Thursday, June 30, 2011


गांवों से गायब हो रही है दो बैलों वाली गाड़ी

अब गलियों में नहीं सुनाई देती है चुर्र-चूं-चुर्र-चूं की आवाज
हिसार (संदीप सिंहमार)। एक समय था जब प्रदेश के गांवों में दो बैलों की गाड़ी (बैलगाड़ी) गांव की गलियों व खेतों में सुबह से लेकर रात होने तक आते-जाते दिखाई देती थी। ग्रामीण दो बैलों वाली गाड़ी को अपना आदर्श वाहन मानते थे। लेकिन आम आदमी की सवारी कहे जाने वाली यह गाड़ी अब गांवों से गायब होती जा रही है। ग्रामीण विशेषकर किसान बोझा ढोने, खेती के कार्य के लिए अकसर दो बैलों की गाड़ी का ही प्रयोग करते थे। किसानों व ग्रामीणों के लिए इससे सस्ता वाहन कुछ भी नहीं था। करीब तीन दशक पहले तक किसानों के लगभग दूसरे या तीसरे घरों में भी ये गाड़ी देखने को मिलती थी, किसान इनका प्रयोग खेती के कामों, व्यावसायिक जरूरतों को पूरा करने व सफर का आनंद लेने के लिए करते थे। लेकिन मशीनीकरण का युग आने के कारण धीरे-धीरे दो बैलों की गाड़ी अब लगभग गायब हो गई है। यह नहीं है कि गांवों में वर्तमान युग में बैलगाड़ी देखने को नहीं मिलती, बैलगाड़ी तो है अब लेकिन बैलगाड़ी में दो की बजाय एक ही बैल देखने को मिलता है। इसे बदलते परिवेश का नतीजा कहे या कुछ ओर। दो बैलों की गाड़ी कम होने का एक कारण ट्रैक्टर माना जा रहा है, वहीं महंगाई भी इसका एक कारण है। महंगाई बढऩे से बैलों की कीमत भी आसमान छूने लगी है।
शुभ मानी जाती थी बैलगाड़ी
गांवों में जब भी कोई शुभ कार्य आयोजित किया जाता था तो सामान लाने के लिए बैलगाड़ी का ही प्रयोग शुभ माना जाता था। शादी समारोह में मंडप सजाने के लिए जंगल से पलास के पते लाने के लिए व चिनाई के कार्य के दौरान तालाब-पोखर से पानी लाने हेतु बैलगाड़ी का प्रयोग शुभ माना जाता था। लेकिन बदलते परिवेश में अब बैलगाड़ी का स्थान ऑटो रिक्शा व मोटर गाड़ी ने ले लिया है।
बैलगाड़ी की बनावट
वैसे तो बैलगाड़ी देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग रूपों में मिलती है। हरियाणा में भी बैलगाड़ी के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। दो बैलों वाली गाडिय़ों में लोहे के पहिए होते थे, जिन्हें खींचने के लिए बैलों को बहुत जोर लगाना पड़ता था। लोहे के पहियों को टिकाणी पर फिट करने के लिए शण लगाया जाता था। शण जब सिकुड़ जाता था तो बैलगाड़ी के पहियों से गलियों में चुर्र-चूं-चुर्र-चूं की आवाज सुनाई देती थी। रबड़ के टायर लगी बैलगाड़ी बनने के बाद लोगों ने दो के स्थान पर एक बैल का प्रयोग करना शुरू कर दिया। वहीं शण का स्थान भी बैरिंग ने ले लिया। पहियों व टिकाणी के बीच बैरिंग लगने से बैल आसानी से बैलगाड़ी को खींच सकते हैं। बैलगाड़ी को गाड़ा, बुग्गी व रेहड़ू आदि नामों से भी जाना जाता है। बैलगाड़ी के निर्माण में टिकाणी या धुरी पर एक चौरस लकड़ी की बाडी बनाई जाती है। बाडी में फड़ व फड़ पर जुआ लगाया जाता है। जिसमें बैलों को जोड़ा जाता है। जुए में लकड़ी की सिमल व सिमल में बैलों को जोड़ते हुए जोत लगाई जाती है और आडर पर बैठकर बैलगाड़ी चलाई जाती है।
त्यौहारों पर सजाए जाते थे बैल
बैलगाड़ी में जुडऩे वाले बैलों को समय-समय पर त्यौहारों पर सजाया जाता था। खासकर दीपावली पर बैलों के गले में मोर के पंखों व पुराने कपड़ों से बनाए गए गजरे पहनाए जाते थे। बैलों के पीठ पर दोनों तरफ मेहंदी व सींगों पर सरसों का तेल लगाया जाता था। मेले के अवसरों पर गले में चौरासी बांधी जाती थी। सुबह-शाम बैलगाड़ी आते-जाते हुए चौरासी के घूंघरूओं की आवाज सभी के कानों को भाती थी।
घुमंतू जाति आज भी घूमती है बैलगाडिय़ों पर
देश-प्रदेश के गांवों से चाहे आज बैलगाडिय़ों का चलन कम हो गया हो लेकिन घुमंतू जनजाति (पछइहां लोहार) के लोग अब भी बैलगाड़ी में ही अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं। देश-प्रदेश के कोने-कोने में घूमकर खाने-कमाने वाली यह जाति बैलगाड़ी में ही सफर कर इसे ही अपना आशियाना भी बना लेते हैं। इस जाति के लोग विभिन्न स्थानों पर अपना पैतृक पेशा पुराने लोहे को गरम कर चिमटा, ताकू, तासला, झारनी, कड़ाही व करछुला व पलियां बनाकर बेचते हैं।
सिनेमा जगत में बैलगाड़ी
सिनेमा जगत में कई फिल्मों में बैलगाड़ी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। बैलगाड़ी को जीवंत रूप में प्रस्तुत किया गया है। वासु भट्टाचार्य की फिल्म 'तीसरी कसमÓ की पूरी कहानी बैलगाड़ी के इर्द-गिर्द ही घूमती है। इस फिल्म के सभी गाने बैलगाड़ी में ही फिल्माए गए हैं। पात्र हीरामन बैलगाड़ी में बैठा गा रहा है, 'सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, न हाथी है न घोड़ा है, वहां पैदल ही जाना है, दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाईÓ। इसी तरह इसी फिल्म का गाना 'सजनवा बैरी हो गए हमार, करमवा बैरी हो गए हमार, चिट्ठियां हो तो हर कोई बांचे, भाग न बांचे कोए भी बैलगाड़ी पर ही हीरामन गाता प्रतीत होता है। महान फिल्मकार विमलराय की फिल्म 'दो बीघा जमीनÓ व देवदास में भी बैलगाड़ी की अपनी अहमियत है। अन्य फिल्में आशीर्वाद व गीत गाता चल में बैलगाड़ी को विशेष स्थान दिया गया है। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम द्वारा बनाई गई एक फिल्म में तो फिल्म की शुरूआत ही बैलगाड़ी में बैठे एक बुजुर्ग से की गई है।

अब नहीं दिखाई देते गांव की चौपाल में बजने वाले रेडियो
टेलीविजन के आगमन से फीकी हुई रेडियो की शान
हिसार (संदीप सिंहमार)
एक जमाना था जब प्रदेश के हर गांव व शहरों में रेडियो रखना गौरव की बात मानी जाती थी। लोगों के लिए भी रेडियो ही संचार का प्रमुख साधन था, दूसरा कोई विकल्प खुले रूप से लोगों के पास नहीं था। गांवों में तो ग्रामीणों के लिए मनोरंजन के साधन कम होने व सूचनाएं देर से पहुंचने के कारण रेडियो ही इसकी पूर्ति करता था। शुरूआती दिनों में पूरे गांव में एक या दो ही रेडियो होते थे। ग्रामीण रेडियो पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम सुनने के लिए गांव की चौपाल में सायंकाल को इकट्ठे होते थे। एक निश्चित समय पर गांव की चौपाल में मौजिज व्यक्तियों द्वारा रेडियो बजाया जाता था, उस समय हर कोई रेडियो पर चलने वाले कार्यक्रमों को बड़े चाव से सुनते थे। लेकिन समय ने करवट बदली तो टेलीविजन का प्रचलन बढ़ गया। जब से टेलीविजन का आगमन हुआ तो लोगों ने भी अपने मनोरंजन व सूचनाओं के पुराने साधन पर विश्वास करना छोड़ दिया और टेलीविजन में अपनी आस्था जतानी शुरू कर दी। टेलीविजन के प्रचलन से एक तरफ जहां लोगों को सुनने के साथ-साथ चित्र देखने को मिले वहीं रेडियो की शान धीरे-धीरे फीकी पड़ती चली गई। करीब दो दशक पहले तक गांवों में बड़े आकार के रेडियो देखे जा सकते थे, जो कई बुजुर्गों के पास अब भी टूटी-फुटी अवस्था में दिखाई देते हैं। लेकिन अब उनमें वो मधुर आवाज नहीं है। यदि बुजुर्ग रेडियो ठीक करवाने के लिए भी कहें तो आज मार्केट में रेडियो के मिस्त्री भी कम ही मिलते हैं। घर के अन्य सदस्य भी बुजुर्गों का साथ नहीं देंगे। दो दशक पहले तक रेडियो लकड़ी के डिब्बे में बंद होता था ताकि उसको लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सके।

रेडियो पर सांग का रहता था इंतजार
रेडियो का चलन जब अपने चरम पर था तो हरियाणा प्रदेश में उस समय हरियाणवीं सांगों की परंपरा भी शिखर पर पहुंच चुकी थी। प्रदेश के गांवों में जवान, बुजुर्ग व महिलाएं सभी सांग सुनने के इच्छुक होते थे। पंडित लख्मीचंद, मांगेराम, बाजे भगत, ताऊ सांगी, झंडू मीर, रामकिशन ब्यास व धनपत आदि लोक कवि गांव-गांव में सांग करते थे। ग्रामीण गांवों में होने वाले सांगों को साक्षात रूप से तो चाव से देखते ही थे लेकिन वही सांग जब साप्ताहिक तौर रेडियो पर चलता था तो लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। लोगों को रेडियो पर सांग सुनने का इंतजार रहता था, आधी रात तक ग्रामीण सांग व अन्य पुराने गीतों का लुत्फ उठाते थे। धीरे-धीरे परंपरा समाप्त होने के साथ ही रेडियो पर सांग सुनने का प्रचलन भी कम हो गया। हालांकि रेडियो पर सांग का कार्यक््रम अब भी प्रसारित किया जाता है लेकिन वर्तमान समय में सांग के श्रोता नहीं रहे। लोगों को अब चकटारे वाले गीत गाने ही मन को भाते हैं।

काम में नहीं आती बाधा
टेलीविजन आने के बाद पुराने समय से चल रहे रेडियो का साथ लोगों ने चाहे छोड़ दिया हो लेकिन रेडियो विशेषताओं का खजाना माना जाता है। एक तरफ जहां टेलीविजन देखते समय हर कोई टेलीविजन की तरफ लगातार देखता व सुनता है। ऐसा करने से व्यक्ति इसी वक्त दूसरा काम करने में असमर्थ होता है। जबकि रेडियो पर कार्यक्र सुनते हुए व्यक्ति अपना कोई भी कार्य आसानी से पूर्ण कर सकता है। रेडियो सुनते हुए दिमागी तौर पर काम करने के लिए किसी भी काम में बाधा नहीं पहुंचती क्योंकि काम करते हुए रेडियो भी सुना जा सकता है।

1927 में प्रायौगिक तौर पर शुरू हुआ रेडियो प्रसारण
1927 में प्रायौगिक तौर पर रेडियो प्रसारण शुरू किया गया। 1936 में देश में सरकारी इम्पेरियल रेडियो ऑफ इंडिया की शुरूआत हुई जो आजादी के बाद ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी बन गया। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरूआत होने पर भारत में भी रेडियो के सारे लाईसेंस रद्ध कर दिए व ट्रांसमीटरों को सरकार के पास जमा करवाने के आदेश दे दिए। इसी बीच कुछ समय के बाद 27 अगस्त 1942 को मुम्बई के चौपाटी इलाके के सी.यू बिल्डिंग से नैशनल काग्रेंस रेडियो कप प्रसारण शुरू हो गया। यह रेडियो स्टेशन चलानें में अहम भूमिका निभाने वाले रेडियो इंजीनियर नरीमन प्रिंटर व उद्घघोषक उषा मेहता को अंग्रेजों ने 12 नवम्बर 1942 को गिरफ्तार कर लिया। इसी के साथ नेशनल कांग्रेस रेडियो भी 2 महीने चलने के बाद बंद हो गया।

आजादी के बाद रेडियो का इतिहास
आजादी के बाद 1956-57 में इसका नाम ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी रखा गया । जहां तक आकाशवाणी का सवाल है,आजादी के समय 1947 में इसका केवल 6 केन्द्रों एंव 18 ट्रांसमीटरों का नेटवर्क था तथा इसकी पंहुच केवल 11 प्रतिशत लोगों तक थी। आज आकाशवाणी के 231 केन्द्र तथा 373 ट्रांसमीटर है आज इसकी पंहुच 99 प्रतिशत लोगों तक है। भारत जैसे बहु-संस्कृति,बहुभाषी देश में आकाशवाणी से 24 भाषाओं में इसकी घरेलू सेवा का प्रसारण होता था। आकाशवाणी मिडियम वेव,शार्ट वेव, एंव एफ.एम के माध्यम से प्रसारण सेवा प्रदान करती थी। आजादी के बाद अब तक भारत में रेडियो का इतिहास सरकारी रहा है। इसी बीच आम जनता को रेडियो स्टेशन चलाने देने की अनुमति के लिए केन्द्र सरकार पर दवाब बढ़ता गया। 1995 में मानवीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रेडियो तरंगों पर सरकार का एकाधिकार नही है। सन् 2002 में एन डी.ए. सरकार ने शिक्षण संस्थाओं को कैंपस रेडियो स्टेशन खोलने की इजाजत दी। 16 नवम्बर 2006 को यूपीए सरकार ने स्वंयसेवी संस्थाओं को रेडियो स्टेशन खोलने की अनुमति दे दी। परन्तु इन रेडियो स्टेशनों से समाचार या सम-सामयिक विषयों पर चर्चा का प्रसारण पर पाबंदी है।




एड्स व कैंसर से चार गुणा हैहैपेटाईटिस बी व सी से मरने वालों की संख्या
पीजीआई के अनुसार प्रदेश में 1 से 3 प्रतिशत लोग है इन बीमारियों के शिकार
हिसार~सन्दीप सिंहमार~
बीमारियां मानव शरीर को खोखला कर देती है। यह कहावत बहुत पुरानी मानी गई है। बीमारी छोटी हो या बड़ी सभी मनुष्य के शरीर पर अपना प्रभाव छोड़ती है, लेकिन कुछ बीमारियां ऐसी भी है जो प्रदेश में दिन-प्रतिदिन तेज गति से बढ़ती जा रही है। इन्हीं बीमारियों में शामिल है हैपेटाईटिस। इस बीमारी को आम भाषा में पीलिया के नाम से जाना जाता है। मेडिकल साइंस के अनुसार हैपेटाईटिस के पांच प्रकार होते हैं-ए, बी, सी, डी और ई। वैसे तो हैपेटाईटिस के सभी प्रकार मनुष्य के लिए खतरनाक होते हैं लेकिन हैपेटाईटिस बी व सी मनुष्य के शरीर के लिए घातक सिद्ध होते हैं। आमतौर पर जब लोग हैपेटाईटिस के शिकार होते हैं तो वे इस बीमारी को गंभीरता से नहीं लेते। इस बीमारी को पीलिया का नाम देते हुए आरंभिक तौर पर अपने स्तर पर इसका ईलाज करने में जुट जाते हैं। ईलाज करने की यह विधि कई बार मनुष्य की जान भी ले लेती है। देश में हैपेटाईटिस बी व सी एचआईवी एड्स और कैंसर से भी अधिक गति से फैल रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश में वर्तमान समय में करीब सवा करोड़ लोग इन गंभीर बीमारियों से पीडि़त है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर वर्ष हैपेटाईटिस बी व सी बीमारी से मरने वालों की संख्या एचआईवी एड्स से मरने वालों की संख्या से करीब चार गुणा है। हरियाणा प्रदेश के भी आंकड़े चौंकाने वाले हो सकते हैं। पंडित भगवतदयाल शर्मा आयुर्विज्ञान संस्थान (पीजीआई) रोहतक के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश के 1 से 3 प्रतिशत लोग हैपेटाईटिस बी के वायरस से पीडि़त हैं। प्रदेश में हैपेटाईटिस बी व सी के मरीजों की बढ़ती संख्या के बावजूद भी लोग व प्रदेश का स्वास्थ्य विभाग इस बीमारी को गंभीरता से नहीं ले रहा है।
कैसे फैलता है हैपेटाईटिस बी व सी
हैपेटाईटिस बी व सी संक्रमित रक्त संचार या संक्रमित मेडिकल उपकरणों के इस्तेमाल से होता हैं। वायरस के इंफैक्शन से ग्रस्त महिला के बच्चों को भी यह संक्रमण होने का खतरा होता है। चिकित्सकों का मानना है कि इस वायरस से पीडि़त व्यक्ति या महिला के साथ असुरक्षित यौन संबंध बनाने से भी हैपेटाईटिस बी फैलने की संभावना रहती है। लेकिन झूठा खाने व हाथ मिलाने से यह बीमारी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं फैलती।
टैटू गुदवाने से भी फैलता है हैपेटाईटिस बी
आम तौर पर प्रदेश के बस स्टैंड व रेलवे स्टेशनों के बाहर शरीर पर टैटू गोदने का काम करने वाले लोग अपनी छोटी सी मशीन लेकर बैठे रहते हैं। आज के युवाओं को शरीर पर टैटू गुदवाने का बहुत शौक है। टैटू गुदवाने का शौक विशेष तौर पर ग्रामीण लोगों में अधिक रहता है। टैटू गोदने वाला व्यक्ति अपनी एक ही सूई से हमेशा एक दूसरे व्यक्ति के शरीर पर टैटू गोदता है। चिकित्सकों के अनुसार इससे हैपेटाईटिस बी व सी फैलने का खतरा बना रहता है। हैपेटाईटिस बी से बचाव के लिए तो टीकाकरण भी किया जाता है लेकिन हैपेटाईटिस सी के नियंत्रण के लिए कोई टीका अभी तक उपलब्ध नहीं है। केवल जागरूकता ही बचाव का महत्वपूर्ण साधन हो सकता है।
ब्लड बैंकों के आंकड़े भी चौंकाने वाले
हैपेटाईटिस बी व सी से पीडि़त मरीज वैसे तो प्रदेश के विभिन्न सरकारी व निजी अस्पतालों में पहुंचकर अपना ईलाज करवा लेते हैं। जिनकी संख्या निश्चित तौर पर नहीं आंकी जा सकती। लेकिन भिवानी के सिविल अस्पताल में स्थित सरकारी ब्लड बैंक में वर्ष 2010 में विभिन्न शिविरों के माध्यम से कुल 4006 यूनिट रक्त एकत्रित किया गया। इस संबंध में ब्लड बैंक प्रभारी संजय वर्मा ने बताया कि वर्ष 2010 में एकत्रित किए गए रक्त की जांच के दौरान हैपेटाईटिस बी के 31 व हैपेटाईटिस सी के 12 मामले सामने आए हैं। इसी तरह हिसार के सामान्य अस्पताल के ब्लड बैंक पर एक नजर डाली जाए तो यहां हर माह रक्त जांच के दौरान 4-5 व्यक्ति हैपेटाईटिस बी व सी से संक्रमित मिलते हैं। भिवानी व हिसार के अलावा प्रदेश के अन्य जिलों की भी स्थिति इसी प्रकार से हो सकती है।
क्या कहते हैं पीजीआई मेडिशियन विभागाध्यक्ष
इस संबंध में रोहतक मेडिकल कॉलेज के मेडिशियन विभागाध्यक्ष डॉ.प्रताप सिंह गहलोत ने कहा कि प्रदेश में हैपेटाईटिस बी के मरीजों की संख्या एचआईवी एड्स व कैंसर के मरीजों से अधिक है। प्रदेश की कुल जनसंख्या के 1 से 3 फीसदी लोग हैपेटाईटिस बी से पीडि़त है। डॉ.गहलोत ने बताया कि हैपेटाईटिस बी व सी दोनों खतरनाक बीमारी है। यदि समय पर ध्यान न दिया जाए तो यह जानलेवा भी हो सकती है। उन्होंने बताया कि हैपेटाईटिस बी और सी का संक्रमण लीवर सिरोसिस व लीवर कैंसर का मुख्य कारण है।



ईब मारै स फेर रोवेगी बंजारे की ढाला....
- किस्से व कहानियों का गवाह है लक्खी बंजारे का मकबरा
हिसार (संदीप सिंहमार)। कभी देश के मुख्य नगरों में शुमार रहे ऐतिहासिक नगर हांसी में कई स्थानों पर ऐसी धरोहरें हैं जिन्हें देखकर कोई भी आगंतुक सोचने के लिए मजबूर हो जाता है। धरोहरों की निर्माण कला का तो बेजोड़ नमूना दिखाई देता है। हांसी जहां मुगलकाल, हिन्दू सम्राटों व गुलामी के दिनों में ब्रिटीश हुकूमत के सरदारों के लिए केंद्र रहा वहीं इस धरती को सूफी संतों की धरती के नाम से भी जाना जाता है। हांसी शहर के दक्षिण में आज भी चार सूफी संतों के नाम से बनी दरगाह चारकुतुब देखी जा सकती है। मुस्लिम समाज के लिए चारकुतुब दरगाह का अपना विशेष महत्व है। इसी दरगाह के दक्षिण प्रांगण में बने कब्रिस्तान में एक विशाल मकबरा बना हुआ है। यह मकबरा बंजारा जाति में मशहूर रहे लक्खी बंजारे के मकबरे के नाम से जाना जाता है। इस ऐतिहासिक मकबरे के बारे में शहर के प्रमुख लोगों के साथ-साथ आसपास रहने वाले लोग भी नहीं जानते। इतिहास में भी हांसी में स्थित पृथ्वीराज चौहान के दुर्ग व बड़सी गेट को जो स्थान मिला वह स्थान लक्खी बंजारे के मकबरे को नहीं मिल सका।
आज गंदगी व अतिक्रमण का शिकार हुआ मकबरा
कब्रिस्तान के प्रांगण में जहां मकबरा है वहां आज गंदगी का आलम छाया हुआ है। इर्द-गिर्द के क्षेत्र में स्थानीय लोगों द्वारा कब्जे कर लिए गए हैं। मकबरे के करीब 100 मीटर की परिधि में भी अवैध निर्माण दिखाई दे रहे हैं। कभी शान से बनवाया गया यह मकबरा अब अपनी शान बचाने के लिए इंतजार कर रहा है। दिन-प्रतिदिन बढ़ते अतिक्रमण व गंदगी से मकबरे का क्षेत्र अब दूर से दिखाई ही नहीं देता है।
बड़सी गेट से मिलता है मकबरे का स्वरूप
कहा जाता है कि इस मकबरे को लक्खी नामक बंजारे ने बनवाया था। इसके निर्माण में लाख रंग के पत्थरों का प्रयोग किया गया है। निर्माण की दृष्टि से इसका स्वरूप हांसी में अलाऊदीन खिलजी द्वारा बनवाए गए ऐतिहासिक बड़सी दरवाजे से मिलता है। मकबरे के अंदर जाने के लिए चार गेट बने हुए हैं। गेटों की रूपरेखा बड़सी दरवाजे के समान बनी हुई है। इसी की तरह पत्थरों को उकेर कर इसे बनाया गया है।
मकबरे में दफनाया गया था बंजारे का शव
कहा जाता है कि लक्खी बंजारा एक धनवान चरवाहा था, उसके पास एक लाख भेड़-बकरियां हुआ करती थी। लक्खी जन्म से हिंदू था लेकिन दरगाह चारकुतुब के पहले कुतुब शेख जमालउद्दीन साहब के प्रति अपार श्रद्धा भाव होने के कारण उन्होंने मुस्लिम धर्म अपना लिया था। लक्खी ने कुतुब शेख जमालउद्दीन साहब को अपना गुरू भी माना। इतिहास की धरोहर हांसी के अनुसार लक्खी बंजारे ने एक बार अपने गुरू को कहा कि आपके इन्तकाल(देहांत) के बाद आपके शरीर को इस मकबरे में दफनाया जाना चाहिए, ऐसी मेरी इच्छा है। इस बात पर गुरूजी ने कहा कि यह तो खुदा पर निर्भर है कि मकबरा किस के लिए बना है। बताया जाता है कि लक्खी बंजारे का देहांत अपने गुरू से पहले हो गया और इस मकबरे में उसके शव को दफनाया गया। आज भी मकबरे में बंजारे की मजार देखी जा सकती है। यह मजार सफेद संगमरमर के पत्थरों से बनाई गई है। पहले मकबरे के दरवाजों को ईंटों से ढककर रखा जाता था लेकिन आजकल इसके सभी दरवाजे खुले हैं।
पंडित लख्मीचंद व मांगेराम की रचनाओं में है लक्खी बंजारे का जिक्र
लक्खी बंजारे की कहानी कोई नई कहानी नहीं है। देश के हर हिस्से में इस बंजारे के किस्से सुने जा सकते हैं। देश के प्रत्येक राज्यों की संस्कृति के अनुसार उनके किस्से भी अलग-अलग तरह के घड़े गए हैं। हरियाणा भी इससे अछूता नहीं है। हरियाणवी रागनियों व लोकगीतों में अपने समय में नाम कमाने वाले पंडित लख्मीचंद व मांगेराम ने भी अपनी काव्य रचनाओं में लक्खी बंजारे का प्रमुखता से जिक्र किया है। हरियाणवीं लोक गीतों 'हम सभी राजपूत जात के, नहीं मरण का टाला, ईब मारै स फेर रोवेगी बंजारे की ढालाÓ व 'कुता मार बंजारा रोया या वाए कहाणी बणगी, मै काला था तूं भूरी, मेरी क्यूकर रानी बणगीÓ आदि में लक्खी बंजारे का जिक्र सुना जा सकता है।
कुता मार बंजारा रोया
लोककथाओं के अनुसार लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) शहर में लक्खी नामक एक साहुकार बंजारा रहता था। वह अपने समय में कभी 352 सरकियों का मालिक था। समय गुजरता गया और लक्खी बंजारे का सब कुछ लूट गया, यहां तक की उसके परिवार के सदस्य भी नहीं बचे। लक्खी बंजारे के पास बचा तो सिर्फ उसका वफादार कुता। कहते हैं कि बंजारा अपने कुत्ते को साथ लेकर चलता हुआ आगरा शहर तक पहुंच गया। इससे पहले गरीब बेहाल हुए बंजारे पर काफी कर्ज चढ़ गया। एक किंवदंती के अनुसार यहां आकर लक्खी बंजारे ने एक साहुकार से कर्ज लेना चाहा। साहुकार ने कर्ज देने के बदले कुछ गिरवी रखने की बात कही। साहुकार की इस बात पर लक्खी बंजारे ने कर्ज के बदले में अपने वफादार कुत्ते को साहुकार के पास गिरवी रख दिया। बंजारे ने अपने कुत्ते को कर्ज न चुकाने तक साहुकार के पास रहने के लिए कहा। बताया जाता है कि साहुकार के घर एक रात को डकैती पड़ जाती है। चोर जिस समय साहुकार के घर में चोरी कर रहे थे वह कुत्ता गली में खड़ा यह सारा दृश्य देखता रहा। जब चोर धन लेकर चले तो कुत्ता पीछे-पीछे चलता रहा। चोरों ने धन गांव से बाहर एक तालाब के किनारे दबा दिया। कुत्ता यह सब देखकर वापिस साहुकार के दरवाजे पर आ गया। सुबह जब साहुकार के घर चोरी होने के कारण हड़कंप मचा तो वह कुत्ता बार-बार अपने साहुकार की धोती को पकड़कर खिंचने लगा। उसी दौरान एक वृद्ध ने कहा कि यह कुत्ता इशारों के द्वारा कुछ कह रहा है। बताते हैं कि कुत्ता आगे-आगे चलता रहा और सभी लोग उसके पीछे चलने लगे। कुत्ता सभी को उसी स्थान पर ले गया जहां चोरों ने लूटने के बाद धन को दबाया था। उस स्थान को जब खोदकर देखा गया तो साहुकार का सारा धन वहीं दबा मिल गया। कुत्ते की इस समझदारी को देखकर साहुकार ने समझा कि लक्खी बंजारे का यह कुत्ता कोई मामूली कुत्ता नहीं है। अपना चोरी हुआ धन मिलने के कारण साहुकार ने उस कुत्ते को अपने पास से रिहा करते हुए उसके गले में एक चिट्ठी लटका दी व कहा कि बंजारे का कर्ज आज पूरा हो गया। वह अपने मालिक के पास जा सकता है। चिट्ठी में भी कुत्ते की वफादारी के कारण रिहा करने की बात लिखी गई थी। इसी दौरान कुत्ता वहां से चलकर अपने स्वामी लक्खी बंजारे के ठिकाने पर पहुंच गया। जब लक्खी बंजारे को अपना कुत्ता आता हुआ दिखाई दिया तो उसने समझा कि वह कर्ज के बदले में साहुकार के पास इस कुत्ते को गिरवी रखकर आया था और आज इस कुत्ते ने वहां से भागकर मेरा अपमान करवाया है। बताते हैं कि उसी वक्त बंजारे ने तैश में आकर अपने कुत्ते को बिना सोचे-समझे मार दिया। कुत्ते के मरने के बाद बंजारे ने उसके गले में बंधी चिट्ठी खोलकर देखी तो उसमें उस कुते के गुणों का वर्णन किया गया था। जब बंजारे ने साहुकार द्वारा लिखी गई इस चिट्ठी को पढ़ा तो वह पछताता हुआ रोने लगा। इसी समय से भारतीय समाज में एक बात प्रचलित हुई कि मुझे मारकर तूं इस तरह पछताएगा, जिस तरह कुत्ते को मारकर बंजारा रोया था।




बदलते परिवेश में कहीं खो गया है तांगा
हिसार (संदीप सिंहमार)
1990 के दशक में देश के सभी गावों में तांगों की सवारी की जाती थी लेकिन अब तांगे कहीं भी दिखाई नहीं देते। जिन तांगों में कभी गांव से दूल्हे की बारात सजकर चलती थी व दुल्हन भी बड़े चाव से तांगे पर सवार होकर अपनी ससुराल आती थी उन्ही तांगों का प्रचलन यातायात क्रान्ति के कारण लगभग बंद हो गया। करीब दो दशक पहले तब लोग अपने नजदीकी गंतव्य तक पहुंचने के लिए तांगों की सवारी करते थे लेकिन वर्तमान युग में तांगों का स्थान चमचमाती गाड़ीयों व मध्यम वर्ग के लोगों के लिए तीन पहियों वाली आटो रिक्शा ने ले लिया। आधुनिक मशीनीकरण के युग में लोगों ने भी शीघ्रता से चलने की चाह में धीमी गति से चलने वाले तांगों को एकदम बिसार दिया है। तांगों के सहारे आजीविका चलाने वाले लोगों ने भी अपना ध्यान हटाकर आटो रिक्शा व अन्य वाहनों पर लगा दिया है।
मंहगाई भी एक कारण
तांगे बंद होने का एक कारण मंहगाई भी माना जा रहा है। तांगा चलाने के लिए अच्छी नस्ल का घोड़ा या घोड़ी क ी कीमत सातवें आसमान पर होने के कारण घोड़े खरीदना हर किसी के बस की बात नही है। इसके अलावा तांगा बनवाने में भी अच्छी खासी कीमत लगती है। जानकारों का मानना है कि आज एक तांगे की कीमत से दो ऑटो खरीदे जा सकतें हैं।
नवाब के लिए आरक्षित थी सीट
नवाबों के शहर के नाम से मशहूर लखनऊ में जितने भी तांगे चलते थे उनकी बीच की एक सीट नवाब के नाम से आरक्षित होती थी। तांगे में कितनी भी भीड़ क्यों न हो जाती पर उस आरक्षित सीट पर नवाब के सिवाए कोई नहीं बैठता था।
फिल्मों में भी था तांगा
दो या तीन दशक पहले की अधिकतर फिल्मों में तांगे की झलक जरूर दिखाई देती थी। सुपरहिट कॉमर्शियल फिल्म शोले से लेकर आर्ट फिल्म एक चादर मैली सी तक में तांगे वालों की भूमिका अहम थी। कई फिल्में तो तागें वाले के चरित्र के इर्द गिर्द ही बुनी गई थी। मर्द फिल्म का सुपर हिट गाना मैं मर्द तांगे वाला आज भी लोग गुनगुनातें हैं।
डायनोंसोर भी था तांगेवाले भी थे....
तांगे वाला और उसका तांगा अब किस्से कहानियों और प्रदर्शनी की वस्तुओं तक ही सिमट कर रह गया है। आगामी पीढ़ी कहीं इमिहास की किताबों से पढ़कर या पुरानी फिल्मों से देखकर पूछेगी कि ये तांगे क्या बला थे तो हमें उन्हें डायनोसोर के अस्तिव की तर्ज पर बताना पड़ेगा कि हाँ वे कभी हुआ करते थे।
मैं पहलम तांगें में आई थी...
शहर में आए गांव के एक बुजुर्ग रामस्वरूप व 80 बसंत देख चुकी बुजुर्ग महिला भरपाई के सामने जब तांगो की सवारी का जिक्र किया गया तो वे अपने पुरानी यादों में खो गए। बुजुर्ग महिला ने ठेठ हरियाणवी लहजे में क हा कि मैने ब्याह में मेरा जाऊं तागें में ऐ बिठा के ल्याया था अर जिब मैं पहलम झटके आई थी तो भी तांगे मै बैठ के आई थी । आजकल तांगे बदं क्यों हो गए है पर उनका कहना था कि नई पीढी रफ्तार की शौकीन है और तांगे जैसे पुराने यातायात के साधन में खुद की तौहीन समझतें हैं।


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