Saturday, July 9, 2011
Tuesday, July 5, 2011
इतिहास के पन्नों में नहीं है लाला हुकुमचंद व मिर्जा मुनीर बेग की शहादत
-हांसी से अंग्रेजों को खदेडऩे के लिए चलाया था आंदोलन
संदीप सिंहमार
अंग्रेजों की दासता से मुक्ति पाने के लिए जिन वीरों ने अपनी जान कुर्बान की, आज समाज उन वीर शहीदों को भुला रहा है। उन शहीदों के नाम देश के इतिहास में भी मुख्य रूप से शामिल नहीं किए गए हैं। ऐसे ही बिसार दिए गए शहीदों के नाम है लाला हुकुमचंद जैन कानूनगो व मिर्जा मुनीर बेग। लाला हुकुमचंद जैन हिंदू थे तो मिर्जा मुनीर बेग मुस्लिम समाज से थे। दोनों नेता अपने-अपने धर्म के लोगों में खासे प्रभावशाली व्यक्ति थे। 1857 की क्रांति से पहले दोनों नेता ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार भी थे। कई गांवों पर इनका शासन चलने के कारण गहरा प्रभाव बना हुआ था। ब्रिटिश सरकार ने ही लाला हुकुमचंद जैन को कानूनगो नियुक्त कर हांसी में बसाया था तो मिर्जा मुनीर बेग को भी एक महत्वपूर्ण पद दिया गया था। लेकिन अंग्रेजों के जुल्मों को दोनों नेताओं ने स्वीकार नहीं किया और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हांसी क्षेत्र में क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर अंग्रेजों को हिलाकर रख दिया। इन शहीदों के बारे में हांसी व हिसार के आसपास के बुजुर्ग व बुद्धिजीवी वर्ग के लोग तो अवश्य जानते हैं लेकिन युवा पीढ़ी इनके नामों व इनकी कुर्बानी के बारे में नहीं जानती। अंग्रेजों के जुल्मों से तंग आ चुकी देश की जनता ने 11 मई 1857 को मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को भारत का सम्राट घोषित कर दिल्ली में स्थित लालकिले में गद्दी पर बैठाया। मई 1857 के अंतिम सप्ताह में दिल्ली से मुगल परिवार का बादशाह शहजादा मुहम्मद आजम ने हांसी नगर आकर सम्राट बहादुरशाह जफर की तरफ से हांसी क्षेत्र के शासन को अपने हाथों में ले लिया। 29 मई 1857 को गांव रोहनात, पुट्ठी मंगल खां, जमालपुर, मंगाली, भाटोल, रांगड़ान, हाजमपुर, खरड़ अलीपुर के किसानों व हांसी के लोगों ने हांसी में अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। क्रांति के पहले ही दिन किले में घुसकर क्रांतिकारियों ने तहसीलदार को गोली से उड़ा दिया व कई अन्य अंग्रेज अफसरों को भी मौत के घाट उतार दिया।
इसी बीच हांसी में क्रांतिकारियों की कमान लाला हुकुमचंद जैन कानूनगो व मिर्जा मुनीर बेग ने संभाली। लालाजी हिंदू व मिर्जा बेग मुस्लिम होने के कारण भी दोनों नेताओं में किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं था। दोनों ही ब्रिटिश सरकार की गुलामी की बेडिय़ों को काटकर आजादी की खुली हवा में सांस लेना चाहते थे। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए 17 जून 1857 को लाला हुकुमचंद व मिर्जा मुनीर बेग ने दिल्ली के सुल्तान बहादुरशाह जफर को एक पत्र लिखकर हांसी से अंग्रेजों को खदेडऩे के लिए सहायता भेजने व शाही सेना का पूरा साथ देने की बात कही। पत्र मिलने के बाद ही शहजादा मुहम्मद आजम हांसी क्षेत्र में सक्रिय हुआ था। इस दौरान रांगड़ मुसलमानों व हिंदुओं ने मिल-जुलकर विद्रोह किया। क्रांतिकारियों ने अपने नेताओं के नेतृत्व में क्षेत्र में अनेक अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार कर अंग्रेजों से मुक्त होने का प्रयास किया। अंग्रेजी जनरल वार्न कोर्टलैंड ने अपनी दमनकारी नीति के द्वारा क्रांति को दबाने के लिए कप्तान माइल्डवे को भारी सेना के साथ हांसी भेजा। अपनी सेना की हार का समाचार सुनकर जनरल वार्न स्वयं हांसी पहुंचा। क्रांतिकारियों ने उनकी सेना के साथ भी अपने देशी हथियारों से जमकर मुकाबला किया। 20 सितंबर 1857 को दिल्ली पर अंग्रेजों ने एक बार फिर कब्जा कर लिया। बहादुरशाह जफर को गिरफ्तार कर उन्हें रंगून जेल में कैद कर दिया गया। ब्रिटिश सैनिकों ने किले की तलाशी के लिए अभियान चलाया तो तलाशी के दौरान लाला हुकुमचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग का वह पत्र अंग्रेजों के हाथ लग गया जो उन्होंने 17 जून 1857 को बादशाह बहादुरशाह के पास भेजा था। हांसी में विद्रोह अभी शांत नहीं हुआ था इसलिए विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने पलटन नं.14 को हांसी भेज दिया।
ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तारी के लिए जनरल वार्न को भेजा पत्र
जिला कलैक्टर हिसार जनरल वार्न के पास दिल्ली से तलाशी के दौरान मिला वह पत्र भेजा गया जिसमें लाला हुकुमचंद व मिर्जा मुनीर बेग ने बहादुरशाह के प्रति वफादारी की बात कही थी। जनरल वार्न कोर्टलैंड के आदेश पर लाला हुकुमचंद, उनके भतीजे फकीरचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग को गिरफ्तार कर हिसार की अदालत में राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। इस मुकदमे में लाला हुकुमचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग को फांसी की सजा सुनाई गई व फकीरचंद को पत्र लिखने के आरोप में पांच वर्ष की कैद की सजा सुनाई गई। अदालत द्वारा सुनाई गई सजा का स्थानीय लोगों ने विरोध भी किया। आखिर 19 जनवरी 1858 को लाला हुकुमचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग को लालाजी की हवेली के सामने सरेआम फांसी पर लटका दिया गया। दोनों क्रांतिकारियों ने अब सदा के लिए अपनी आंखें बंद कर ली थी। अंग्रेजों के जुल्म की इंतहा यहीं समाप्त नहीं हुई बल्कि फांसी के बाद इनके शव भी परिजनों को नहीं सौंपे गए। इनके शवों को धर्म के विपरीत आचरण करते हुए लालाजी के शव को दफनाया गया व मिर्जा मुनीर बेग के शव को भंगी के हाथों फूंक दिया गया। इसी दौरान अपने ताऊ के कहने पर पत्र लिखने वाले फकीरचंद को भी फांसी दी गई। हालांकि अदालत ने उसे पांच वर्ष की कैद की सजा सुनाई थी। फकीरचंद को फांसी देते वक्त सजा सुनाने वाले जज ने भी ऐतराज जताया था लेकिन अंग्रेजों ने उनकी भी बात अनसुनी कर दी।
लाला हुकुमचंद जैन व मिर्जा मुनीर बेग की शहादत के बाद देश आजाद होने के उपरांत भी केंद्र सरकार व राज्य सरकार को उनकी शहादत याद नहीं आई। लाला हुकुमचंद जैन की स्मृति में लाल लहरीमल जैन, एडवोकेट उमराव सिंह जैन व जौहरीमल ने अपने खर्च पर 22 जनवरी 1961 में एक पार्क बनवाया। इस पार्क में लाला हुकुमचंद जैन की प्रतिभा भी लगाई गई। बड़े खेद की बात यह है कि इस पार्क को आज भी शहीदों के नाम पर नहीं बल्कि डडल पार्क के ही नाम से जाना जाता है।
जन्म परिचय-लाला हुकुमचंद जैन
शहीद लाला हुकुमचंद जैन का जन्म 1816 ई0 में डडल पार्क मुगलपुरा हांसी में हुआ। इनके पिता दुनीचंद जैन क्षेत्र के कानूनगो थे। इनके परिवार के शीतलप्रसाद, खेमचंद, रामदयाल व जवाहरलाल के बाद ब्रिटिश सरकार ने लालाजी को सन् 1856 में हांसी का कानूनगो बनाया। इनके भाई किशनदास उस समय हांसी के नहर विभाग में कैनाल सिरस्तदार के पद पर थे। 29 मई 1857 को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में लाला हुकुमचंद जैन ने मिर्जा मुनीर वेग के साथ मिलकर क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर हांसी दुर्ग पर स्वराज्य की स्थापना की लेकिन शीघ्र ही अंग्रेजी फौजी ने आंदोलन दबा दिया।
जन्म परिचय-मिर्जा मुनीर बेग
मिर्जा मुनीर बेग के पूर्वज मुगल बादशाह बाबर के साथ भारत में आए थे। जब राजकुमार हुमायूं को हिसार, हांसी का जागीरदार बनाया गया तो मिर्जा मुनीर बेग के पूर्वज बिन्दुबेग को हांसी का नाजीम नियुक्त किया गया। डडल पार्क से धोला कुआं के बीच बेग परिवार की एक विशाल हवेली थी। जिसे 1947 में मची मारकाट के दौरान बलवाईयों ने तोड़कर खाक कर दिया था। इनके पूर्वज मिर्जा अजीम बेग व मिर्जा इलियास बेग उस समय शासन प्रबंध के सहयोगी थे। सन् 1857 के विद्रोह में मिर्जा मुनीर बेग ने हांसी क्षेत्र में मुसलमान विद्रोहियों का नेतृत्व किया था। सन् 1947 तक इनके वंशज मौहल्ला मुगलपुरा(वर्तमान रामपुरा) में रहते थे। लेकिन हिंदू-मुस्लिम दंगों में देश के विभाजन के बाद इनके वंशज मुलतान पाकिस्तान में चले गए। मुनीर बेग के वंशज आज भी मुलतान में रह रहे हैं।
अरूणा आसफ अली ने तिरंगा फहराकर अंग्रेजों को दी खुली चुनौती
संदीप सिंहमार।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में असंख्य क्रांतिकारियों ने प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप अपना योगदान दिया। इस आंदोलन में पुरुष क्रांतिकारियों के साथ-साथ महिला क्रांतिकारी ने भी कंधे से कंधा मिलाकर काम किया। आजादी की जंग में देश की महिलाओं के बलिदान को हमेशा के लिए याद रखा जाएगा। लेकिन विडंबना यह है कि जिन वीरांगनाओं ने अपना संपूर्ण जीवन देश को अंग्रेजों की बेडिय़ों से मुक्त करने में लगा दिया, उन्हें साहित्य से दूर रखा गया। अरूणा आसफ अली भी एक ऐसी ही महिला स्वतंत्रता सेनानी है। 1930 के दशक में अंग्रेजों को सोचने के लिए मजबूर करने वाली अरूणा आसफ अली को आज कृतज्ञ राष्ट्र के लोगों द्वारा भुला दिया गया है। महात्मा गांधी के आह्वान पर हुए 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अरूणा आसफ अली ने सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था। इतना ही नहीं जब सभी प्रमुख नेता गिरफ्तार कर लिए गए तो उन्होंने अद्भुत कौशल का परिचय दिया और 9 अगस्त के दिन मुम्बई के गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा झंडा फहराकर अंग्रेजों को देश छोडऩे की खुली चुनौती दे डाली।
कालका में हुआ था जन्म
भारत के स्वाधीनता संग्राम में महान योगदान देने वाली अरूणा आसफ अली का जन्म 16 जुलाई 1909 को हरियाणा (तत्कालीन पंजाब) के कालका में हुआ था। लाहौर और नैनीताल से पढ़ाई पूरी करने के बाद वह शिक्षिका बन गई और कोलकाता के गोखले मैमोरियल कॉलेज में अध्यापन कार्य करने लगी। 1928 में स्वतंत्रता सेनानी आसफ अली से शादी करने के बाद अरूणा भी स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने लगी। शादी के बाद उनका नाम अरूणा आसफ अली हो गया। परतंत्रता के दिनों में भारत की दुर्दशा और अंग्रेजों के अत्याचार देखकर अरूणा आसफ अली स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने लगी। उन्होंने महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आजााद की सभाओं में भाग लेना आरंभ कर दिया। वह इन दोनों नेताओं के संपर्क में आई और उनके साथ कर्मठता से राजनीति में भाग लेने लगी। अरूणा आसफ अली सन 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में पहली बार जेल गई। 1930 के दशक में अंग्रेजी हुकूमत उनसे बहुत परेशान थी क्योंकि उनकी गिनती अंग्रेजों की नजर में खतरनाक क्रांतिकारियों में थी।
भूख हड़ताल कर जेल के हालात सुधारे
सन् 1931 में गांधी इरविन समझौते के तहत सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया गया। लेकिन अरूणा आसफ अली को नहीं छोड़ा गया। इस पर महिला कैदियों ने उनकी रिहाई न होने तक जेल परिसर छोडऩे से इंकार कर दिया। माहौल बिगड़ते देख अंग्रेजों को अरूणा को भी रिहा करना पड़ा। सन् 1932 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और दिल्ली की तिहाड़ जेल में रखा गया। वहां उन्होंने राजनीतिक कैदियों के साथ होने वाले दुव्र्यवहार के खिलाफ भूख हड़ताल की, जिसके चलते गोरी हुकूमत को जेल के हालात सुधारने को मजबूर होना पड़ा। रिहाई के बाद राजनीतिक रूप से अरूणा ज्यादा सक्रिय नहीं रही लेकिन 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ तो वह आजादी की लड़ाई में एक नायिका के रूप में उभरकर सामने आई।
अंग्रेजी हुकूमत ने रखा अरूणा पर 5 हजार का ईनाम
गांधी जी के आह्वान पर 8 अगस्त 1942 को कांग्रेस के मुम्बई सत्र में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास हुआ। गोरी हुकूमत ने सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। ऐसे में अरूणा आसफ अली ने गजब की दिलेरी का परिचय दिया। 9 अगस्त 1942 को उन्होंने अंग्रेजों के सभी इंतजामों को धता बताते हुए मुंबई के गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा झंडा फहरा दिया। ब्रितानिया हुकूमत ने उन्हें पकड़वाने वाले को 5 हजार रुपए का ईनाम देने की घोषणा की। 1942 के बाद अरूणा आसफ अली भूमिगत हो गई थी। इस दौरान अंग्रेजी सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करने के लिए एडी-चोटी का जोर लगाया। लेकिन वह अंग्रेजों की गिरफ्त से बाहर रही। इसी बीच वह बीमार पड़ गई। जब वह काफी दिनों तक बीमार रही तो भारत के शीर्ष नेताओं ने उन्हें अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण करने की बात कही। लेकिन इस स्वाभिमानी वीरांगना ने स्पष्ट इंकार कर दिया। 1946 में गिरफ्तारी वारंट वापस लिए जाने के बाद वह लोगों के सामने आई। आजादी के बाद भी अरूणा ने राष्ट्र और समाज के कल्याण के लिए बहुत से काम किए। सन् 1948 में अरूणा आसफ अली सोशलिस्ट पार्टी में सम्मिलित हुई। 2 साल बाद सन् 1950 में उन्होंने लेफ्ट सोशलिस्ट पार्टी बनाई और वे सक्रिय होकर मजदूर आंदोलन में जी जान से जुट गई।
'बेटा, मां को कभी न भूलना
अरूणा आसफ अली की जीवन शैली काफी अलग थी। अपनी उम्र के आठवें दशक में भी उन्होंने सार्वजनिक परिवहन से सफर जारी रखा। एक बार अरूणा आसफ अली दिल्ली में यात्रियों से ठसाठस भरी बस में सवार थीं। कोई सीट खाली नहीं थी। उसी बस में आधुनिक जीवनशैली की एक युवा महिला भी सवार थी। एक आदमी ने युवा महिला की नजरों में चढऩे के लिए अपनी सीट उसे दे दी। लेकिन उस महिला ने अपनी सीट अरूणा को दे दी। इस पर वह व्यक्ति बुरा मान गया और युवा महिला से कहा कि यह सीट मैनें आपके लिए खाली की थी बहन। इसके जवाब में अरूणा आसफ अली तुरंत बोली 'मां को कभी न भूलो क्योंकि मां का हक बहन से पहले होता हैÓ। इस बात को सुनकर वह व्यक्ति काफी शर्मसार हो गया।
मरणोपरांत मिला भारत रत्न सम्मान
वर्ष 1958 में वह दिल्ली की प्रथम महापौर चुनी गई। राष्ट्र निर्माण में जीवन पर्यन्त योगदान के लिए उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। 1964 में उन्हें अंतरराष्ट्रीय लेनिन शांति पुरस्कार मिला। सन 1991 में अरूणा को जवाहर लाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय एकता के लिए 1992 में पद्म विभूषण और इंदिरा गांधी अवार्ड से सम्मानित किया गया। देश के गुलामी के दिनों व आजादी के बाद ताउम्र इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने हमेशा ही देशहित में कार्य किए। लेकिन देश के साहित्यकारों ने अरूणा को कभी उचित स्थान नहीं दिया। 29 जुलाई 1996 को इस महान वीरांगना ने इस नश्वर संसार को अलविदा कह दिया। भारत सरकार ने 1997 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्नÓ से सम्मानित किया। 1998 में उनकी याद में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। देश के लिए अपना संपूर्ण जीवन कुर्बान करने वाली अरूणा आसफ अली आज के आधुनिक भारत की महिलाओं के लिए एक आदर्श है तथा ऐसी शख्सियत को हमेशा के लिए याद रखा जाना चाहिए।
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