंशज आज भी मुलतान में रह रहे हैं।



अरूणा आसफ अली ने तिरंगा फहराकर अंग्रेजों को दी खुली चुनौती
संदीप सिंहमार।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में असंख्य क्रांतिकारियों ने प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप अपना योगदान दिया। इस आंदोलन में पुरुष क्रांतिकारियों के साथ-साथ महिला क्रांतिकारी ने भी कंधे से कंधा मिलाकर काम किया। आजादी की जंग में देश की महिलाओं के बलिदान को हमेशा के लिए याद रखा जाएगा। लेकिन विडंबना यह है कि जिन वीरांगनाओं ने अपना संपूर्ण जीवन देश को अंग्रेजों की बेडिय़ों से मुक्त करने में लगा दिया, उन्हें साहित्य से दूर रखा गया। अरूणा आसफ अली भी एक ऐसी ही महिला स्वतंत्रता सेनानी है। 1930 के दशक में अंग्रेजों को सोचने के लिए मजबूर करने वाली अरूणा आसफ अली को आज कृतज्ञ राष्ट्र के लोगों द्वारा भुला दिया गया है। महात्मा गांधी के आह्वान पर हुए 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अरूणा आसफ अली ने सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था। इतना ही नहीं जब सभी प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिए गए तो उन्होंने अद्भुत कौशल का परिचय दिया और 9 अगस्त के दिन मुम्बई के गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा झंडा फहराकर अंग्रेजों को देश छोडऩे की खुली चुनौती दे डाली।
कालका में हुआ था जन्म
भारत के स्वाधीनता संग्राम में महान योगदान देने वाली अरूणा आसफ अली का जन्म 16 जुलाई 1909 को हरियाणा (तत्कालीन पंजाब) के कालका में हुआ था। लाहौर और नैनीताल से पढ़ाई पूरी करने के बाद वह शिक्षिका बन गई और कोलकाता के गोखले मैमोरियल कॉलेज में अध्यापन कार्य करने लगी। 1928 में स्वतंत्रता सेनानी आसफ अली से शादी करने के बाद अरूणा भी स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने लगी। शादी के बाद उनका नाम अरूणा आसफ अली हो गया। परतंत्रता के दिनों में भारत की दुर्दशा और अंग्रेजों के अत्याचार देखकर अरूणा आसफ अली स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने लगी। उन्होंने महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आजााद की सभाओं में भाग लेना आरंभ कर दिया। वह इन दोनों नेताओं के संपर्क में आई और उनके साथ कर्मठता से राजनीति में भाग लेने लगी। अरूणा आसफ अली सन 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में पहली बार जेल गई। 1930 के दशक में अंग्रेजी हुकूमत उनसे बहुत परेशान थी क्योंकि उनकी गिनती अंग्रेजों की नजर में खतरनाक क्रांतिकारियों में थी।
भूख हड़ताल कर जेल के हालात सुधारे
सन् 1931 में गांधी इरविन समझौते के तहत सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया गया। लेकिन अरूणा आसफ अली को नहीं छोड़ा गया। इस पर महिला कैदियों ने उनकी रिहाई न होने तक जेल परिसर छोडऩे से इंकार कर दिया। माहौल बिगड़ते देख अंग्रेजों को अरूणा को भी रिहा करना पड़ा। सन् 1932 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और दिल्ली की तिहाड़ जेल में रखा गया। वहां उन्होंने राजनीतिक कैदियों के साथ होने वाले दुव्र्यवहार के खिलाफ भूख हड़ताल की, जिसके चलते गोरी हुकूमत को जेल के हालात सुधारने को मजबूर होना पड़ा। रिहाई के बाद राजनीतिक रूप से अरूणा ज्यादा सक्रिय नहीं रही लेकिन 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ तो वह आजादी की लड़ाई में एक नायिका के रूप में उभरकर सामने आई।
अंग्रेजी हुकूमत ने रखा अरूणा पर 5 हजार का ईनाम
गांधी जी के आह्वान पर 8 अगस्त 1942 को कांग्रेस के मुम्बई सत्र में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास हुआ। गोरी हुकूमत ने सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। ऐसे में अरूणा आसफ अली ने गजब की दिलेरी का परिचय दिया। 9 अगस्त 1942 को उन्होंने अंग्रेजों के सभी इंतजामों को धता बताते हुए मुंबई के गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा झंडा फहरा दिया। ब्रितानिया हुकूमत ने उन्हें पकड़वाने वाले को 5 हजार रुपए का ईनाम देने की घोषणा की। 1942 के बाद अरूणा आसफ अली भूमिगत हो गई थी। इस दौरान अंग्रेजी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करने के लिए एडी-चोटी का जोर लगाया। लेकिन वह अंग्रेजों की गिरफ्त से बाहर रही। इसी बीच वह बीमार पड़ गई। जब वह काफी दिनों तक बीमार रही तो भारत के शीर्ष नेताओं ने उन्हें अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण करने की बात कही। लेकिन इस स्वाभिमानी वीरांगना ने स्पष्ट इंकार कर दिया। 1946 में गिरफ्तारी वारंट वापस लिए जाने के बाद वह लोगों के सामने आई। आजादी के बाद भी अरूणा ने राष्ट्र और समाज के कल्याण के लिए बहुत से काम किए। सन् 1948 में अरूणा आसफ अली सोशलिस्ट पार्टी में सम्मिलित हुई। 2 साल बाद सन् 1950 में उन्होंने लेफ्ट सोशलिस्ट पार्टी बनाई और वे सक्रिय होकर मजदूर आंदोलन में जी जान से जुट गई।
'बेटा, मां को कभी न भूलना
अरूणा आसफ अली की जीवन शैली काफी अलग थी। अपनी उम्र के आठवें दशक में भी उन्होंने सार्वजनिक परिवहन से सफर जारी रखा। एक बार अरूणा आसफ अली दिल्ली में यात्रियों से ठसाठस भरी बस में सवार थीं। कोई सीट खाली नहीं थी। उसी बस में आधुनिक जीवनशैली की एक युवा महिला भी सवार थी। एक आदमी ने युवा महिला की नजरों में चढऩे के लिए अपनी सीट उसे दे दी। लेकिन उस महिला ने अपनी सीट अरूणा को दे दी। इस पर वह व्यक्ति बुरा मान गया और युवा महिला से कहा कि यह सीट मैनें आपके लिए खाली की थी बहन। इसके जवाब में अरूणा आसफ अली तुरंत बोली 'मां को कभी न भूलो क्योंकि मां का हक बहन से पहले होता हैÓ। इस बात को सुनकर वह व्यक्ति काफी शर्मसार हो गया।
मरणोपरांत मिला भारत रत्न सम्मान
वर्ष 1958 में वह दिल्ली की प्रथम महापौर चुनी गई। राष्ट्र निर्माण में जीवन पर्यन्त योगदान के लिए उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। 1964 में उन्हें अंतरराष्ट्रीय लेनिन शांति पुरस्कार मिला। सन 1991 में अरूणा को जवाहर लाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय एकता के लिए 1992 में पद्म विभूषण और इंदिरा गांधी अवार्ड से सम्मानित किया गया। देश के गुलामी के दिनों व आजादी के बाद ताउम्र इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने हमेशा ही देशहित में कार्य किए। लेकिन देश के साहित्यकारों ने अरूणा को कभी उचित स्थान नहीं दिया। 29 जुलाई 1996 को इस महान वीरांगना ने इस नश्वर संसार को अलविदा कह दिया। भारत सरकार ने 1997 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्नÓ से सम्मानित किया। 1998 में उनकी याद में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। देश के लिए अपना संपूर्ण जीवन कुर्बान करने वाली अरूणा आसफ अली आज के आधुनिक भारत की महिलाओं के लिए एक आदर्श है तथा ऐसी शख्सियत को हमेशा के लिए याद रखा जाना चाहिए।

Thursday, June 30, 2011


गांवों से गायब हो रही है दो बैलों वाली गाड़ी

अब गलियों में नहीं सुनाई देती है चुर्र-चूं-चुर्र-चूं की आवाज
हिसार (संदीप सिंहमार)। एक समय था जब प्रदेश के गांवों में दो बैलों की गाड़ी (बैलगाड़ी) गांव की गलियों व खेतों में सुबह से लेकर रात होने तक आते-जाते दिखाई देती थी। ग्रामीण दो बैलों वाली गाड़ी को अपना आदर्श वाहन मानते थे। लेकिन आम आदमी की सवारी कहे जाने वाली यह गाड़ी अब गांवों से गायब होती जा रही है। ग्रामीण विशेषकर किसान बोझा ढोने, खेती के कार्य के लिए अकसर दो बैलों की गाड़ी का ही प्रयोग करते थे। किसानों व ग्रामीणों के लिए इससे सस्ता वाहन कुछ भी नहीं था। करीब तीन दशक पहले तक किसानों के लगभग दूसरे या तीसरे घरों में भी ये गाड़ी देखने को मिलती थी, किसान इनका प्रयोग खेती के कामों, व्यावसायिक जरूरतों को पूरा करने व सफर का आनंद लेने के लिए करते थे। लेकिन मशीनीकरण का युग आने के कारण धीरे-धीरे दो बैलों की गाड़ी अब लगभग गायब हो गई है। यह नहीं है कि गांवों में वर्तमान युग में बैलगाड़ी देखने को नहीं मिलती, बैलगाड़ी तो है अब लेकिन बैलगाड़ी में दो की बजाय एक ही बैल देखने को मिलता है। इसे बदलते परिवेश का नतीजा कहे या कुछ ओर। दो बैलों की गाड़ी कम होने का एक कारण ट्रैक्टर माना जा रहा है, वहीं महंगाई भी इसका एक कारण है। महंगाई बढऩे से बैलों की कीमत भी आसमान छूने लगी है।
शुभ मानी जाती थी बैलगाड़ी
गांवों में जब भी कोई शुभ कार्य आयोजित किया जाता था तो सामान लाने के लिए बैलगाड़ी का ही प्रयोग शुभ माना जाता था। शादी समारोह में मंडप सजाने के लिए जंगल से पलास के पते लाने के लिए व चिनाई के कार्य के दौरान तालाब-पोखर से पानी लाने हेतु बैलगाड़ी का प्रयोग शुभ माना जाता था। लेकिन बदलते परिवेश में अब बैलगाड़ी का स्थान ऑटो रिक्शा व मोटर गाड़ी ने ले लिया है।
बैलगाड़ी की बनावट
वैसे तो बैलगाड़ी देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग रूपों में मिलती है। हरियाणा में भी बैलगाड़ी के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। दो बैलों वाली गाडिय़ों में लोहे के पहिए होते थे, जिन्हें खींचने के लिए बैलों को बहुत जोर लगाना पड़ता था। लोहे के पहियों को टिकाणी पर फिट करने के लिए शण लगाया जाता था। शण जब सिकुड़ जाता था तो बैलगाड़ी के पहियों से गलियों में चुर्र-चूं-चुर्र-चूं की आवाज सुनाई देती थी। रबड़ के टायर लगी बैलगाड़ी बनने के बाद लोगों ने दो के स्थान पर एक बैल का प्रयोग करना शुरू कर दिया। वहीं शण का स्थान भी बैरिंग ने ले लिया। पहियों व टिकाणी के बीच बैरिंग लगने से बैल आसानी से बैलगाड़ी को खींच सकते हैं। बैलगाड़ी को गाड़ा, बुग्गी व रेहड़ू आदि नामों से भी जाना जाता है। बैलगाड़ी के निर्माण में टिकाणी या धुरी पर एक चौरस लकड़ी की बाडी बनाई जाती है। बाडी में फड़ व फड़ पर जुआ लगाया जाता है। जिसमें बैलों को जोड़ा जाता है। जुए में लकड़ी की सिमल व सिमल में बैलों को जोड़ते हुए जोत लगाई जाती है और आडर पर बैठकर बैलगाड़ी चलाई जाती है।
त्यौहारों पर सजाए जाते थे बैल
बैलगाड़ी में जुडऩे वाले बैलों को समय-समय पर त्यौहारों पर सजाया जाता था। खासकर दीपावली पर बैलों के गले में मोर के पंखों व पुराने कपड़ों से बनाए गए गजरे पहनाए जाते थे। बैलों के पीठ पर दोनों तरफ मेहंदी व सींगों पर सरसों का तेल लगाया जाता था। मेले के अवसरों पर गले में चौरासी बांधी जाती थी। सुबह-शाम बैलगाड़ी आते-जाते हुए चौरासी के घूंघरूओं की आवाज सभी के कानों को भाती थी।
घुमंतू जाति आज भी घूमती है बैलगाडिय़ों पर
देश-प्रदेश के गांवों से चाहे आज बैलगाडिय़ों का चलन कम हो गया हो लेकिन घुमंतू जनजाति (पछइहां लोहार) के लोग अब भी बैलगाड़ी में ही अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं। देश-प्रदेश के कोने-कोने में घूमकर खाने-कमाने वाली यह जाति बैलगाड़ी में ही सफर कर इसे ही अपना आशियाना भी बना लेते हैं। इस जाति के लोग विभिन्न स्थानों पर अपना पैतृक पेशा पुराने लोहे को गरम कर चिमटा, ताकू, तासला, झारनी, कड़ाही व करछुला व पलियां बनाकर बेचते हैं।
सिनेमा जगत में बैलगाड़ी
सिनेमा जगत में कई फिल्मों में बैलगाड़ी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। बैलगाड़ी को जीवंत रूप में प्रस्तुत किया गया है। वासु भट्टाचार्य की फिल्म 'तीसरी कसमÓ की पूरी कहानी बैलगाड़ी के इर्द-गिर्द ही घूमती है। इस फिल्म के सभी गाने बैलगाड़ी में ही फिल्माए गए हैं। पात्र हीरामन बैलगाड़ी में बैठा गा रहा है, 'सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, न हाथी है न घोड़ा है, वहां पैदल ही जाना है, दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाईÓ। इसी तरह इसी फिल्म का गाना 'सजनवा बैरी हो गए हमार, करमवा बैरी हो गए हमार, चिट्ठियां हो तो हर कोई बांचे, भाग न बांचे कोए भी बैलगाड़ी पर ही हीरामन गाता प्रतीत होता है। महान फिल्मकार विमलराय की फिल्म 'दो बीघा जमीनÓ व देवदास में भी बैलगाड़ी की अपनी अहमियत है। अन्य फिल्में आशीर्वाद व गीत गाता चल में बैलगाड़ी को विशेष स्थान दिया गया है। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम द्वारा बनाई गई एक फिल्म में तो फिल्म की शुरूआत ही बैलगाड़ी में बैठे एक बुजुर्ग से की गई है।

अब नहीं दिखाई देते गांव की चौपाल में बजने वाले रेडियो
टेलीविजन के आगमन से फीकी हुई रेडियो की शान
हिसार (संदीप सिंहमार)
एक जमाना था जब प्रदेश के हर गांव व शहरों में रेडियो रखना गौरव की बात मानी जाती थी। लोगों के लिए भी रेडियो ही संचार का प्रमुख साधन था, दूसरा कोई विकल्प खुले रूप से लोगों के पास नहीं था। गांवों में तो ग्रामीणों के लिए मनोरंजन के साधन कम होने व सूचनाएं देर से पहुंचने के कारण रेडियो ही इसकी पूर्ति करता था। शुरूआती दिनों में पूरे गांव में एक या दो ही रेडियो होते थे। ग्रामीण रेडियो पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम सुनने के लिए गांव की चौपाल में सायंकाल को इकट्ठे होते थे। एक निश्चित समय पर गांव की चौपाल में मौजिज व्यक्तियों द्वारा रेडियो बजाया जाता था, उस समय हर कोई रेडियो पर चलने वाले कार्यक्रमों को बड़े चाव से सुनते थे। लेकिन समय ने करवट बदली तो टेलीविजन का प्रचलन बढ़ गया। जब से टेलीविजन का आगमन हुआ तो लोगों ने भी अपने मनोरंजन व सूचनाओं के पुराने साधन पर विश्वास करना छोड़ दिया और टेलीविजन में अपनी आस्था जतानी शुरू कर दी। टेलीविजन के प्रचलन से एक तरफ जहां लोगों को सुनने के साथ-साथ चित्र देखने को मिले वहीं रेडियो की शान धीरे-धीरे फीकी पड़ती चली गई। करीब दो दशक पहले तक गांवों में बड़े आकार के रेडियो देखे जा सकते थे, जो कई बुजुर्गों के पास अब भी टूटी-फुटी अवस्था में दिखाई देते हैं। लेकिन अब उनमें वो मधुर आवाज नहीं है। यदि बुजुर्ग रेडियो ठीक करवाने के लिए भी कहें तो आज मार्केट में रेडियो के मिस्त्री भी कम ही मिलते हैं। घर के अन्य सदस्य भी बुजुर्गों का साथ नहीं देंगे। दो दशक पहले तक रेडियो लकड़ी के डिब्बे में बंद होता था ताकि उसको लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सके।

रेडियो पर सांग का रहता था इंतजार
रेडियो का चलन जब अपने चरम पर था तो हरियाणा प्रदेश में उस समय हरियाणवीं सांगों की परंपरा भी शिखर पर पहुंच चुकी थी। प्रदेश के गांवों में जवान, बुजुर्ग व महिलाएं सभी सांग सुनने के इच्छुक होते थे। पंडित लख्मीचंद, मांगेराम, बाजे भगत, ताऊ सांगी, झंडू मीर, रामकिशन ब्यास व धनपत आदि लोक कवि गांव-गांव में सांग करते थे। ग्रामीण गांवों में होने वाले सांगों को साक्षात रूप से तो चाव से देखते ही थे लेकिन वही सांग जब साप्ताहिक तौर रेडियो पर चलता था तो लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। लोगों को रेडियो पर सांग सुनने का इंतजार रहता था, आधी रात तक ग्रामीण सांग व अन्य पुराने गीतों का लुत्फ उठाते थे। धीरे-धीरे परंपरा समाप्त होने के साथ ही रेडियो पर सांग सुनने का प्रचलन भी कम हो गया। हालांकि रेडियो पर सांग का कार्यक््रम अब भी प्रसारित किया जाता है लेकिन वर्तमान समय में सांग के श्रोता नहीं रहे। लोगों को अब चकटारे वाले गीत गाने ही मन को भाते हैं।

काम में नहीं आती बाधा
टेलीविजन आने के बाद पुराने समय से चल रहे रेडियो का साथ लोगों ने चाहे छोड़ दिया हो लेकिन रेडियो विशेषताओं का खजाना माना जाता है। एक तरफ जहां टेलीविजन देखते समय हर कोई टेलीविजन की तरफ लगातार देखता व सुनता है। ऐसा करने से व्यक्ति इसी वक्त दूसरा काम करने में असमर्थ होता है। जबकि रेडियो पर कार्यक्र सुनते हुए व्यक्ति अपना कोई भी कार्य आसानी से पूर्ण कर सकता है। रेडियो सुनते हुए दिमागी तौर पर काम करने के लिए किसी भी काम में बाधा नहीं पहुंचती क्योंकि काम करते हुए रेडियो भी सुना जा सकता है।

1927 में प्रायौगिक तौर पर शुरू हुआ रेडियो प्रसारण
1927 में प्रायौगिक तौर पर रेडियो प्रसारण शुरू किया गया। 1936 में देश में सरकारी इम्पेरियल रेडियो ऑफ इंडिया की शुरूआत हुई जो आजादी के बाद ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी बन गया। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरूआत होने पर भारत में भी रेडियो के सारे लाईसेंस रद्ध कर दिए व ट्रांसमीटरों को सरकार के पास जमा करवाने के आदेश दे दिए। इसी बीच कुछ समय के बाद 27 अगस्त 1942 को मुम्बई के चौपाटी इलाके के सी.यू बिल्डिंग से नैशनल काग्रेंस रेडियो कप प्रसारण शुरू हो गया। यह रेडियो स्टेशन चलानें में अहम भूमिका निभाने वाले रेडियो इंजीनियर नरीमन प्रिंटर व उद्घघोषक उषा मेहता को अंग्रेजों ने 12 नवम्बर 1942 को गिरफ्तार कर लिया। इसी के साथ नेशनल कांग्रेस रेडियो भी 2 महीने चलने के बाद बंद हो गया।

आजादी के बाद रेडियो का इतिहास
आजादी के बाद 1956-57 में इसका नाम ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी रखा गया । जहां तक आकाशवाणी का सवाल है,आजादी के समय 1947 में इसका केवल 6 केन्द्रों एंव 18 ट्रांसमीटरों का नेटवर्क था तथा इसकी पंहुच केवल 11 प्रतिशत लोगों तक थी। आज आकाशवाणी के 231 केन्द्र तथा 373 ट्रांसमीटर है आज इसकी पंहुच 99 प्रतिशत लोगों तक है। भारत जैसे बहु-संस्कृति,बहुभाषी देश में आकाशवाणी से 24 भाषाओं में इसकी घरेलू सेवा का प्रसारण होता था। आकाशवाणी मिडियम वेव,शार्ट वेव, एंव एफ.एम के माध्यम से प्रसारण सेवा प्रदान करती थी। आजादी के बाद अब तक भारत में रेडियो का इतिहास सरकारी रहा है। इसी बीच आम जनता को रेडियो स्टेशन चलाने देने की अनुमति के लिए केन्द्र सरकार पर दवाब बढ़ता गया। 1995 में मानवीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रेडियो तरंगों पर सरकार का एकाधिकार नही है। सन् 2002 में एन डी.ए. सरकार ने शिक्षण संस्थाओं को कैंपस रेडियो स्टेशन खोलने की इजाजत दी। 16 नवम्बर 2006 को यूपीए सरकार ने स्वंयसेवी संस्थाओं को रेडियो स्टेशन खोलने की अनुमति दे दी। परन्तु इन रेडियो स्टेशनों से समाचार या सम-सामयिक विषयों पर चर्चा का प्रसारण पर पाबंदी है।




एड्स व कैंसर से चार गुणा हैहैपेटाईटिस बी व सी से मरने वालों की संख्या
पीजीआई के अनुसार प्रदेश में 1 से 3 प्रतिशत लोग है इन बीमारियों के शिकार
हिसार~सन्दीप सिंहमार~
बीमारियां मानव शरीर को खोखला कर देती है। यह कहावत बहुत पुरानी मानी गई है। बीमारी छोटी हो या बड़ी सभी मनुष्य के शरीर पर अपना प्रभाव छोड़ती है, लेकिन कुछ बीमारियां ऐसी भी है जो प्रदेश में दिन-प्रतिदिन तेज गति से बढ़ती जा रही है। इन्हीं बीमारियों में शामिल है हैपेटाईटिस। इस बीमारी को आम भाषा में पीलिया के नाम से जाना जाता है। मेडिकल साइंस के अनुसार हैपेटाईटिस के पांच प्रकार होते हैं-ए, बी, सी, डी और ई। वैसे तो हैपेटाईटिस के सभी प्रकार मनुष्य के लिए खतरनाक होते हैं लेकिन हैपेटाईटिस बी व सी मनुष्य के शरीर के लिए घातक सिद्ध होते हैं। आमतौर पर जब लोग हैपेटाईटिस के शिकार होते हैं तो वे इस बीमारी को गंभीरता से नहीं लेते। इस बीमारी को पीलिया का नाम देते हुए आरंभिक तौर पर अपने स्तर पर इसका ईलाज करने में जुट जाते हैं। ईलाज करने की यह विधि कई बार मनुष्य की जान भी ले लेती है। देश में हैपेटाईटिस बी व सी एचआईवी एड्स और कैंसर से भी अधिक गति से फैल रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में वर्तमान समय में करीब सवा करोड़ लोग इन गंभीर बीमारियों से पीडि़त है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर वर्ष हैपेटाईटिस बी व सी बीमारी से मरने वालों की संख्या एचआईवी एड्स से मरने वालों की संख्या से करीब चार गुणा है। हरियाणा प्रदेश के भी आंकड़े चौंकाने वाले हो सकते हैं। पंडित भगवतदयाल शर्मा आयुर्विज्ञान संस्थान (पीजीआई) रोहतक के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश के 1 से 3 प्रतिशत लोग हैपेटाईटिस बी के वायरस से पीडि़त हैं। प्रदेश में हैपेटाईटिस बी व सी के मरीजों की बढ़ती संख्या के बावजूद भी लोग व प्रदेश का स्वास्थ्य विभाग इस बीमारी को गंभीरता से नहीं ले रहा है।
कैसे फैलता है हैपेटाईटिस बी व सी
हैपेटाईटिस बी व सी संक्रमित रक्त संचार या संक्रमित मेडिकल उपकरणों के इस्तेमाल से होता हैं। वायरस के इंफैक्शन से ग्रस्त महिला के बच्चों को भी यह संक्रमण होने का खतरा होता है। चिकित्सकों का मानना है कि इस वायरस से पीडि़त व्यक्ति या महिला के साथ असुरक्षित यौन संबंध बनाने से भी हैपेटाईटिस बी फैलने की संभावना रहती है। लेकिन झूठा खाने व हाथ मिलाने से यह बीमारी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं फैलती।
टैटू गुदवाने से भी फैलता है हैपेटाईटिस बी
आम तौर पर प्रदेश के बस स्टैंड व रेलवे स्टेशनों के बाहर शरीर पर टैटू गोदने का काम करने वाले लोग अपनी छोटी सी मशीन लेकर बैठे रहते हैं। आज के युवाओं को शरीर पर टैटू गुदवाने का बहुत शौक है। टैटू गुदवाने का शौक विशेष तौर पर ग्रामीण लोगों में अधिक रहता है। टैटू गोदने वाला व्यक्ति अपनी एक ही सूई से हमेशा एक दूसरे व्यक्ति के शरीर पर टैटू गोदता है। चिकित्सकों के अनुसार इससे हैपेटाईटिस बी व सी फैलने का खतरा बना रहता है। हैपेटाईटिस बी से बचाव के लिए तो टीकाकरण भी किया जाता है लेकिन हैपेटाईटिस सी के नियंत्रण के लिए कोई टीका अभी तक उपलब्ध नहीं है। केवल जागरूकता ही बचाव का महत्वपूर्ण साधन हो सकता है।
ब्लड बैंकों के आंकड़े भी चौंकाने वाले
हैपेटाईटिस बी व सी से पीडि़त मरीज वैसे तो प्रदेश के विभिन्न सरकारी व निजी अस्पतालों में पहुंचकर अपना ईलाज करवा लेते हैं। जिनकी संख्या निश्चित तौर पर नहीं आंकी जा सकती। लेकिन भिवानी के सिविल अस्पताल में स्थित सरकारी ब्लड बैंक में वर्ष 2010 में विभिन्न शिविरों के माध्यम से कुल 4006 यूनिट रक्त एकत्रित किया गया। इस संबंध में ब्लड बैंक प्रभारी संजय वर्मा ने बताया कि वर्ष 2010 में एकत्रित किए गए रक्त की जांच के दौरान हैपेटाईटिस बी के 31 व हैपेटाईटिस सी के 12 मामले सामने आए हैं। इसी तरह हिसार के सामान्य अस्पताल के ब्लड बैंक पर एक नजर डाली जाए तो यहां हर माह रक्त जांच के दौरान 4-5 व्यक्ति हैपेटाईटिस बी व सी से संक्रमित मिलते हैं। भिवानी व हिसार के अलावा प्रदेश के अन्य जिलों की भी स्थिति इसी प्रकार से हो सकती है।
क्या कहते हैं पीजीआई मेडिशियन विभागाध्यक्ष
इस संबंध में रोहतक मेडिकल कॉलेज के मेडिशियन विभागाध्यक्ष डॉ.प्रताप सिंह गहलोत ने कहा कि प्रदेश में हैपेटाईटिस बी के मरीजों की संख्या एचआईवी एड्स व कैंसर के मरीजों से अधिक है। प्रदेश की कुल जनसंख्या के 1 से 3 फीसदी लोग हैपेटाईटिस बी से पीडि़त है। डॉ.गहलोत ने बताया कि हैपेटाईटिस बी व सी दोनों खतरनाक बीमारी है। यदि समय पर ध्यान न दिया जाए तो यह जानलेवा भी हो सकती है। उन्होंने बताया कि हैपेटाईटिस बी और सी का संक्रमण लीवर सिरोसिस व लीवर कैंसर का मुख्य कारण है।



ईब मारै स फेर रोवेगी बंजारे की ढाला....
- किस्से व कहानियों का गवाह है लक्खी बंजारे का मकबरा
हिसार (संदीप सिंहमार)। कभी देश के मुख्य नगरों में शुमार रहे ऐतिहासिक नगर हांसी में कई स्थानों पर ऐसी धरोहरें हैं जिन्हें देखकर कोई भी आगंतुक सोचने के लिए मजबूर हो जाता है। धरोहरों की निर्माण कला का तो बेजोड़ नमूना दिखाई देता है। हांसी जहां मुगलकाल, हिन्दू सम्राटों व गुलामी के दिनों में ब्रिटीश हुकूमत के सरदारों के लिए केंद्र रहा वहीं इस धरती को सूफी संतों की धरती के नाम से भी जाना जाता है। हांसी शहर के दक्षिण में आज भी चार सूफी संतों के नाम से बनी दरगाह चारकुतुब देखी जा सकती है। मुस्लिम समाज के लिए चारकुतुब दरगाह का अपना विशेष महत्व है। इसी दरगाह के दक्षिण प्रांगण में बने कब्रिस्तान में एक विशाल मकबरा बना हुआ है। यह मकबरा बंजारा जाति में मशहूर रहे लक्खी बंजारे के मकबरे के नाम से जाना जाता है। इस ऐतिहासिक मकबरे के बारे में शहर के प्रमुख लोगों के साथ-साथ आसपास रहने वाले लोग भी नहीं जानते। इतिहास में भी हांसी में स्थित पृथ्वीराज चौहान के दुर्ग व बड़सी गेट को जो स्थान मिला वह स्थान लक्खी बंजारे के मकबरे को नहीं मिल सका।
आज गंदगी व अतिक्रमण का शिकार हुआ मकबरा
कब्रिस्तान के प्रांगण में जहां मकबरा है वहां आज गंदगी का आलम छाया हुआ है। इर्द-गिर्द के क्षेत्र में स्थानीय लोगों द्वारा कब्जे कर लिए गए हैं। मकबरे के करीब 100 मीटर की परिधि में भी अवैध निर्माण दिखाई दे रहे हैं। कभी शान से बनवाया गया यह मकबरा अब अपनी शान बचाने के लिए इंतजार कर रहा है। दिन-प्रतिदिन बढ़ते अतिक्रमण व गंदगी से मकबरे का क्षेत्र अब दूर से दिखाई ही नहीं देता है।
बड़सी गेट से मिलता है मकबरे का स्वरूप
कहा जाता है कि इस मकबरे को लक्खी नामक बंजारे ने बनवाया था। इसके निर्माण में लाख रंग के पत्थरों का प्रयोग किया गया है। निर्माण की दृष्टि से इसका स्वरूप हांसी में अलाऊदीन खिलजी द्वारा बनवाए गए ऐतिहासिक बड़सी दरवाजे से मिलता है। मकबरे के अंदर जाने के लिए चार गेट बने हुए हैं। गेटों की रूपरेखा बड़सी दरवाजे के समान बनी हुई है। इसी की तरह पत्थरों को उकेर कर इसे बनाया गया है।
मकबरे में दफनाया गया था बंजारे का शव
कहा जाता है कि लक्खी बंजारा एक धनवान चरवाहा था, उसके पास एक लाख भेड़-बकरियां हुआ करती थी। लक्खी जन्म से हिंदू था लेकिन दरगाह चारकुतुब के पहले कुतुब शेख जमालउद्दीन साहब के प्रति अपार श्रद्धा भाव होने के कारण उन्होंने मुस्लिम धर्म अपना लिया था। लक्खी ने कुतुब शेख जमालउद्दीन साहब को अपना गुरू भी माना। इतिहास की धरोहर हांसी के अनुसार लक्खी बंजारे ने एक बार अपने गुरू को कहा कि आपके इन्तकाल(देहांत) के बाद आपके शरीर को इस मकबरे में दफनाया जाना चाहिए, ऐसी मेरी इच्छा है। इस बात पर गुरूजी ने कहा कि यह तो खुदा पर निर्भर है कि मकबरा किस के लिए बना है। बताया जाता है कि लक्खी बंजारे का देहांत अपने गुरू से पहले हो गया और इस मकबरे में उसके शव को दफनाया गया। आज भी मकबरे में बंजारे की मजार देखी जा सकती है। यह मजार सफेद संगमरमर के पत्थरों से बनाई गई है। पहले मकबरे के दरवाजों को ईंटों से ढककर रखा जाता था लेकिन आजकल इसके सभी दरवाजे खुले हैं।
पंडित लख्मीचंद व मांगेराम की रचनाओं में है लक्खी बंजारे का जिक्र
लक्खी बंजारे की कहानी कोई नई कहानी नहीं है। देश के हर हिस्से में इस बंजारे के किस्से सुने जा सकते हैं। देश के प्रत्येक राज्यों की संस्कृति के अनुसार उनके किस्से भी अलग-अलग तरह के घड़े गए हैं। हरियाणा भी इससे अछूता नहीं है। हरियाणवी रागनियों व लोकगीतों में अपने समय में नाम कमाने वाले पंडित लख्मीचंद व मांगेराम ने भी अपनी काव्य रचनाओं में लक्खी बंजारे का प्रमुखता से जिक्र किया है। हरियाणवीं लोक गीतों 'हम सभी राजपूत जात के, नहीं मरण का टाला, ईब मारै स फेर रोवेगी बंजारे की ढालाÓ व 'कुता मार बंजारा रोया या वाए कहाणी बणगी, मै काला था तूं भूरी, मेरी क्यूकर रानी बणगीÓ आदि में लक्खी बंजारे का जिक्र सुना जा सकता है।
कुता मार बंजारा रोया
लोककथाओं के अनुसार लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) शहर में लक्खी नामक एक साहुकार बंजारा रहता था। वह अपने समय में कभी 352 सरकियों का मालिक था। समय गुजरता गया और लक्खी बंजारे का सब कुछ लूट गया, यहां तक की उसके परिवार के सदस्य भी नहीं बचे। लक्खी बंजारे के पास बचा तो सिर्फ उसका वफादार कुता। कहते हैं कि बंजारा अपने कुत्ते को साथ लेकर चलता हुआ आगरा शहर तक पहुंच गया। इससे पहले गरीब बेहाल हुए बंजारे पर काफी कर्ज चढ़ गया। एक किंवदंती के अनुसार यहां आकर लक्खी बंजारे ने एक साहुकार से कर्ज लेना चाहा। साहुकार ने कर्ज देने के बदले कुछ गिरवी रखने की बात कही। साहुकार की इस बात पर लक्खी बंजारे ने कर्ज के बदले में अपने वफादार कुत्ते को साहुकार के पास गिरवी रख दिया। बंजारे ने अपने कुत्ते को कर्ज न चुकाने तक साहुकार के पास रहने के लिए कहा। बताया जाता है कि साहुकार के घर एक रात को डकैती पड़ जाती है। चोर जिस समय साहुकार के घर में चोरी कर रहे थे वह कुत्ता गली में खड़ा यह सारा दृश्य देखता रहा। जब चोर धन लेकर चले तो कुत्ता पीछे-पीछे चलता रहा। चोरों ने धन गांव से बाहर एक तालाब के किनारे दबा दिया। कुत्ता यह सब देखकर वापिस साहुकार के दरवाजे पर आ गया। सुबह जब साहुकार के घर चोरी होने के कारण हड़कंप मचा तो वह कुत्ता बार-बार अपने साहुकार की धोती को पकड़कर खिंचने लगा। उसी दौरान एक वृद्ध ने कहा कि यह कुत्ता इशारों के द्वारा कुछ कह रहा है। बताते हैं कि कुत्ता आगे-आगे चलता रहा और सभी लोग उसके पीछे चलने लगे। कुत्ता सभी को उसी स्थान पर ले गया जहां चोरों ने लूटने के बाद धन को दबाया था। उस स्थान को जब खोदकर देखा गया तो साहुकार का सारा धन वहीं दबा मिल गया। कुत्ते की इस समझदारी को देखकर साहुकार ने समझा कि लक्खी बंजारे का यह कुत्ता कोई मामूली कुत्ता नहीं है। अपना चोरी हुआ धन मिलने के कारण साहुकार ने उस कुत्ते को अपने पास से रिहा करते हुए उसके गले में एक चिट्ठी लटका दी व कहा कि बंजारे का कर्ज आज पूरा हो गया। वह अपने मालिक के पास जा सकता है। चिट्ठी में भी कुत्ते की वफादारी के कारण रिहा करने की बात लिखी गई थी। इसी दौरान कुत्ता वहां से चलकर अपने स्वामी लक्खी बंजारे के ठिकाने पर पहुंच गया। जब लक्खी बंजारे को अपना कुत्ता आता हुआ दिखाई दिया तो उसने समझा कि वह कर्ज के बदले में साहुकार के पास इस कुत्ते को गिरवी रखकर आया था और आज इस कुत्ते ने वहां से भागकर मेरा अपमान करवाया है। बताते हैं कि उसी वक्त बंजारे ने तैश में आकर अपने कुत्ते को बिना सोचे-समझे मार दिया। कुत्ते के मरने के बाद बंजारे ने उसके गले में बंधी चिट्ठी खोलकर देखी तो उसमें उस कुते के गुणों का वर्णन किया गया था। जब बंजारे ने साहुकार द्वारा लिखी गई इस चिट्ठी को पढ़ा तो वह पछताता हुआ रोने लगा। इसी समय से भारतीय समाज में एक बात प्रचलित हुई कि मुझे मारकर तूं इस तरह पछताएगा, जिस तरह कुत्ते को मारकर बंजारा रोया था।




बदलते परिवेश में कहीं खो गया है तांगा
हिसार (संदीप सिंहमार)
1990 के दशक में देश के सभी गावों में तांगों की सवारी की जाती थी लेकिन अब तांगे कहीं भी दिखाई नहीं देते। जिन तांगों में कभी गांव से दूल्हे की बारात सजकर चलती थी व दुल्हन भी बड़े चाव से तांगे पर सवार होकर अपनी ससुराल आती थी उन्ही तांगों का प्रचलन यातायात क्रान्ति के कारण लगभग बंद हो गया। करीब दो दशक पहले तब लोग अपने नजदीकी गंतव्य तक पहुंचने के लिए तांगों की सवारी करते थे लेकिन वर्तमान युग में तांगों का स्थान चमचमाती गाड़ीयों व मध्यम वर्ग के लोगों के लिए तीन पहियों वाली आटो रिक्शा ने ले लिया। आधुनिक मशीनीकरण के युग में लोगों ने भी शीघ्रता से चलने की चाह में धीमी गति से चलने वाले तांगों को एकदम बिसार दिया है। तांगों के सहारे आजीविका चलाने वाले लोगों ने भी अपना ध्यान हटाकर आटो रिक्शा व अन्य वाहनों पर लगा दिया है।
मंहगाई भी एक कारण
तांगे बंद होने का एक कारण मंहगाई भी माना जा रहा है। तांगा चलाने के लिए अच्छी नस्ल का घोड़ा या घोड़ी क ी कीमत सातवें आसमान पर होने के कारण घोड़े खरीदना हर किसी के बस की बात नही है। इसके अलावा तांगा बनवाने में भी अच्छी खासी कीमत लगती है। जानकारों का मानना है कि आज एक तांगे की कीमत से दो ऑटो खरीदे जा सकतें हैं।
नवाब के लिए आरक्षित थी सीट
नवाबों के शहर के नाम से मशहूर लखनऊ में जितने भी तांगे चलते थे उनकी बीच की एक सीट नवाब के नाम से आरक्षित होती थी। तांगे में कितनी भी भीड़ क्यों न हो जाती पर उस आरक्षित सीट पर नवाब के सिवाए कोई नहीं बैठता था।
फिल्मों में भी था तांगा
दो या तीन दशक पहले की अधिकतर फिल्मों में तांगे की झलक जरूर दिखाई देती थी। सुपरहिट कॉमर्शियल फिल्म शोले से लेकर आर्ट फिल्म एक चादर मैली सी तक में तांगे वालों की भूमिका अहम थी। कई फिल्में तो तागें वाले के चरित्र के इर्द गिर्द ही बुनी गई थी। मर्द फिल्म का सुपर हिट गाना मैं मर्द तांगे वाला आज भी लोग गुनगुनातें हैं।
डायनोंसोर भी था तांगेवाले भी थे....
तांगे वाला और उसका तांगा अब किस्से कहानियों और प्रदर्शनी की वस्तुओं तक ही सिमट कर रह गया है। आगामी पीढ़ी कहीं इमिहास की किताबों से पढ़कर या पुरानी फिल्मों से देखकर पूछेगी कि ये तांगे क्या बला थे तो हमें उन्हें डायनोसोर के अस्तिव की तर्ज पर बताना पड़ेगा कि हाँ वे कभी हुआ करते थे।
मैं पहलम तांगें में आई थी...
शहर में आए गांव के एक बुजुर्ग रामस्वरूप व 80 बसंत देख चुकी बुजुर्ग महिला भरपाई के सामने जब तांगो की सवारी का जिक्र किया गया तो वे अपने पुरानी यादों में खो गए। बुजुर्ग महिला ने ठेठ हरियाणवी लहजे में क हा कि मैने ब्याह में मेरा जाऊं तागें में ऐ बिठा के ल्याया था अर जिब मैं पहलम झटके आई थी तो भी तांगे मै बैठ के आई थी । आजकल तांगे बदं क्यों हो गए है पर उनका कहना था कि नई पीढी रफ्तार की शौकीन है और तांगे जैसे पुराने यातायात के साधन में खुद की तौहीन समझतें हैं।


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