टेलीविजन के आगमन से फीकी हुई रेडियो की शान
हिसार (संदीप सिंहमार)
एक जमाना था जब प्रदेश के हर गांव व शहरों में रेडियो रखना गौरव की बात मानी जाती थी। लोगों के लिए भी रेडियो ही संचार का प्रमुख साधन था, दूसरा कोई विकल्प खुले रूप से लोगों के पास नहीं था। गांवों में तो ग्रामीणों के लिए मनोरंजन के साधन कम होने व सूचनाएं देर से पहुंचने के कारण रेडियो ही इसकी पूर्ति करता था। शुरूआती दिनों में पूरे गांव में एक या दो ही रेडियो होते थे। ग्रामीण रेडियो पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम सुनने के लिए गांव की चौपाल में सायंकाल को इकट्ठे होते थे। एक निश्चित समय पर गांव की चौपाल में मौजिज व्यक्तियों द्वारा रेडियो बजाया जाता था, उस समय हर कोई रेडियो पर चलने वाले कार्यक्रमों को बड़े चाव से सुनते थे। लेकिन समय ने करवट बदली तो टेलीविजन का प्रचलन बढ़ गया। जब से टेलीविजन का आगमन हुआ तो लोगों ने भी अपने मनोरंजन व सूचनाओं के पुराने साधन पर विश्वास करना छोड़ दिया और टेलीविजन में अपनी आस्था जतानी शुरू कर दी। टेलीविजन के प्रचलन से एक तरफ जहां लोगों को सुनने के साथ-साथ चित्र देखने को मिले वहीं रेडियो की शान धीरे-धीरे फीकी पड़ती चली गई। करीब दो दशक पहले तक गांवों में बड़े आकार के रेडियो देखे जा सकते थे, जो कई बुजुर्गों के पास अब भी टूटी-फुटी अवस्था में दिखाई देते हैं। लेकिन अब उनमें वो मधुर आवाज नहीं है। यदि बुजुर्ग रेडियो ठीक करवाने के लिए भी कहें तो आज मार्केट में रेडियो के मिस्त्री भी कम ही मिलते हैं। घर के अन्य सदस्य भी बुजुर्गों का साथ नहीं देंगे। दो दशक पहले तक रेडियो लकड़ी के डिब्बे में बंद होता था ताकि उसको लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सके।
रेडियो पर सांग का रहता था इंतजार
रेडियो का चलन जब अपने चरम पर था तो हरियाणा प्रदेश में उस समय हरियाणवीं सांगों की परंपरा भी शिखर पर पहुंच चुकी थी। प्रदेश के गांवों में जवान, बुजुर्ग व महिलाएं सभी सांग सुनने के इच्छुक होते थे। पंडित लख्मीचंद, मांगेराम, बाजे भगत, ताऊ सांगी, झंडू मीर, रामकिशन ब्यास व धनपत आदि लोक कवि गांव-गांव में सांग करते थे। ग्रामीण गांवों में होने वाले सांगों को साक्षात रूप से तो चाव से देखते ही थे लेकिन वही सांग जब साप्ताहिक तौर रेडियो पर चलता था तो लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। लोगों को रेडियो पर सांग सुनने का इंतजार रहता था, आधी रात तक ग्रामीण सांग व अन्य पुराने गीतों का लुत्फ उठाते थे। धीरे-धीरे परंपरा समाप्त होने के साथ ही रेडियो पर सांग सुनने का प्रचलन भी कम हो गया। हालांकि रेडियो पर सांग का कार्यक््रम अब भी प्रसारित किया जाता है लेकिन वर्तमान समय में सांग के श्रोता नहीं रहे। लोगों को अब चकटारे वाले गीत गाने ही मन को भाते हैं।
काम में नहीं आती बाधा
टेलीविजन आने के बाद पुराने समय से चल रहे रेडियो का साथ लोगों ने चाहे छोड़ दिया हो लेकिन रेडियो विशेषताओं का खजाना माना जाता है। एक तरफ जहां टेलीविजन देखते समय हर कोई टेलीविजन की तरफ लगातार देखता व सुनता है। ऐसा करने से व्यक्ति इसी वक्त दूसरा काम करने में असमर्थ होता है। जबकि रेडियो पर कार्यक्र सुनते हुए व्यक्ति अपना कोई भी कार्य आसानी से पूर्ण कर सकता है। रेडियो सुनते हुए दिमागी तौर पर काम करने के लिए किसी भी काम में बाधा नहीं पहुंचती क्योंकि काम करते हुए रेडियो भी सुना जा सकता है।
1927 में प्रायौगिक तौर पर शुरू हुआ रेडियो प्रसारण
1927 में प्रायौगिक तौर पर रेडियो प्रसारण शुरू किया गया। 1936 में देश में सरकारी इम्पेरियल रेडियो ऑफ इंडिया की शुरूआत हुई जो आजादी के बाद ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी बन गया। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरूआत होने पर भारत में भी रेडियो के सारे लाईसेंस रद्ध कर दिए व ट्रांसमीटरों को सरकार के पास जमा करवाने के आदेश दे दिए। इसी बीच कुछ समय के बाद 27 अगस्त 1942 को मुम्बई के चौपाटी इलाके के सी.यू बिल्डिंग से नैशनल काग्रेंस रेडियो कप प्रसारण शुरू हो गया। यह रेडियो स्टेशन चलानें में अहम भूमिका निभाने वाले रेडियो इंजीनियर नरीमन प्रिंटर व उद्घघोषक उषा मेहता को अंग्रेजों ने 12 नवम्बर 1942 को गिरफ्तार कर लिया। इसी के साथ नेशनल कांग्रेस रेडियो भी 2 महीने चलने के बाद बंद हो गया।
आजादी के बाद रेडियो का इतिहास
आजादी के बाद 1956-57 में इसका नाम ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी रखा गया । जहां तक आकाशवाणी का सवाल है,आजादी के समय 1947 में इसका केवल 6 केन्द्रों एंव 18 ट्रांसमीटरों का नेटवर्क था तथा इसकी पंहुच केवल 11 प्रतिशत लोगों तक थी। आज आकाशवाणी के 231 केन्द्र तथा 373 ट्रांसमीटर है आज इसकी पंहुच 99 प्रतिशत लोगों तक है। भारत जैसे बहु-संस्कृति,बहुभाषी देश में आकाशवाणी से 24 भाषाओं में इसकी घरेलू सेवा का प्रसारण होता था। आकाशवाणी मिडियम वेव,शार्ट वेव, एंव एफ.एम के माध्यम से प्रसारण सेवा प्रदान करती थी। आजादी के बाद अब तक भारत में रेडियो का इतिहास सरकारी रहा है। इसी बीच आम जनता को रेडियो स्टेशन चलाने देने की अनुमति के लिए केन्द्र सरकार पर दवाब बढ़ता गया। 1995 में मानवीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रेडियो तरंगों पर सरकार का एकाधिकार नही है। सन् 2002 में एन डी.ए. सरकार ने शिक्षण संस्थाओं को कैंपस रेडियो स्टेशन खोलने की इजाजत दी। 16 नवम्बर 2006 को यूपीए सरकार ने स्वंयसेवी संस्थाओं को रेडियो स्टेशन खोलने की अनुमति दे दी। परन्तु इन रेडियो स्टेशनों से समाचार या सम-सामयिक विषयों पर चर्चा का प्रसारण पर पाबंदी है।
हिसार (संदीप सिंहमार)
एक जमाना था जब प्रदेश के हर गांव व शहरों में रेडियो रखना गौरव की बात मानी जाती थी। लोगों के लिए भी रेडियो ही संचार का प्रमुख साधन था, दूसरा कोई विकल्प खुले रूप से लोगों के पास नहीं था। गांवों में तो ग्रामीणों के लिए मनोरंजन के साधन कम होने व सूचनाएं देर से पहुंचने के कारण रेडियो ही इसकी पूर्ति करता था। शुरूआती दिनों में पूरे गांव में एक या दो ही रेडियो होते थे। ग्रामीण रेडियो पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम सुनने के लिए गांव की चौपाल में सायंकाल को इकट्ठे होते थे। एक निश्चित समय पर गांव की चौपाल में मौजिज व्यक्तियों द्वारा रेडियो बजाया जाता था, उस समय हर कोई रेडियो पर चलने वाले कार्यक्रमों को बड़े चाव से सुनते थे। लेकिन समय ने करवट बदली तो टेलीविजन का प्रचलन बढ़ गया। जब से टेलीविजन का आगमन हुआ तो लोगों ने भी अपने मनोरंजन व सूचनाओं के पुराने साधन पर विश्वास करना छोड़ दिया और टेलीविजन में अपनी आस्था जतानी शुरू कर दी। टेलीविजन के प्रचलन से एक तरफ जहां लोगों को सुनने के साथ-साथ चित्र देखने को मिले वहीं रेडियो की शान धीरे-धीरे फीकी पड़ती चली गई। करीब दो दशक पहले तक गांवों में बड़े आकार के रेडियो देखे जा सकते थे, जो कई बुजुर्गों के पास अब भी टूटी-फुटी अवस्था में दिखाई देते हैं। लेकिन अब उनमें वो मधुर आवाज नहीं है। यदि बुजुर्ग रेडियो ठीक करवाने के लिए भी कहें तो आज मार्केट में रेडियो के मिस्त्री भी कम ही मिलते हैं। घर के अन्य सदस्य भी बुजुर्गों का साथ नहीं देंगे। दो दशक पहले तक रेडियो लकड़ी के डिब्बे में बंद होता था ताकि उसको लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सके।
रेडियो पर सांग का रहता था इंतजार
रेडियो का चलन जब अपने चरम पर था तो हरियाणा प्रदेश में उस समय हरियाणवीं सांगों की परंपरा भी शिखर पर पहुंच चुकी थी। प्रदेश के गांवों में जवान, बुजुर्ग व महिलाएं सभी सांग सुनने के इच्छुक होते थे। पंडित लख्मीचंद, मांगेराम, बाजे भगत, ताऊ सांगी, झंडू मीर, रामकिशन ब्यास व धनपत आदि लोक कवि गांव-गांव में सांग करते थे। ग्रामीण गांवों में होने वाले सांगों को साक्षात रूप से तो चाव से देखते ही थे लेकिन वही सांग जब साप्ताहिक तौर रेडियो पर चलता था तो लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। लोगों को रेडियो पर सांग सुनने का इंतजार रहता था, आधी रात तक ग्रामीण सांग व अन्य पुराने गीतों का लुत्फ उठाते थे। धीरे-धीरे परंपरा समाप्त होने के साथ ही रेडियो पर सांग सुनने का प्रचलन भी कम हो गया। हालांकि रेडियो पर सांग का कार्यक््रम अब भी प्रसारित किया जाता है लेकिन वर्तमान समय में सांग के श्रोता नहीं रहे। लोगों को अब चकटारे वाले गीत गाने ही मन को भाते हैं।
काम में नहीं आती बाधा
टेलीविजन आने के बाद पुराने समय से चल रहे रेडियो का साथ लोगों ने चाहे छोड़ दिया हो लेकिन रेडियो विशेषताओं का खजाना माना जाता है। एक तरफ जहां टेलीविजन देखते समय हर कोई टेलीविजन की तरफ लगातार देखता व सुनता है। ऐसा करने से व्यक्ति इसी वक्त दूसरा काम करने में असमर्थ होता है। जबकि रेडियो पर कार्यक्र सुनते हुए व्यक्ति अपना कोई भी कार्य आसानी से पूर्ण कर सकता है। रेडियो सुनते हुए दिमागी तौर पर काम करने के लिए किसी भी काम में बाधा नहीं पहुंचती क्योंकि काम करते हुए रेडियो भी सुना जा सकता है।
1927 में प्रायौगिक तौर पर शुरू हुआ रेडियो प्रसारण
1927 में प्रायौगिक तौर पर रेडियो प्रसारण शुरू किया गया। 1936 में देश में सरकारी इम्पेरियल रेडियो ऑफ इंडिया की शुरूआत हुई जो आजादी के बाद ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी बन गया। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरूआत होने पर भारत में भी रेडियो के सारे लाईसेंस रद्ध कर दिए व ट्रांसमीटरों को सरकार के पास जमा करवाने के आदेश दे दिए। इसी बीच कुछ समय के बाद 27 अगस्त 1942 को मुम्बई के चौपाटी इलाके के सी.यू बिल्डिंग से नैशनल काग्रेंस रेडियो कप प्रसारण शुरू हो गया। यह रेडियो स्टेशन चलानें में अहम भूमिका निभाने वाले रेडियो इंजीनियर नरीमन प्रिंटर व उद्घघोषक उषा मेहता को अंग्रेजों ने 12 नवम्बर 1942 को गिरफ्तार कर लिया। इसी के साथ नेशनल कांग्रेस रेडियो भी 2 महीने चलने के बाद बंद हो गया।
आजादी के बाद रेडियो का इतिहास
आजादी के बाद 1956-57 में इसका नाम ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी रखा गया । जहां तक आकाशवाणी का सवाल है,आजादी के समय 1947 में इसका केवल 6 केन्द्रों एंव 18 ट्रांसमीटरों का नेटवर्क था तथा इसकी पंहुच केवल 11 प्रतिशत लोगों तक थी। आज आकाशवाणी के 231 केन्द्र तथा 373 ट्रांसमीटर है आज इसकी पंहुच 99 प्रतिशत लोगों तक है। भारत जैसे बहु-संस्कृति,बहुभाषी देश में आकाशवाणी से 24 भाषाओं में इसकी घरेलू सेवा का प्रसारण होता था। आकाशवाणी मिडियम वेव,शार्ट वेव, एंव एफ.एम के माध्यम से प्रसारण सेवा प्रदान करती थी। आजादी के बाद अब तक भारत में रेडियो का इतिहास सरकारी रहा है। इसी बीच आम जनता को रेडियो स्टेशन चलाने देने की अनुमति के लिए केन्द्र सरकार पर दवाब बढ़ता गया। 1995 में मानवीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रेडियो तरंगों पर सरकार का एकाधिकार नही है। सन् 2002 में एन डी.ए. सरकार ने शिक्षण संस्थाओं को कैंपस रेडियो स्टेशन खोलने की इजाजत दी। 16 नवम्बर 2006 को यूपीए सरकार ने स्वंयसेवी संस्थाओं को रेडियो स्टेशन खोलने की अनुमति दे दी। परन्तु इन रेडियो स्टेशनों से समाचार या सम-सामयिक विषयों पर चर्चा का प्रसारण पर पाबंदी है।
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