हिसार (संदीप सिंहमार)
1990 के दशक में देश के सभी गावों में तांगों की सवारी की जाती थी लेकिन अब तांगे कहीं भी दिखाई नहीं देते। जिन तांगों में कभी गांव से दूल्हे की बारात सजकर चलती थी व दुल्हन भी बड़े चाव से तांगे पर सवार होकर अपनी ससुराल आती थी उन्ही तांगों का प्रचलन यातायात क्रान्ति के कारण लगभग बंद हो गया। करीब दो दशक पहले तब लोग अपने नजदीकी गंतव्य तक पहुंचने के लिए तांगों की सवारी करते थे लेकिन वर्तमान युग में तांगों का स्थान चमचमाती गाड़ीयों व मध्यम वर्ग के लोगों के लिए तीन पहियों वाली आटो रिक्शा ने ले लिया। आधुनिक मशीनीकरण के युग में लोगों ने भी शीघ्रता से चलने की चाह में धीमी गति से चलने वाले तांगों को एकदम बिसार दिया है। तांगों के सहारे आजीविका चलाने वाले लोगों ने भी अपना ध्यान हटाकर आटो रिक्शा व अन्य वाहनों पर लगा दिया है।
मंहगाई भी एक कारण
तांगे बंद होने का एक कारण मंहगाई भी माना जा रहा है। तांगा चलाने के लिए अच्छी नस्ल का घोड़ा या घोड़ी क ी कीमत सातवें आसमान पर होने के कारण घोड़े खरीदना हर किसी के बस की बात नही है। इसके अलावा तांगा बनवाने में भी अच्छी खासी कीमत लगती है। जानकारों का मानना है कि आज एक तांगे की कीमत से दो ऑटो खरीदे जा सकतें हैं।
नवाब के लिए आरक्षित थी सीट
नवाबों के शहर के नाम से मशहूर लखनऊ में जितने भी तांगे चलते थे उनकी बीच की एक सीट नवाब के नाम से आरक्षित होती थी। तांगे में कितनी भी भीड़ क्यों न हो जाती पर उस आरक्षित सीट पर नवाब के सिवाए कोई नहीं बैठता था।
फिल्मों में भी था तांगा
दो या तीन दशक पहले की अधिकतर फिल्मों में तांगे की झलक जरूर दिखाई देती थी। सुपरहिट कॉमर्शियल फिल्म शोले से लेकर आर्ट फिल्म एक चादर मैली सी तक में तांगे वालों की भूमिका अहम थी। कई फिल्में तो तागें वाले के चरित्र के इर्द गिर्द ही बुनी गई थी। मर्द फिल्म का सुपर हिट गाना मैं मर्द तांगे वाला आज भी लोग गुनगुनातें हैं।
डायनोंसोर भी था तांगेवाले भी थे....
तांगे वाला और उसका तांगा अब किस्से कहानियों और प्रदर्शनी की वस्तुओं तक ही सिमट कर रह गया है। आगामी पीढ़ी कहीं इमिहास की किताबों से पढ़कर या पुरानी फिल्मों से देखकर पूछेगी कि ये तांगे क्या बला थे तो हमें उन्हें डायनोसोर के अस्तिव की तर्ज पर बताना पड़ेगा कि हाँ वे कभी हुआ करते थे।
मैं पहलम तांगें में आई थी...
शहर में आए गांव के एक बुजुर्ग रामस्वरूप व 80 बसंत देख चुकी बुजुर्ग महिला भरपाई के सामने जब तांगो की सवारी का जिक्र किया गया तो वे अपने पुरानी यादों में खो गए। बुजुर्ग महिला ने ठेठ हरियाणवी लहजे में क हा कि मैने ब्याह में मेरा जाऊं तागें में ऐ बिठा के ल्याया था अर जिब मैं पहलम झटके आई थी तो भी तांगे मै बैठ के आई थी । आजकल तांगे बदं क्यों हो गए है पर उनका कहना था कि नई पीढी रफ्तार की शौकीन है और तांगे जैसे पुराने यातायात के साधन में खुद की तौहीन समझतें हैं।
1990 के दशक में देश के सभी गावों में तांगों की सवारी की जाती थी लेकिन अब तांगे कहीं भी दिखाई नहीं देते। जिन तांगों में कभी गांव से दूल्हे की बारात सजकर चलती थी व दुल्हन भी बड़े चाव से तांगे पर सवार होकर अपनी ससुराल आती थी उन्ही तांगों का प्रचलन यातायात क्रान्ति के कारण लगभग बंद हो गया। करीब दो दशक पहले तब लोग अपने नजदीकी गंतव्य तक पहुंचने के लिए तांगों की सवारी करते थे लेकिन वर्तमान युग में तांगों का स्थान चमचमाती गाड़ीयों व मध्यम वर्ग के लोगों के लिए तीन पहियों वाली आटो रिक्शा ने ले लिया। आधुनिक मशीनीकरण के युग में लोगों ने भी शीघ्रता से चलने की चाह में धीमी गति से चलने वाले तांगों को एकदम बिसार दिया है। तांगों के सहारे आजीविका चलाने वाले लोगों ने भी अपना ध्यान हटाकर आटो रिक्शा व अन्य वाहनों पर लगा दिया है।
मंहगाई भी एक कारण
तांगे बंद होने का एक कारण मंहगाई भी माना जा रहा है। तांगा चलाने के लिए अच्छी नस्ल का घोड़ा या घोड़ी क ी कीमत सातवें आसमान पर होने के कारण घोड़े खरीदना हर किसी के बस की बात नही है। इसके अलावा तांगा बनवाने में भी अच्छी खासी कीमत लगती है। जानकारों का मानना है कि आज एक तांगे की कीमत से दो ऑटो खरीदे जा सकतें हैं।
नवाब के लिए आरक्षित थी सीट
नवाबों के शहर के नाम से मशहूर लखनऊ में जितने भी तांगे चलते थे उनकी बीच की एक सीट नवाब के नाम से आरक्षित होती थी। तांगे में कितनी भी भीड़ क्यों न हो जाती पर उस आरक्षित सीट पर नवाब के सिवाए कोई नहीं बैठता था।
फिल्मों में भी था तांगा
दो या तीन दशक पहले की अधिकतर फिल्मों में तांगे की झलक जरूर दिखाई देती थी। सुपरहिट कॉमर्शियल फिल्म शोले से लेकर आर्ट फिल्म एक चादर मैली सी तक में तांगे वालों की भूमिका अहम थी। कई फिल्में तो तागें वाले के चरित्र के इर्द गिर्द ही बुनी गई थी। मर्द फिल्म का सुपर हिट गाना मैं मर्द तांगे वाला आज भी लोग गुनगुनातें हैं।
डायनोंसोर भी था तांगेवाले भी थे....
तांगे वाला और उसका तांगा अब किस्से कहानियों और प्रदर्शनी की वस्तुओं तक ही सिमट कर रह गया है। आगामी पीढ़ी कहीं इमिहास की किताबों से पढ़कर या पुरानी फिल्मों से देखकर पूछेगी कि ये तांगे क्या बला थे तो हमें उन्हें डायनोसोर के अस्तिव की तर्ज पर बताना पड़ेगा कि हाँ वे कभी हुआ करते थे।
मैं पहलम तांगें में आई थी...
शहर में आए गांव के एक बुजुर्ग रामस्वरूप व 80 बसंत देख चुकी बुजुर्ग महिला भरपाई के सामने जब तांगो की सवारी का जिक्र किया गया तो वे अपने पुरानी यादों में खो गए। बुजुर्ग महिला ने ठेठ हरियाणवी लहजे में क हा कि मैने ब्याह में मेरा जाऊं तागें में ऐ बिठा के ल्याया था अर जिब मैं पहलम झटके आई थी तो भी तांगे मै बैठ के आई थी । आजकल तांगे बदं क्यों हो गए है पर उनका कहना था कि नई पीढी रफ्तार की शौकीन है और तांगे जैसे पुराने यातायात के साधन में खुद की तौहीन समझतें हैं।
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