Sunday, October 28, 2012

गिरिधर की कुंडलिया


गिरिधर की  कुंडलिया 
बिना बिचारे जो करे  , सो पीछे पछिताए। 
काम  बिगारै आपनो, जग में होत हंसाए।।
जग में होत हंसाए, चित में चैन न पावै ।
खान, पान सनमान, राग रंग मनहि न भावै।।

 कह  गिरिधर कविराय, दुख कछु टरत ना टारे।।
खटकत   है जिय माहिं, कियो  जो बिना बिचारे

दौलत पाय न कीजिय , सपने में अभिमान
चंचल जल दिन चारि के , ठाऊं न रहत निदान
ठाऊं न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै
मीठे वचन सुनाय, विनय सबही की कीजे ।। 

कह गिरिधर कविराय, अरे यह सब घट तौलत
पाहुन निसि दिन चारि, रहत सबही के दौलत।।

गुन के  गाहक सहस नर, बिनु गुन लहै न कोय ।
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय।।
शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन।
दोऊ को इक रंग, काग  सब भय अपावन।। 

कह गिरिधर कविराय, सुनो हो ठाकुर मन के ।
बिनु गुन लहै न कोय , सहस नर ग्राहक  गुन के  ।।

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