गांवों से गायब हो रही है दो बैलों वाली गाड़ी
अब गलियों में नहीं सुनाई देती है चुर्र-चूं-चुर्र-चूं की आवाज
हिसार (संदीप सिंहमार)। एक समय था जब प्रदेश के गांवों में दो बैलों की गाड़ी (बैलगाड़ी) गांव की गलियों व खेतों में सुबह से लेकर रात होने तक आते-जाते दिखाई देती थी। ग्रामीण दो बैलों वाली गाड़ी को अपना आदर्श वाहन मानते थे। लेकिन आम आदमी की सवारी कहे जाने वाली यह गाड़ी अब गांवों से गायब होती जा रही है। ग्रामीण विशेषकर किसान बोझा ढोने, खेती के कार्य के लिए अकसर दो बैलों की गाड़ी का ही प्रयोग करते थे। किसानों व ग्रामीणों के लिए इससे सस्ता वाहन कुछ भी नहीं था। करीब तीन दशक पहले तक किसानों के लगभग दूसरे या तीसरे घरों में भी ये गाड़ी देखने को मिलती थी, किसान इनका प्रयोग खेती के कामों, व्यावसायिक जरूरतों को पूरा करने व सफर का आनंद लेने के लिए करते थे। लेकिन मशीनीकरण का युग आने के कारण धीरे-धीरे दो बैलों की गाड़ी अब लगभग गायब हो गई है। यह नहीं है कि गांवों में वर्तमान युग में बैलगाड़ी देखने को नहीं मिलती, बैलगाड़ी तो है अब लेकिन बैलगाड़ी में दो की बजाय एक ही बैल देखने को मिलता है। इसे बदलते परिवेश का नतीजा कहे या कुछ ओर। दो बैलों की गाड़ी कम होने का एक कारण ट्रैक्टर माना जा रहा है, वहीं महंगाई भी इसका एक कारण है। महंगाई बढऩे से बैलों की कीमत भी आसमान छूने लगी है।
शुभ मानी जाती थी बैलगाड़ी
गांवों में जब भी कोई शुभ कार्य आयोजित किया जाता था तो सामान लाने के लिए बैलगाड़ी का ही प्रयोग शुभ माना जाता था। शादी समारोह में मंडप सजाने के लिए जंगल से पलास के पते लाने के लिए व चिनाई के कार्य के दौरान तालाब-पोखर से पानी लाने हेतु बैलगाड़ी का प्रयोग शुभ माना जाता था। लेकिन बदलते परिवेश में अब बैलगाड़ी का स्थान ऑटो रिक्शा व मोटर गाड़ी ने ले लिया है।
बैलगाड़ी की बनावट
वैसे तो बैलगाड़ी देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग रूपों में मिलती है। हरियाणा में भी बैलगाड़ी के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। दो बैलों वाली गाडिय़ों में लोहे के पहिए होते थे, जिन्हें खींचने के लिए बैलों को बहुत जोर लगाना पड़ता था। लोहे के पहियों को टिकाणी पर फिट करने के लिए शण लगाया जाता था। शण जब सिकुड़ जाता था तो बैलगाड़ी के पहियों से गलियों में चुर्र-चूं-चुर्र-चूं की आवाज सुनाई देती थी। रबड़ के टायर लगी बैलगाड़ी बनने के बाद लोगों ने दो के स्थान पर एक बैल का प्रयोग करना शुरू कर दिया। वहीं शण का स्थान भी बैरिंग ने ले लिया। पहियों व टिकाणी के बीच बैरिंग लगने से बैल आसानी से बैलगाड़ी को खींच सकते हैं। बैलगाड़ी को गाड़ा, बुग्गी व रेहड़ू आदि नामों से भी जाना जाता है। बैलगाड़ी के निर्माण में टिकाणी या धुरी पर एक चौरस लकड़ी की बाडी बनाई जाती है। बाडी में फड़ व फड़ पर जुआ लगाया जाता है। जिसमें बैलों को जोड़ा जाता है। जुए में लकड़ी की सिमल व सिमल में बैलों को जोड़ते हुए जोत लगाई जाती है और आडर पर बैठकर बैलगाड़ी चलाई जाती है।
त्यौहारों पर सजाए जाते थे बैल
बैलगाड़ी में जुडऩे वाले बैलों को समय-समय पर त्यौहारों पर सजाया जाता था। खासकर दीपावली पर बैलों के गले में मोर के पंखों व पुराने कपड़ों से बनाए गए गजरे पहनाए जाते थे। बैलों के पीठ पर दोनों तरफ मेहंदी व सींगों पर सरसों का तेल लगाया जाता था। मेले के अवसरों पर गले में चौरासी बांधी जाती थी। सुबह-शाम बैलगाड़ी आते-जाते हुए चौरासी के घूंघरूओं की आवाज सभी के कानों को भाती थी।
घुमंतू जाति आज भी घूमती है बैलगाडिय़ों पर
देश-प्रदेश के गांवों से चाहे आज बैलगाडिय़ों का चलन कम हो गया हो लेकिन घुमंतू जनजाति (पछइहां लोहार) के लोग अब भी बैलगाड़ी में ही अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं। देश-प्रदेश के कोने-कोने में घूमकर खाने-कमाने वाली यह जाति बैलगाड़ी में ही सफर कर इसे ही अपना आशियाना भी बना लेते हैं। इस जाति के लोग विभिन्न स्थानों पर अपना पैतृक पेशा पुराने लोहे को गरम कर चिमटा, ताकू, तासला, झारनी, कड़ाही व करछुला व पलियां बनाकर बेचते हैं।
सिनेमा जगत में बैलगाड़ी
सिनेमा जगत में कई फिल्मों में बैलगाड़ी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। बैलगाड़ी को जीवंत रूप में प्रस्तुत किया गया है। वासु भट्टाचार्य की फिल्म 'तीसरी कसमÓ की पूरी कहानी बैलगाड़ी के इर्द-गिर्द ही घूमती है। इस फिल्म के सभी गाने बैलगाड़ी में ही फिल्माए गए हैं। पात्र हीरामन बैलगाड़ी में बैठा गा रहा है, 'सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, न हाथी है न घोड़ा है, वहां पैदल ही जाना है, दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाईÓ। इसी तरह इसी फिल्म का गाना 'सजनवा बैरी हो गए हमार, करमवा बैरी हो गए हमार, चिट्ठियां हो तो हर कोई बांचे, भाग न बांचे कोए भी बैलगाड़ी पर ही हीरामन गाता प्रतीत होता है। महान फिल्मकार विमलराय की फिल्म 'दो बीघा जमीनÓ व देवदास में भी बैलगाड़ी की अपनी अहमियत है। अन्य फिल्में आशीर्वाद व गीत गाता चल में बैलगाड़ी को विशेष स्थान दिया गया है। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम द्वारा बनाई गई एक फिल्म में तो फिल्म की शुरूआत ही बैलगाड़ी में बैठे एक बुजुर्ग से की गई है।
हिसार (संदीप सिंहमार)। एक समय था जब प्रदेश के गांवों में दो बैलों की गाड़ी (बैलगाड़ी) गांव की गलियों व खेतों में सुबह से लेकर रात होने तक आते-जाते दिखाई देती थी। ग्रामीण दो बैलों वाली गाड़ी को अपना आदर्श वाहन मानते थे। लेकिन आम आदमी की सवारी कहे जाने वाली यह गाड़ी अब गांवों से गायब होती जा रही है। ग्रामीण विशेषकर किसान बोझा ढोने, खेती के कार्य के लिए अकसर दो बैलों की गाड़ी का ही प्रयोग करते थे। किसानों व ग्रामीणों के लिए इससे सस्ता वाहन कुछ भी नहीं था। करीब तीन दशक पहले तक किसानों के लगभग दूसरे या तीसरे घरों में भी ये गाड़ी देखने को मिलती थी, किसान इनका प्रयोग खेती के कामों, व्यावसायिक जरूरतों को पूरा करने व सफर का आनंद लेने के लिए करते थे। लेकिन मशीनीकरण का युग आने के कारण धीरे-धीरे दो बैलों की गाड़ी अब लगभग गायब हो गई है। यह नहीं है कि गांवों में वर्तमान युग में बैलगाड़ी देखने को नहीं मिलती, बैलगाड़ी तो है अब लेकिन बैलगाड़ी में दो की बजाय एक ही बैल देखने को मिलता है। इसे बदलते परिवेश का नतीजा कहे या कुछ ओर। दो बैलों की गाड़ी कम होने का एक कारण ट्रैक्टर माना जा रहा है, वहीं महंगाई भी इसका एक कारण है। महंगाई बढऩे से बैलों की कीमत भी आसमान छूने लगी है।
शुभ मानी जाती थी बैलगाड़ी
गांवों में जब भी कोई शुभ कार्य आयोजित किया जाता था तो सामान लाने के लिए बैलगाड़ी का ही प्रयोग शुभ माना जाता था। शादी समारोह में मंडप सजाने के लिए जंगल से पलास के पते लाने के लिए व चिनाई के कार्य के दौरान तालाब-पोखर से पानी लाने हेतु बैलगाड़ी का प्रयोग शुभ माना जाता था। लेकिन बदलते परिवेश में अब बैलगाड़ी का स्थान ऑटो रिक्शा व मोटर गाड़ी ने ले लिया है।
बैलगाड़ी की बनावट
वैसे तो बैलगाड़ी देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग रूपों में मिलती है। हरियाणा में भी बैलगाड़ी के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं। दो बैलों वाली गाडिय़ों में लोहे के पहिए होते थे, जिन्हें खींचने के लिए बैलों को बहुत जोर लगाना पड़ता था। लोहे के पहियों को टिकाणी पर फिट करने के लिए शण लगाया जाता था। शण जब सिकुड़ जाता था तो बैलगाड़ी के पहियों से गलियों में चुर्र-चूं-चुर्र-चूं की आवाज सुनाई देती थी। रबड़ के टायर लगी बैलगाड़ी बनने के बाद लोगों ने दो के स्थान पर एक बैल का प्रयोग करना शुरू कर दिया। वहीं शण का स्थान भी बैरिंग ने ले लिया। पहियों व टिकाणी के बीच बैरिंग लगने से बैल आसानी से बैलगाड़ी को खींच सकते हैं। बैलगाड़ी को गाड़ा, बुग्गी व रेहड़ू आदि नामों से भी जाना जाता है। बैलगाड़ी के निर्माण में टिकाणी या धुरी पर एक चौरस लकड़ी की बाडी बनाई जाती है। बाडी में फड़ व फड़ पर जुआ लगाया जाता है। जिसमें बैलों को जोड़ा जाता है। जुए में लकड़ी की सिमल व सिमल में बैलों को जोड़ते हुए जोत लगाई जाती है और आडर पर बैठकर बैलगाड़ी चलाई जाती है।
त्यौहारों पर सजाए जाते थे बैल
बैलगाड़ी में जुडऩे वाले बैलों को समय-समय पर त्यौहारों पर सजाया जाता था। खासकर दीपावली पर बैलों के गले में मोर के पंखों व पुराने कपड़ों से बनाए गए गजरे पहनाए जाते थे। बैलों के पीठ पर दोनों तरफ मेहंदी व सींगों पर सरसों का तेल लगाया जाता था। मेले के अवसरों पर गले में चौरासी बांधी जाती थी। सुबह-शाम बैलगाड़ी आते-जाते हुए चौरासी के घूंघरूओं की आवाज सभी के कानों को भाती थी।
घुमंतू जाति आज भी घूमती है बैलगाडिय़ों पर
देश-प्रदेश के गांवों से चाहे आज बैलगाडिय़ों का चलन कम हो गया हो लेकिन घुमंतू जनजाति (पछइहां लोहार) के लोग अब भी बैलगाड़ी में ही अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं। देश-प्रदेश के कोने-कोने में घूमकर खाने-कमाने वाली यह जाति बैलगाड़ी में ही सफर कर इसे ही अपना आशियाना भी बना लेते हैं। इस जाति के लोग विभिन्न स्थानों पर अपना पैतृक पेशा पुराने लोहे को गरम कर चिमटा, ताकू, तासला, झारनी, कड़ाही व करछुला व पलियां बनाकर बेचते हैं।
सिनेमा जगत में बैलगाड़ी
सिनेमा जगत में कई फिल्मों में बैलगाड़ी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। बैलगाड़ी को जीवंत रूप में प्रस्तुत किया गया है। वासु भट्टाचार्य की फिल्म 'तीसरी कसमÓ की पूरी कहानी बैलगाड़ी के इर्द-गिर्द ही घूमती है। इस फिल्म के सभी गाने बैलगाड़ी में ही फिल्माए गए हैं। पात्र हीरामन बैलगाड़ी में बैठा गा रहा है, 'सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, न हाथी है न घोड़ा है, वहां पैदल ही जाना है, दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाईÓ। इसी तरह इसी फिल्म का गाना 'सजनवा बैरी हो गए हमार, करमवा बैरी हो गए हमार, चिट्ठियां हो तो हर कोई बांचे, भाग न बांचे कोए भी बैलगाड़ी पर ही हीरामन गाता प्रतीत होता है। महान फिल्मकार विमलराय की फिल्म 'दो बीघा जमीनÓ व देवदास में भी बैलगाड़ी की अपनी अहमियत है। अन्य फिल्में आशीर्वाद व गीत गाता चल में बैलगाड़ी को विशेष स्थान दिया गया है। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम द्वारा बनाई गई एक फिल्म में तो फिल्म की शुरूआत ही बैलगाड़ी में बैठे एक बुजुर्ग से की गई है।