Tuesday, July 5, 2011

इतिहास के पन्नों में नहीं है लाला हुकुमचंद व मिर्जा मुनीर बेग की शहादत
-हांसी से अंग्रेजों को खदेडऩे के लिए चलाया था आंदोलन
संदीप सिंहमार
अंग्रेजों की दासता से मुक्ति पाने के लिए जिन वीरों ने अपनी जान कुर्बान की, आज समाज उन वीर शहीदों को भुला रहा है। उन शहीदों के नाम देश के इतिहास में भी मुख्य रूप से शामिल नहीं किए गए हैं। ऐसे ही बिसार दिए गए शहीदों के नाम है लाला हुकुमचंद जैन कानूनगो व मिर्जा मुनीर बेग। लाला हुकुमचंद जैन हिंदू थे तो मिर्जा मुनीर बेग मुस्लिम समाज से थे। दोनों नेता अपने-अपने धर्म के लोगों में खासे प्रभावशाली व्यक्ति थे। 1857 की क्रांति से पहले दोनों नेता ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार भी थे। कई गांवों पर इनका शासन चलने के कारण गहरा प्रभाव बना हुआ था। ब्रिटिश सरकार ने ही लाला हुकुमचंद जैन को कानूनगो नियुक्त कर हांसी में बसाया था तो मिर्जा मुनीर बेग को भी एक महत्वपूर्ण पद दिया गया था। लेकिन अंग्रेजों के जुल्मों को दोनों नेताओं ने स्वीकार नहीं किया और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हांसी क्षेत्र में क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर अंग्रेजों को हिलाकर रख दिया। इन शहीदों के बारे में हांसी व हिसार के आसपास के बुजुर्ग व बुद्धिजीवी वर्ग के लोग तो अवश्य जानते हैं लेकिन युवा पीढ़ी इनके नामों व इनकी कुर्बानी के बारे में नहीं जानती। अंग्रेजों के जुल्मों से तंग आ चुकी देश की जनता ने 11 मई 1857 को मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को भारत का सम्राट घोषित कर दिल्ली में स्थित लालकिले में गद्दी पर बैठाया। मई 1857 के अंतिम सप्ताह में दिल्ली से मुगल परिवार का बादशाह शहजादा मुहम्मद आजम ने हांसी नगर आकर सम्राट बहादुरशाह जफर की तरफ से हांसी क्षेत्र के शासन को अपने हाथों में ले लिया। 29 मई 1857 को गांव रोहनात, पुट्ठी मंगल खां, जमालपुर, मंगाली, भाटोल, रांगड़ान, हाजमपुर, खरड़ अलीपुर के किसानों व हांसी के लोगों ने हांसी में अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। क्रांति के पहले ही दिन किले में घुसकर क्रांतिकारियों ने तहसीलदार को गोली से उड़ा दिया व कई अन्य अंग्रेज अफसरों को भी मौत के घाट उतार दिया।
इसी बीच हांसी में क्रांतिकारियों की कमान लाला हुकुमचंद जैन कानूनगो व मिर्जा मुनीर बेग ने संभाली। लालाजी हिंदू व मिर्जा बेग मुस्लिम होने के कारण भी दोनों नेताओं में किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं था। दोनों ही ब्रिटिश सरकार की गुलामी की बेडिय़ों को काटकर आजादी की खुली हवा में सांस लेना चाहते थे। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए 17 जून 1857 को लाला हुकुमचंद व मिर्जा मुनीर बेग ने दिल्ली के सुल्तान बहादुरशाह जफर को एक पत्र लिखकर हांसी से अंग्रेजों को खदेडऩे के लिए सहायता भेजने व शाही सेना का पूरा साथ देने की बात कही। पत्र मिलने के बाद ही शहजादा मुहम्मद आजम हांसी क्षेत्र में सक्रिय हुआ था। इस दौरान रांगड़ मुसलमानों व हिंदुओं ने मिल-जुलकर विद्रोह किया। क्रांतिकारियों ने अपने नेताओं के नेतृत्व में क्षेत्र में अनेक अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार कर अंग्रेजों से मुक्त होने का प्रयास किया। अंग्रेजी जनरल वार्न कोर्टलैंड ने अपनी दमनकारी नीति के द्वारा क्रांति को दबाने के लिए कप्तान माइल्डवे को भारी सेना के साथ हांसी भेजा। अपनी सेना की हार का समाचार सुनकर जनरल वार्न स्वयं हांसी पहुंचा। क्रांतिकारियों ने उनकी सेना के साथ भी अपने देशी हथियारों से जमकर मुकाबला किया। 20 सितंबर 1857 को दिल्ली पर अंग्रेजों ने एक बार फिर कब्जा कर लिया। बहादुरशाह जफर को गिरफ्तार कर उन्हें रंगून जेल में कैद कर दिया गया। ब्रिटिश सैनिकों ने किले की तलाशी के लिए अभियान चलाया तो तलाशी के दौरान लाला हुकुमचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग का वह पत्र अंग्रेजों के हाथ लग गया जो उन्होंने 17 जून 1857 को बादशाह बहादुरशाह के पास भेजा था। हांसी में विद्रोह अभी शांत नहीं हुआ था इसलिए विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने पलटन नं.14 को हांसी भेज दिया।
ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तारी के लिए जनरल वार्न को भेजा पत्र
जिला कलैक्टर हिसार जनरल वार्न के पास दिल्ली से तलाशी के दौरान मिला वह पत्र भेजा गया जिसमें लाला हुकुमचंद व मिर्जा मुनीर बेग ने बहादुरशाह के प्रति वफादारी की बात कही थी। जनरल वार्न कोर्टलैंड के आदेश पर लाला हुकुमचंद, उनके भतीजे फकीरचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग को गिरफ्तार कर हिसार की अदालत में राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। इस मुकदमे में लाला हुकुमचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग को फांसी की सजा सुनाई गई व फकीरचंद को पत्र लिखने के आरोप में पांच वर्ष की कैद की सजा सुनाई गई। अदालत द्वारा सुनाई गई सजा का स्थानीय लोगों ने विरोध भी किया। आखिर 19 जनवरी 1858 को लाला हुकुमचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग को लालाजी की हवेली के सामने सरेआम फांसी पर लटका दिया गया। दोनों क्रांतिकारियों ने अब सदा के लिए अपनी आंखें बंद कर ली थी। अंग्रेजों के जुल्म की इंतहा यहीं समाप्त नहीं हुई बल्कि फांसी के बाद इनके शव भी परिजनों को नहीं सौंपे गए। इनके शवों को धर्म के विपरीत आचरण करते हुए लालाजी के शव को दफनाया गया व मिर्जा मुनीर बेग के शव को भंगी के हाथों फूंक दिया गया। इसी दौरान अपने ताऊ के कहने पर पत्र लिखने वाले फकीरचंद को भी फांसी दी गई। हालांकि अदालत ने उसे पांच वर्ष की कैद की सजा सुनाई थी। फकीरचंद को फांसी देते वक्त सजा सुनाने वाले जज ने भी ऐतराज जताया था लेकिन अंग्रेजों ने उनकी भी बात अनसुनी कर दी।
लाला हुकुमचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग की शहादत के बाद देश आजाद होने के उपरांत भी केंद्र सरकार व राज्य सरकार को उनकी शहादत याद नहीं आई। लाला हुकुमचंद जैन की स्मृति में लाल लहरीमल जैन, एडवोकेट उमराव सिंह जैन व जौहरीमल ने अपने खर्च पर 22 जनवरी 1961 में एक पार्क बनवाया। इस पार्क में लाला हुकुमचंद जैन की प्रतिभा भी लगाई गई। बड़े खेद की बात यह है कि इस पार्क को आज भी शहीदों के नाम पर नहीं बल्कि डडल पार्क के ही नाम से जाना जाता है।
जन्म परिचय-लाला हुकुमचंद जैन
शहीद लाला हुकुमचंद जैन का जन्म 1816 ई0 में डडल पार्क मुगलपुरा हांसी में हुआ। इनके पिता दुनीचंद जैन क्षेत्र के कानूनगो थे। इनके परिवार के शीतलप्रसाद, खेमचंद, रामदयाल व जवाहरलाल के बाद ब्रिटिश सरकार ने लालाजी को सन् 1856 में हांसी का कानूनगो बनाया। इनके भाई किशनदास उस समय हांसी के नहर विभाग में कैनाल सिरस्तदार के पद पर थे। 29 मई 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में लाला हुकुमचंद जैन ने मिर्जा मुनीर वेग के साथ मिलकर क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर हांसी दुर्ग पर स्वराज्य की स्थापना की लेकिन शीघ्र ही अंग्रेजी फौजी ने आंदोलन दबा दिया।
जन्म परिचय-मिर्जा मुनीर बेग
मिर्जा मुनीर बेग के पूर्वज मुगल बादशाह बाबर के साथ भारत में आए थे। जब राजकुमार हुमायूं को हिसार, हांसी का जागीरदार बनाया गया तो मिर्जा मुनीर बेग के पूर्वज बिन्दुबेग को हांसी का नाजीम नियुक्त किया गया। डडल पार्क से धोला कुआं के बीच बेग परिवार की एक विशाल हवेली थी। जिसे 1947 में मची मारकाट के दौरान बलवाईयों ने तोड़कर खाक कर दिया था। इनके पूर्वज मिर्जा अजीम बेग व मिर्जा इलियास बेग उस समय शासन प्रबंध के सहयोगी थे। सन् 1857 के विद्रोह में मिर्जा मुनीर बेग ने हांसी क्षेत्र में मुसलमान विद्रोहियों का नेतृत्व किया था। सन् 1947 तक इनके वंशज मौहल्ला मुगलपुरा(वर्तमान रामपुरा) में रहते थे। लेकिन हिंदू-मुस्लिम दंगों में देश के विभाजन के बाद इनके वंशज मुलतान पाकिस्तान में चले गए। मुनीर बेग के वंशज आज भी मुलतान में रह रहे हैं।

3 comments:

  1. Thanks for the article - please can you let me know where did you get all this information about Sh Hukum Chand Jain - is there any history book I can get my hands to - I am trying to establish geneology of Mr. Hukum chand Jain - From what I have heard of from my ancestors, we are direct descendants of Sh Hukum Chand Jain whose wife left Hansi with 2 kids upon his execution - Please let me know if you have any other source of information on this. Pls send to AmitJain02@gmail.com

    Many Thanks
    Amit

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  2. This type of information that has burried in the history/burried by the political parties for their vote bank,should be brought out and put in public mirror so that new generation,that are known about western personalities can know about their own past.Thanks and keep it up.

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  3. Please have a look on below fb page & website related
    https://www.facebook.com/shaheedhukamchandjain/
    http://www.shaheedhukamchandjain.com/

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